सोमवार, 28 सितंबर 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— पचहत्तरवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— पचहत्तरवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

 

राजसूय यज्ञकी पूर्ति और दुर्योधनका अपमान

 

अथ ऋत्विजो महाशीलाः सदस्या ब्रह्मवादिनः ।

 ब्रह्मक्षत्रियविट्शुद्रा राजानो ये समागताः ॥ २५ ॥

 देवर्षिपितृभूतानि लोकपालाः सहानुगाः ।

 पूजितास्तं अनुज्ञाप्य स्वधामानि ययुर्नृप ॥ २६ ॥

 हरिदासस्य राजर्षे राजसूयमहोदयम् ।

 नैवातृप्यन् प्रशंसन्तः पिबन् मर्त्योऽमृतं यथा ॥ २७ ॥

 ततो युधिष्ठिरो राजा सुहृत् संबंन्धि बान्धवान् ।

 प्रेम्णा निवारयामास कृष्णं च त्यागकातरः ॥ २८ ॥

 भगवानपि तत्राङ्‌ग न्यवात्सीत् तत्प्रियंकरः ।

 प्रस्थाप्य यदुवीरांश्च साम्बादींश्च कुशस्थलीम् ॥ २९ ॥

 इत्थं राजा धर्मसुतो मनोरथमहार्णवम् ।

 सुदुस्तरं समुत्तीर्य कृष्णेनासीद् गतज्वरः ॥ ३० ॥

 एकदान्तःपुरे तस्य वीक्ष्य दुर्योधनः श्रियम् ।

 अतप्यद् राजसूयस्य महित्वं चाच्युतात्मनः ॥ ३१ ॥

यस्मिन् नरेन्द्रदितिजेन्द्र सुरेन्द्रलक्ष्मीः

     नाना विभान्ति किल विश्वसृजोपकॢप्ताः ।

 ताभिः पतीन्द्रुपदराजसुतोपतस्थे

     यस्यां विषक्तहृदयः कुरुराडतप्यत् ॥ ३२ ॥

 यस्मिन् तदा मधुपतेर्महिषीसहस्रं

     श्रोणीभरेण शनकैः क्वणदङ्‌घ्रिशोभम् ।

 मध्ये सुचारु कुचकुङ्कुमशोणहारं

     श्रीमन्मुखं प्रचलकुण्डलकुन्तलाढ्यम् ॥ ३३ ॥

सभायां मयकॢप्तायां क्वापि धर्मसुतोऽधिराट् ।

 वृतोऽनुगैर्बन्धुभिश्च कृष्णेनापि स्वचक्षुषा ॥ ३४ ॥

 आसीनः काञ्चने साक्षात् आसने मघवानिव ।

 पारमेष्ठ्यश्रीया जुष्टः स्तूयमानश्च वन्दिभिः ॥ ३५ ॥

 तत्र दुर्योधनो मानी परीतो भ्रातृभिर्नृप ।

 किरीटमाली न्यविशद् असिहस्तः क्षिपन् रुषा ॥ ३६ ॥

 स्थलेऽभ्यगृह्णाद् वस्त्रान्तं जलं मत्वा स्थलेऽपतत् ।

 जले च स्थलवद् भ्रान्त्या मयमायाविमोहितः ॥ ३७ ॥

 जहास भीमस्तं दृष्ट्वा स्त्रियो नृपतयोऽपरे ।

 निवार्यमाणा अप्यङ्‌ग राज्ञा कृष्णानुमोदिताः ॥ ३८ ॥

स व्रीडितोऽवाग्वदनो रुषा ज्वलन्

     निष्क्रम्य तूष्णीं प्रययौ गजाह्वयम् ।

 हाहेति शब्दः सुमहानभूत् सतां

     अजातशत्रुर्विमना इवाभवत् ।

 बभूव तूष्णीं भगवान्भुवो भरं

     समुज्जिहीर्षुर्भ्रमति स्म यद् दृशा ॥ ३९ ॥

एतत्तेऽभिहितं राजन् यत्पृष्टोऽहमिह त्वया ।

 सुयोधनस्य दौरात्म्यं राजसूये महाक्रतौ ॥ ४० ॥

 

परीक्षित्‌ ! राजसूय यज्ञमें जितने लोग आये थेपरम शीलवान् ऋत्विज्, ब्रह्मवादी सदस्य, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, राजा, देवता, ऋषि, मुनि, पितर तथा अन्य प्राणी और अपने अनुयायियोंके साथ लोकपालइन सबकी पूजा महाराज युधिष्ठिरने की। इसके बाद वे लोग धर्मराजसे अनुमति लेकर अपने-अपने निवासस्थानको चले गये ॥ २५-२६ ॥ परीक्षित्‌ ! जैसे मनुष्य अमृतपान करते-करते कभी तृप्त नहीं हो सकता, वैसे ही सब लोग भगवद्भक्त राजर्षि युधिष्ठिरके राजसूय महायज्ञकी प्रशंसा करते-करते तृप्त न होते थे ॥ २७ ॥ इसके बाद धर्मराज युधिष्ठिरने बड़े प्रेमसे अपने हितैषी सुहृद्-सम्बन्धियों, भाई-बन्धुओं और भगवान्‌ श्रीकृष्णको भी रोक लिया, क्योंकि उन्हें उनके विछोहकी कल्पनासे ही बड़ा दु:ख होता था ॥ २८ ॥ परीक्षित्‌ ! भगवान्‌ श्रीकृष्णने यदुवंशी वीर साम्ब आदिको द्वारकापुरी भेज दिया और स्वयं राजा युधिष्ठिर की अभिलाषा पूर्ण करने के लिये, उन्हें आनन्द देनेके लिये वहीं रह गये ॥ २९ ॥ इस प्रकार धर्मनन्दन महाराज युधिष्ठिर मनोरथों के महान् समुद्र को, जिसे पार करना अत्यन्त कठिन है, भगवान्‌ श्रीकृष्ण की कृपा से अनायास ही पार कर गये और उनकी सारी चिन्ता मिट गयी ॥ ३० ॥

