॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— पचहत्तरवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)
राजसूय यज्ञकी
पूर्ति और दुर्योधनका अपमान
अथ ऋत्विजो महाशीलाः सदस्या
ब्रह्मवादिनः ।
ब्रह्मक्षत्रियविट्शुद्रा राजानो ये समागताः ॥
२५ ॥
देवर्षिपितृभूतानि लोकपालाः सहानुगाः ।
पूजितास्तं अनुज्ञाप्य स्वधामानि ययुर्नृप ॥ २६
॥
हरिदासस्य राजर्षे राजसूयमहोदयम् ।
नैवातृप्यन् प्रशंसन्तः पिबन् मर्त्योऽमृतं यथा
॥ २७ ॥
ततो युधिष्ठिरो राजा सुहृत् संबंन्धि बान्धवान्
।
प्रेम्णा
निवारयामास कृष्णं च त्यागकातरः ॥ २८ ॥
भगवानपि तत्राङ्ग
न्यवात्सीत् तत्प्रियंकरः ।
प्रस्थाप्य
यदुवीरांश्च साम्बादींश्च कुशस्थलीम् ॥ २९ ॥
इत्थं राजा
धर्मसुतो मनोरथमहार्णवम् ।
सुदुस्तरं
समुत्तीर्य कृष्णेनासीद् गतज्वरः ॥ ३० ॥
एकदान्तःपुरे तस्य
वीक्ष्य दुर्योधनः श्रियम् ।
अतप्यद् राजसूयस्य
महित्वं चाच्युतात्मनः ॥ ३१ ॥
यस्मिन