एक दिनकी बात है, भगवान्‌के परमप्रेमी महाराज युधिष्ठिरके अन्त:पुरकी सौन्दर्य-सम्पत्ति और राजसूय यज्ञद्वारा प्राप्त महत्त्वको देखकर दुर्योधनका मन डाहसे जलने लगा ॥ ३१ ॥ परीक्षित्‌ ! पाण्डवोंके लिये मयदानवने जो महल बना दिये थे, उनमें नरपति, दैत्यपति और सुर- पतियोंकी विविध विभूतियाँ तथा श्रेष्ठ सौन्दर्य स्थान-स्थानपर शोभायमान था। उनके द्वारा राजरानी द्रौपदी अपने पतियोंकी सेवा करती थीं। उस राजभवनमें उन दिनों भगवान्‌ श्रीकृष्णकी सहस्रों रानियाँ निवास करती थीं। नितम्बके भारी भारके कारण जब वे उस राजभवनमें धीरे-धीरे चलने लगती थीं, तब उनके पायजेबोंकी झनकार चारों ओर फैल जाती थी। उनका कटिभाग बहुत ही सुन्दर था तथा उनके वक्ष:स्थलपर लगी हुई केसरकी लालिमासे मोतियोंके सुन्दर श्वेत हार भी लाल-लाल जान पड़ते थे। कुण्डलोंकी और घुँघराली अलकोंकी चञ्चलतासे उनके मुखकी शोभा और भी बढ़ जाती थी। यह सब देखकर दुर्योधनके हृदयमें बड़ी जलन होती। परीक्षित्‌ ! सच पूछो तो दुर्योधनका चित्त द्रौपदीमें आसक्त था और यही उसकी जलन का मुख्य कारण भी था ॥ ३२-३३ ॥

एक दिन राजाधिराज महाराज युधिष्ठिर अपने भाइयों, सम्बन्धियों एवं अपने नयनोंके तारे परम हितैषी भगवान्‌ श्रीकृष्णके साथ मयदानवकी बनायी सभामें स्वर्णसिंहासनपर देवराज इन्द्रके समान विराजमान थे। उनकी भोग-सामग्री, उनकी राज्यलक्ष्मी ब्रह्माजीके ऐश्वर्यके समान थी। वंदीजन उनकी स्तुति कर रहे थे ॥ ३४-३५ ॥ उसी समय अभिमानी दुर्योधन अपने दु:शासन आदि भाइयोंके साथ वहाँ आया। उसके सिरपर मुकुट, गलेमें माला और हाथमें तलवार थी। परीक्षित्‌ ! वह क्रोधवश द्वारपालों और सेवकोंको झिडक़ रहा था ॥ ३६ ॥ उस सभामें मयदानवने ऐसी माया फैला रखी थी कि दुर्योधनने उससे मोहित हो स्थलको जल समझकर अपने वस्त्र समेट लिये और जलको स्थल समझकर वह उसमें गिर पड़ा ॥ ३७ ॥ उसको गिरते देखकर भीमसेन, राजरानियाँ तथा दूसरे नरपति हँसने लगे। यद्यपि युधिष्ठिर उन्हें ऐसा करनेसे रोक रहे थे, परन्तु प्यारे परीक्षित्‌ ! उन्हें इशारेसे श्रीकृष्णका अनुमोदन प्राप्त हो चुका था ॥ ३८ ॥ इससे दुर्योधन लज्जित हो गया, उसका रोम-रोम क्रोधसे जलने लगा। अब वह अपना मुँह लटकाकर चुपचाप सभाभवनसे निकलकर हस्तिनापुर चला गया। इस घटनाको देखकर सत्पुरुषोंमें हाहाकार मच गया और धर्मराज युधिष्ठिरका मन भी कुछ खिन्न-सा हो गया। परीक्षित्‌ ! यह सब होनेपर भी भगवान्‌ श्रीकृष्ण चुप थे। उनकी इच्छा थी कि किसी प्रकार पृथ्वीका भार उतर जाय; और सच पूछो, तो उन्हीं की दृष्टिसे दुर्योधन को वह भ्रम हुआ था ॥ ३९ ॥ परीक्षित्‌ ! तुमने मुझसे यह पूछा था कि उस महान् राजसूय यज्ञमें दुर्योधन को डाह क्यों हुआ ? जलन क्यों हुई ? सो वह सब मैंने तुम्हें बतला दिया ॥ ४० ॥

 

इति श्रीमद्‍भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां

दशमस्कन्धे उत्तरार्धे दुर्योधनमानभंगो नाम पञ्चसप्ततितमोऽध्यायः ॥ ७५ ॥

 

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 



श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— पचहत्तरवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— पचहत्तरवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

 

राजसूय यज्ञकी पूर्ति और दुर्योधनका अपमान

 

श्रीराजोवाच -

अजातशत्रोस्तं दृष्ट्वा राजसूयमहोदयम् ।

 सर्वे मुमुदिरे ब्रह्मन् नृदेवा ये समागताः ॥ १ ॥

 दुर्योधनं वर्जयित्वा राजानः सर्षयः सुराः ।

 इति श्रुतं नो भगवन् तत्र कारणमुच्यताम् ॥ २ ॥

 

 श्रीबादरायणिरुवाच -

पितामहस्य ते यज्ञे राजसूये महात्मनः ।

 बान्धवाः परिचर्यायां तस्यासन् प्रेमबंधनाः ॥ ३ ॥

 भीमो महानसाध्यक्षो धनाध्यक्षः सुयोधनः ।

 सहदेवस्तु पूजायां नकुलो द्रव्यसाधने ॥ ४ ॥

 गुरुशुश्रूषणे जिष्णुः कृष्णः पादावनेजने ।

 परिवेषणे द्रुपदजा कर्णो दाने महामनाः ॥ ५ ॥

 युयुधानो विकर्णश्च हार्दिक्यो विदुरादयः ।

 बाह्लीकपुत्रा भूर्याद्या ये च सन्तर्दनादयः ॥ ६ ॥

 निरूपिता महायज्ञे नानाकर्मसु ते तदा ।

 प्रवर्तन्ते स्म राजेन्द्र राज्ञः प्रियचिकीर्षवः ॥ ७ ॥

ऋत्विक् सदस्यबहुवित्सु सुहृत्तमेषु

     स्विष्टेषु सूनृतसमर्हणदक्षिणाभिः ।

 चैद्ये च सात्वतपतेश्चरणं प्रविष्टे

     चक्रुस्ततस्त्ववभृथ स्नपनं द्युनद्याम् ॥ ८ ॥

मृदङ्‌गशङ्खपणव धुन्धुर्यानकगोमुखाः ।

 वादित्राणि विचित्राणि नेदुरावभृथोत्सवे ॥ ९ ॥

 नर्तक्यो ननृतुर्हृष्टा गायका यूथशो जगुः ।

 वीणावेणुतलोन्नादः तेषां स दिवमस्पृशत् ॥ १० ॥

 चित्रध्वजपताकाग्रैः इभेन्द्रस्यन्दनार्वभिः ।

 स्वलङ्कृतैर्भटैर्भूपा निर्ययू रुक्ममालिनः ॥ ११ ॥

 यदुसृञ्जयकाम्बोज कुरुकेकयकोशलाः ।

 कम्पयन्तो भुवं सैन्यैः यजनपुरःसराः ॥ १२ ॥

 सदस्यर्त्विग्द्‌विजश्रेष्ठा ब्रह्मघोषेण भूयसा ।

 देवर्षिपितृगन्धर्वाः तुष्टुवुः पुष्पवर्षिणः ॥ १३ ॥

 स्वलंकृता नरा नार्यो गन्धस्रग् भूषणाम्बरैः ।

 विलिंपन्त्यो अभिसिंच विजह्रुर्विविधै रसैः ॥ १४ ॥

 तैलगोरसगन्धोद हरिद्रासान्द्रकुंकुमैः ।

 पुम्भिर्लिप्ताः प्रलिंपन्त्यो विजह्रुर्वारयोषितः ॥ १५ ॥

गुप्ता नृभिर्निरगमन्नुपलब्धुमेतद्

     देव्यो यथा दिवि विमानवरैर्नृदेव्यः ।

 ता मातुलेयसखिभिः परिषिच्यमानाः

     सव्रीडहासविकसद् वदना विरेजुः ॥ १६ ॥

 ता देवरानुत सखीन् सिन्सिषिचुर्दृतीभिः

     क्लिन्नाम्बरा विवृतगात्रकुचोरुमध्याः ।

 औत्सुक्यमुक्त कवरा च्च्यवमानमाल्याः

     क्षोभं दधुर्मलधियां रुचिरैर्विहारैः ॥ १७ ॥

स सम्राड् रथमारुढः सदश्वं रुक्ममालिनम् ।

 व्यरोचत स्वपत्‍नीभिः क्रियाभिः क्रतुराडिव ॥ १८ ॥

 पत्‍नीसंयाजावभृथ्यैः चरित्वा ते तमृत्विजः ।

 आचान्तं स्नापयां चक्रुः गंगायां सह कृष्णया ॥ १९ ॥

 देवदुन्दुभयो नेदुः नरदुंदुभिभिः समम् ।

 मुमुचुः पुष्पवर्षाणि देवर्षिपितृमानवाः ॥ २० ॥

 सस्नुस्तत्र ततः सर्वे वर्णाश्रमयुता नराः ।

 महापातक्यपि यतः सद्यो मुच्येत किल्बिषात् ॥ २१ ॥

 अथ राजाहते क्षौमे परिधाय स्वलङ्कृतः ।

 ऋत्विक् सदस्य विप्रादीन् आनर्चाभरणाम्बरैः ॥ २२ ॥

 बन्धूञ्ज्ञातीन् नृपान् मित्र सुहृदोऽन्यांश्च सर्वशः ।

 अभीक्ष्णं पूजयामास नारायणपरो नृपः ॥ २३ ॥

सर्वे जनाः सुररुचो मणिकुण्डलस्रग्

     उष्णीषकञ्चुक दुकूलमहार्घ्यहाराः ।

 नार्यश्च कुण्डलयुगालकवृन्दजुष्ट

     वक्त्रश्रियः कनकमेखलया विरेजुः ॥ २४ ॥

 

राजा परीक्षित्‌ने पूछाभगवन् ! अजातशत्रु धर्मराज युधिष्ठिरके राजसूय यज्ञमहोत्सवको देखकर, जितने मनुष्य, नरपति, ऋषि, मुनि और देवता आदि आये थे, वे सब आनन्दित हुए। परन्तु दुर्योधनको बड़ा दु:ख, बड़ी पीड़ा हुई; यह बात मैंने आपके मुखसे सुनी है। भगवन् ! आप कृपा करके इसका कारण बतलाइये ॥ १-२ ॥

श्रीशुकदेवजी महाराजने कहापरीक्षित्‌ ! तुम्हारे दादा युधिष्ठिर बड़े महात्मा थे। उनके प्रेमबन्धनसे बँधकर सभी बन्धु-बान्धवोंने राजसूय यज्ञमें विभिन्न सेवाकार्य स्वीकार किया था ॥ ३ ॥ भीमसेन भोजनालयकी देख-रेख करते थे। दुर्योधन कोषाध्यक्ष थे। सहदेव अभ्यागतोंके स्वागत-सत्कारमें नियुक्त थे और नकुल विविध प्रकारकी सामग्री एकत्र करनेका काम देखते थे ॥ ४ ॥ अर्जुन गुरुजनोंकी सेवा-शुश्रूषा करते थे और स्वयं भगवान्‌ श्रीकृष्ण आये हुए अतिथियोंके पाँव पखारनेका काम करते थे। देवी द्रौपदी भोजन परसनेका काम करतीं और उदारशिरोमणि कर्ण खुले हाथों दान दिया करते थे ॥ ५ ॥ परीक्षित्‌ ! इसी प्रकार सात्यकि, विकर्ण, हार्दिक्य, विदुर, भूरिश्रवा आदि बाह्लीकके पुत्र और सन्तर्दन आदि राजसूय यज्ञमें विभिन्न कर्मोंमें नियुक्त थे। वे सब-के-सब वैसा ही काम करते थे, जिससे महाराज युधिष्ठिरका प्रिय और हित हो ॥६-७॥

 

परीक्षित्‌ ! जब ऋत्विज्, सदस्य और बहुज्ञ पुरुषोंका तथा अपने इष्ट-मित्र एवं बन्धु-बान्धवोंका सुमधुर वाणी, विविध प्रकारकी पूजा-सामग्री और दक्षिणा आदिसे भलीभाँति सत्कार हो चुका तथा शिशुपाल भक्तवत्सल भगवान्‌के चरणोंमें समा गया, तब धर्मराज युधिष्ठिर गङ्गाजीमें यज्ञान्त- स्नान करने गये ॥ ८ ॥ उस समय जब वे अवभृथ-स्नान करने लगे, तब मृदङ्ग, शङ्ख, ढोल, नौबत, नगारे और नरसिंगे आदि तरह-तरहके बाजे बजने लगे ॥ ९ ॥ नर्तकियाँ आनन्दसे झूम-झूमकर नाचने लगीं। झुंड-के-झुंड गवैये गाने लगे और वीणा, बाँसुरी तथा झाँझ-मँजीरे बजने लगे। इनकी तुमुल ध्वनि सारे आकाशमें गूँज गयी ॥ १० ॥ सोनेके हार पहने हुए यदु, सृञ्जय, कम्बोज, कुरु, केकय और कोसल देशके नरपति रंग-बिरंगी ध्वजा-पताकाओंसे युक्त और खूब सजे-धजे गजराजों, रथों, घोड़ों तथा सुसज्जित वीर सैनिकोंके साथ महाराज युधिष्ठिरको आगे करके पृथ्वीको कँपाते हुए चल रहे थे ॥ ११-१२ ॥ यज्ञके सदस्य ऋत्विज् और बहुत-से श्रेष्ठ ब्राह्मण वेदमन्त्रोंका ऊँचे स्वरसे उच्चारण करते हुए चले। देवता, ऋषि, पितर, गन्धर्व आकाशसे पुष्पोंकी वर्षा करते हुए उनकी स्तुति करने लगे ॥ १३ ॥ इन्द्रप्रस्थके नर-नारी इत्र-फुलेल, पुष्पोंके हार, रंग-बिरंगे वस्त्र और बहुमूल्य आभूषणोंसे सज-धजकर एक-दूसरेपर जल, तेल, दूध, मक्खन आदि रस डालकर भिगो देते, एक-दूसरेके शरीरमें लगा देते और इस प्रकार क्रीडा करते हुए चलने लगे ॥ १४ ॥ वाराङ्गनाएँ पुरुषोंको तेल, गोरस, सुगन्धित जल, हल्दी और गाढ़ी केसर मल देतीं और पुरुष भी उन्हें उन्हीं वस्तुओंसे सराबोर कर देते ॥ १५ ॥

उस समय इस उत्सवको देखनेके लिये जैसे उत्तम-उत्तम विमानोंपर चढक़र आकाशमें बहुत- सी देवियाँ आयी थीं, वैसे ही सैनिकोंके द्वारा सुरक्षित इन्द्रप्रस्थकी बहुत-सी राजमहिलाएँ भी सुन्दर- सुन्दर पालकियोंपर सवार होकर आयी थीं। पाण्डवोंके ममेरे भाई श्रीकृष्ण और उनके सखा उन रानियोंके ऊपर तरह-तरहके रंग आदि डाल रहे थे। इससे रानियोंके मुख लजीली मुसकराहटसे खिल उठते थे और उनकी बड़ी शोभा होती थी ॥ १६ ॥ उन लोगोंके रंग आदि डालनेसे रानियोंके वस्त्र भीग गये थे। इससे उनके शरीरके अङ्ग-प्रत्यङ्गवक्ष:स्थल, जंघा और कटिभाग कुछ-कुछ दीख-से रहे थे। वे भी पिचकारी और पात्रोंमें रंग भर-भरकर अपने देवरों और उनके सखाओंपर उड़ेल रही थीं। प्रेमभरी उत्सुकताके कारण उनकी चोटियों और जूड़ोंके बन्धन ढीले पड़ गये थे तथा उनमें गुँथे हुए फूल गिरते जा रहे थे। परीक्षित्‌ ! उनका यह रुचिर और पवित्र विहार देखकर मलिन अन्त:करणवाले पुरुषोंका चित्त चञ्चल हो उठता था, काम-मोहित हो जाता था ॥ १७ ॥ चक्रवर्ती राजा युधिष्ठिर द्रौपदी आदि रानियोंके साथ सुन्दर घोड़ोंसे युक्त एवं सोनेके हारोंसे सुसज्जित रथपर सवार होकर ऐसे शोभायमान हो रहे थे, मानो स्वयं राजसूय यज्ञ प्रयाज आदि क्रियाओंके साथ मूर्तिमान् होकर प्रकट हो गया हो ॥ १८ ॥ ऋत्विजोंने पत्नी-संयाज (एक प्रकारका यज्ञकर्म) तथा यज्ञान्त-स्नानसम्बन्धी कर्म करवाकर द्रौपदीके साथ सम्राट् युधिष्ठिरको आचमन करवाया और इसके बाद गङ्गास्नान ॥ १९ ॥ उस समय मनुष्योंकी दुन्दुभियोंके साथ ही देवताओंकी दुन्दुभियाँ भी बजने लगीं। बड़े-बड़े देवता, ऋषि-मुनि, पितर और मनुष्य पुष्पोंकी वर्षा करने लगे ॥ २० ॥ महाराज युधिष्ठिरके स्नान कर लेनेके बाद सभी वर्णों एवं आश्रमोंके लोगोंने गङ्गाजीमें स्नान किया; क्योंकि इस स्नानसे बड़े-से-बड़ा महापापी भी अपनी पाप-राशिसे तत्काल मुक्त हो जाता है ॥ २१ ॥ तदनन्तर धर्मराज युधिष्ठिरने नयी रेशमी धोती और दुपट्टा धारण किया तथा विविध प्रकारके आभूषणोंसे अपनेको सजा लिया। फिर ऋत्विज्, सदस्य, ब्राह्मण आदिको वस्त्राभूषण दे-देकर उनकी पूजा की ॥ २२ ॥ महाराज युधिष्ठिर भगवत्परायण थे, उन्हें सबमें भगवान्‌के ही दर्शन होते। इसलिये वे भाई-बन्धु, कुटुम्बी, नरपति, इष्ट-मित्र, हितैषी और सभी लोगोंकी बार-बार पूजा करते ॥ २३ ॥ उस समय सभी लोग जड़ाऊ कुण्डल, पुष्पोंके हार, पगड़ी, लंबी अँगरखी, दुपट्टा तथा मणियोंके बहुमूल्य हार पहनकर देवताओंके समान शोभायमान हो रहे थे। स्त्रियोंके मुखोंकी भी दोनों कानोंके कर्णफूल और घुँघराली अलकोंसे बड़ी शोभा हो रही थी तथा उनके कटिभागमें सोनेकी करधनियाँ तो बहुत ही भली मालूम हो रही थीं ॥ २४ ॥

 

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 

 



रविवार, 27 सितंबर 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— चौहत्तरवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— चौहत्तरवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

 

भगवान्‌ की अग्रपूजा और शिशुपालका उद्धार

 

विविधानीह कर्माणि जनयन् यदवेक्षया ।

 ईहते यदयं सर्वः श्रेयो धर्मादिलक्षणम् ॥ २२ ॥

 तस्मात् कृष्णाय महते दीयतां परमार्हणम् ।

 एवं चेत्सर्वभूतानां आत्मनश्चार्हणं भवेत् ॥ २३ ॥

 सर्वभूतात्मभूताय कृष्णायानन्यदर्शिने ।

 देयं शान्ताय पूर्णाय दत्तस्यानन्त्यमिच्छता ॥ २४ ॥

 इत्युक्त्वा सहदेवोऽभूत् तूष्णीं कृष्णानुभाववित् ।

 तच्छ्रुत्वा तुष्टुवुः सर्वे साधु साध्विति सत्तमाः ॥ २५ ॥

 श्रुत्वा द्‌विजेरितं राजा ज्ञात्वा हार्दं सभासदाम् ।

 समर्हयद्‌धृषीकेशं प्रीतः प्रणयविह्वलः ॥ २६ ॥

 तत्पादाववनिज्यापः शिरसा लोकपावनीः ।

 सभार्यः सानुजामात्यः सकुटुम्बो वहन्मुदा ॥ २७ ॥

 वासोभिः पीतकौषेयैः भूषणैश्च महाधनैः ।

 अर्हयित्वाश्रुपूर्णाक्षो नाशकत् समवेक्षितुम् ॥ २८ ॥

 इत्थं सभाजितं वीक्ष्य सर्वे प्राञ्जलयो जनाः ।

 नमो जयेति नेमुस्तं निपेतुः पुष्पवृष्टयः ॥ २९ ॥

इत्थं निशम्य दमघोषसुतः स्वपीठाद्

     उत्थाय कृष्णगुणवर्णनजातमन्युः ।

 उत्क्षिप्य बाहुमिदमाह सदस्यमर्षी

     संश्रावयन् भगवते परुषाण्यभीतः ॥ ३० ॥

ईशो दुरत्ययः काल इति सत्यवती स्रुतिः ।

 वृद्धानामपि यद् बुद्धिः बालवाक्यैर्विभिद्यते ॥ ३१ ॥

 यूयं पात्रविदां श्रेष्ठा मा मन्ध्वं बालभाषीतम् ।

 सदसस्पतयः सर्वे कृष्णो यत् सम्मतोऽर्हणे ॥ ३२ ॥

 तपोविद्याव्रतधरान् ज्ञानविध्वस्तकल्मषान् ।

 परमऋषीन् ब्रह्मनिष्ठान् लोकपालैश्च पूजितान् ॥ ३३ ॥

 सदस्पतीन् अतिक्रम्य गोपालः कुलपांसनः ।

 यथा काकः पुरोडाशं सपर्यां कथमर्हति ॥ ३४ ॥

 वर्णाश्रमकुलापेतः सर्वधर्मबहिष्कृतः ।

 स्वैरवर्ती गुणैर्हीनः सपर्यां कथमर्हति ॥ ३५ ॥

 ययातिनैषां हि कुलं शप्तं सद्‌भिर्बहिष्कृतम् ।

 वृथापानरतं शश्वत् सपर्यां कथमर्हति ॥ ३६ ॥

 ब्रह्मर्षिसेवितान् देशान् हित्वैतेऽब्रह्मवर्चसम् ।

 समुद्रं दुर्गमाश्रित्य बाधन्ते दस्यवः प्रजाः ॥ ३७ ॥

 एवं आदीन्यभद्राणि बभाषे नष्टमङ्‌गलः ।

 नोवाच किञ्चिद् भगवान् यथा सिंहः शिवारुतम् ॥ ३८ ॥

 भगवन् निन्दनं श्रुत्वा दुःसहं तत्सभासदः ।

 कर्णौ पिधाय निर्जग्मुः शपन्तश्चेदिपं रुषा ॥ ३९ ॥

 निन्दां भगवतः श्रृण्वन् तत्परस्य जनस्य वा ।

 ततो नापैति यः सोऽपि यात्यधः सुकृताच्च्युतः ॥ ४० ॥

 ततः पाण्डुसुताः क्रुद्धा मत्स्यकैकयसृञ्जयाः ।

 उदायुधाः समुत्तस्थुः शिशुपालजिघांसवः ॥ ४१ ॥

 ततश्चैद्यस्त्वसंभ्रान्तो जगृहे खड्गचर्मणी ।

 भर्त्सयन् कृष्णपक्षीयान् राज्ञः सदसि भारत ॥ ४२ ॥

 तावदुत्थाय भगवान् स्वान् निवार्य स्वयं रुषा ।

 शिरः क्षुरान्तचक्रेण जहार पततो रिपोः ॥ ४३ ॥

 शब्दः कोलाहलोऽथासीन् शिशुपाले हते महान् ।

 तस्यानुयायिनो भूपा दुद्रुवुर्जीवितैषिणः ॥ ४४ ॥

 चैद्यदेहोत्थितं ज्योतिः वासुदेवमुपाविशत् ।

 पश्यतां सर्वभूतानां उल्केव भुवि खाच्च्युता ॥ ४५ ॥

 जन्मत्रयानुगुणित वैरसंरब्धया धिया ।

 ध्यायन् तन्मयतां यातो भावो हि भवकारणम् ॥ ४६ ॥

 ऋत्विग्भ्यः ससदस्येभ्यो दक्षिनां विपुलामदात् ।

 सर्वान् संपूज्य विधिवत् चक्रेऽवभृथमेकराट् ॥ ४७ ॥

 साधयित्वा क्रतुः राज्ञः कृष्णो योगेश्वरेश्वरः ।

 उवास कतिचिन् मासान् सुहृद्‌भिः अभियाचितः ॥ ४८ ॥

 ततोऽनुज्ञाप्य राजानं अनिच्छन्तमपीश्वरः ।

 ययौ सभार्यः सामात्यः स्वपुरं देवकीसुतः ॥ ४९ ॥

 वर्णितं तदुपाख्यानं मया ते बहुविस्तरम् ।

 वैकुण्ठवासिनोर्जन्म विप्रशापात् पुनः पुनः ॥ ५० ॥

 राजसूयावभृथ्येन स्नातो राजा युधिष्ठिरः ।

 ब्रह्मक्षत्रसभामध्ये शुशुभे सुरराडिव ॥ ५१ ॥

 राज्ञा सभाजिताः सर्वे सुरमानवखेचराः ।

 कृष्णं क्रतुं च शंसन्तः स्वधामानि ययुर्मुदा ॥ ५२ ॥

 दुर्योधनमृते पापं कलिं कुरुकुलामयम् ।

 यो न सेहे श्रीयं स्फीतां दृष्ट्वा पाण्डुसुतस्य ताम् ॥ ५३ ॥

 य इदं कीर्तयेद् विष्णोः कर्म चैद्य वधादिकम् ।

 राजमोक्षं वितानं च सर्वपापैः प्रमुच्यते ॥ ५४ ॥

 

सारा जगत् श्रीकृष्णके ही अनुग्रहसे अनेकों प्रकारके कर्मका अनुष्ठान करता हुआ धर्म, अर्थ, काम और मोक्षरूप पुरुषार्थोंका सम्पादन करता है ॥ २२ ॥ इसलिये सबसे महान् भगवान्‌ श्रीकृष्णकी ही अग्रपूजा होनी चाहिये। इनकी पूजा करनेसे समस्त प्राणियोंकी तथा अपनी भी पूजा हो जाती है ॥ २३ ॥ जो अपने दान-धर्मको अनन्त भावसे युक्त करना चाहता हो, उसे चाहिये कि समस्त प्राणियों और पदार्थोंके अन्तरात्मा, भेदभावरहित, परम शान्त और परिपूर्ण भगवान्‌ श्रीकृष्णको ही दान करे ॥ २४ ॥ परीक्षित्‌ ! सहदेव भगवान्‌ की महिमा और उनके प्रभावको जानते थे। इतना कहकर वे चुप हो गये। उस सयम धर्मराज युधिष्ठिरकी यज्ञसभामें जितने सत्पुरुष उपस्थित थे, सबने एक स्वरसे बहुत ठीक, बहुत ठीककहकर सहदेवकी बातका समर्थन किया ॥ २५ ॥ धर्मराज युधिष्ठिरने ब्राह्मणोंकी यह आज्ञा सुनकर तथा सभासदोंका अभिप्राय जानकर बड़े आनन्दसे प्रमोद्रेकसे विह्वल होकर भगवान्‌ श्रीकृष्णकी पूजा की ॥ २६ ॥ अपनी पत्नी, भाई, मन्त्री और कुटुम्बियोंके साथ धर्मराज युधिष्ठिरने बड़े प्रेम और आनन्दसे भगवान्‌के पाँव पखारे तथा उनके चरणकमलोंका लोकपावन जल अपने सिरपर धारण किया ॥ २७ ॥ उन्होंने भगवान्‌को पीले-पीले रेशमी वस्त्र और बहुमूल्य आभूषण समर्पित किये। उस समय उनके नेत्र प्रेम और आनन्दके आँसुओंसे इस प्रकार भर गये कि वे भगवान्‌को भलीभाँति देख भी नहीं सकते थे ॥ २८ ॥ यज्ञसभामें उपस्थित सभी लोग भगवान्‌ श्रीकृष्णको इस प्रकार पूजित, सत्कृत देखकर हाथ जोड़े हुए नमो नम: ! जय-जय !इस प्रकारके नारे लगाकर उन्हें नमस्कार करने लगे। उस समय आकाशसे स्वयं ही पुष्पोंकी वर्षा होने लगी ॥ २९ ॥

परीक्षित्‌ ! अपने आसनपर बैठा हुआ शिशुपाल यह सब देख-सुन रहा था। भगवान्‌ श्रीकृष्णके गुण सुनकर उसे क्रोध हो आया और वह उठकर खड़ा हो गया। वह भरी सभामें हाथ उठाकर बड़ी असहिष्णुता किन्तु निर्भयताके साथ भगवान्‌को सुना-सुनाकर अत्यन्त कठोर बातें कहने लगा॥ ३० ॥ सभासदो ! श्रुतियोंका यह कहना सर्वथा सत्य है कि काल ही ईश्वर है। लाख चेष्टा करनेपर भी वह अपना काम करा ही लेता हैइसका प्रत्यक्ष प्रमाण हमने देख लिया कि यहाँ बच्चों और मूर्खोंकी बातसे बड़े-बड़े वयोवृद्ध और ज्ञानवृद्धोंकी बुद्धि भी चकरा गयी है ॥ ३१ ॥ पर मैं मानता हूँ कि आपलोग अग्रपूजाके योग्य पात्रका निर्णय करनेमें सर्वथा समर्थ हैं। इसलिये सदसस्पतियो ! आपलोग बालक सहदेवकी यह बात ठीक न मानें कि कृष्ण ही अग्रपूजाके योग्य हैं॥ ३२ ॥ यहाँ बड़े-बड़े तपस्वी, विद्वान्, व्रतधारी, ज्ञानके द्वारा अपने समस्त पाप-तापोंको शान्त करनेवाले, परम ज्ञानी परमर्षि, ब्रह्मनिष्ठ आदि उपस्थित हैंजिनकी पूजा बड़े- बड़े लोकपाल भी करते हैं ॥ ३३ ॥ यज्ञकी भूल-चूक बतलानेवाले उन सदसस्पतियोंको छोडक़र यह कुलकलङ्क ग्वाला भला, अग्रपूजाका अधिकारी कैसे हो सकता है ? क्या कौआ कभी यज्ञके पुरोडाशका अधिकारी हो सकता है ? ॥ ३४ ॥ न इसका कोई वर्ण है और न तो आश्रम। कुल भी इसका ऊँचा नहीं है। सारे धर्मोंसे यह बाहर है। वेद और लोकमर्यादाओंका उल्लङ्घन करके मनमाना आचरण करता है। इसमें कोई गुण भी नहीं है। ऐसी स्थितिमें यह अग्रपूजा का पात्र कैसे हो सकता है ? ॥ ३५ ॥ आपलोग जानते हैं कि राजा ययातिने इसके वंशको शाप दे रखा है। इसलिये सत्पुरुषोंने इस वंशका ही बहिष्कार कर दिया है। ये सब सर्वदा व्यर्थ मधुपानमें आसक्त रहते हैं। फिर ये अग्रपूजाके योग्य कैसे हो सकते हैं ? ॥ ३६ ॥ इन सबने ब्रहमर्षियोंके द्वारा सेवित मथुरा आदि देशोंका परित्याग कर दिया और ब्रह्मवर्चस् के विरोधी (वेदचर्चारहित) समुद्रमें किला बनाकर रहने लगे। वहाँसे जब ये बाहर निकलते हैं, तो डाकुओंकी तरह सारी प्रजाको सताते हैं॥ ३७ ॥ परीक्षित्‌ ! सच पूछो तो शिशुपालका सारा शुभ नष्ट हो चुका था। इसीसे उसने और भी बहुत-सी कड़ी-कड़ी बातें भगवान्‌ श्रीकृष्णको सुनायीं। परन्तु जैसे सिंह कभी सियारकी हुआँ- हुआँपर ध्यान नहीं देता, वैसे ही भगवान्‌ श्रीकृष्ण चुप रहे, उन्होंने उसकी बातोंका कुछ भी उत्तर न दिया ॥ ३८ ॥ परन्तु सभासदोंके लिये भगवान्‌की निन्दा सुनना असह्य था। उनमेंसे कई अपने- अपने कान बंद करके क्रोधसे शिशुपालको गाली देते हुए बाहर चले गये ॥ ३९ ॥ परीक्षित्‌ ! जो भगवान्‌ की या भगवत्परायण भक्तोंकी निन्दा सुनकर वहाँसे हट नहीं जाता, वह अपने शुभकर्मोंसे च्युत हो जाता है और उसकी अधोगति होती है ॥ ४० ॥

परीक्षित्‌ ! अब शिशुपालको मार डालनेके लिये पाण्डव, मत्स्य, केकय और सृञ्जयवंशी नरपति क्रोधित होकर हाथोंमें हथियार ले उठ खड़े हुए ॥ ४१ ॥ परन्तु शिशुपालको इससे कोई घबड़ाहट न हुई। उसने बिना किसी प्रकारका आगा-पीछा सोचे अपनी ढाल-तलवार उठा ली और वह भरी सभामें श्रीकृष्णके पक्षपाती राजाओंको ललकारने लगा ॥ ४२ ॥ उन लोगोंको लड़ते- झगड़ते देख भगवान्‌ श्रीकृष्ण उठ खड़े हुए। उन्होंने अपने पक्षपाती राजाओंको शान्त किया और स्वयं क्रोध करके अपने ऊपर झपटते हुए शिशुपालका सिर छुरेके समान तीखी धारवाले चक्रसे काट लिया ॥ ४३ ॥ शिशुपालके मारे जानेपर वहाँ बड़ा कोलाहल मच गया। उसके अनुयायी नरपति अपने-अपने प्राण बचानेके लिये वहाँसे भाग खड़े हुए ॥ ४४ ॥ जैसे आकाशसे गिरा हुआ लूक धरतीमें समा जाता है, वैसे ही सब प्राणियोंके देखते-देखते शिशुपालके शरीरसे एक ज्योति निकलकर भगवान्‌ श्रीकृष्णमें समा गयी ॥ ४५ ॥ परीक्षित्‌ ! शिशुपालके अन्त:करणमें लगातार तीन जन्मसे वैरभावकी अभिवृद्धि हो रही थी। और इस प्रकार, वैरभावसे ही सही, ध्यान करते- करते वह तन्मय हो गयापार्षद हो गया। सच हैमृत्युके बाद होनेवाली गतिमें भाव ही कारण है ॥ ४६ ॥ शिशुपालकी सद्गति होनेके बाद चक्रवर्ती धर्मराज युधिष्ठिरने सदस्यों और ऋत्विजोंको पुष्कल दक्षिणा दी तथा सबका सत्कार करके विधिपूर्वक यज्ञान्त-स्नानअवभृथ-स्नान किया ॥ ४७ ॥

परीक्षित्‌ ! इस प्रकार योगेश्वरेश्वर भगवान्‌ श्रीकृष्णने धर्मराज युधिष्ठिरका राजसूय यज्ञ पूर्ण किया और अपने सगे-सम्बन्धी और सुहृदोंकी प्रार्थनासे कुछ महीनोंतक वहीं रहे ॥ ४८ ॥ इसके बाद राजा युधिष्ठिरकी इच्छा न होनेपर भी सर्वशक्तिमान् भगवान्‌ श्रीकृष्णने उनसे अनुमति ले ली और अपनी रानियों तथा मन्त्रियोंके साथ इन्द्रप्रस्थसे द्वारकापुरीकी यात्रा की ॥ ४९ ॥ परीक्षित्‌ ! मैं यह उपाख्यान तुम्हें बहुत विस्तारसे (सातवें स्कन्धमें) सुना चुका हूँ कि वैकुण्ठवासी जय और विजयको सनकादि ऋषियोंके शापसे बार-बार जन्म लेना पड़ा था ॥ ५० ॥ महाराज युधिष्ठिर राजसूयका यज्ञान्त-स्नान करके ब्राह्मण और क्षत्रियोंकी सभामें देवराज इन्द्रके समान शोभायमान होने लगे ॥ ५१ ॥ राजा युधिष्ठिरने देवता, मनुष्य और आकाशचारियोंका यथायोग्य सत्कार किया तथा वे भगवान्‌ श्रीकृष्ण एवं राजसूय यज्ञकी प्रशंसा करते हुए बड़े आनन्दसे अपने-अपने लोकको चले गये ॥ ५२ ॥ परीक्षित्‌ ! सब तो सुखी हुए, परन्तु दुर्योधनसे पाण्डवोंकी यह उज्ज्वल राज्यलक्ष्मीका उत्कर्ष सहन न हुआ। क्योंकि वह स्वभावसे ही पापी, कलहप्रेमी और कुरुकुलका नाश करनेके लिये एक महान् रोग था ॥ ५३ ॥

परीक्षित्‌ ! जो पुरुष भगवान्‌ श्रीकृष्णकी इस लीलाकाशिशुपालवध, जरासन्धवध, बंदी राजाओंकी मुक्ति और यज्ञानुष्ठानका कीर्तन करेगा, वह समस्त पापोंसे छूट जायगा ॥ ५४ ॥

 

इति श्रीमद्‍भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां

दशमस्कन्धे उत्तरार्धे शिशुपालवधो नाम चतुःसप्ततितमोऽध्यायः ॥ ७४ ॥

 

 हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 

 



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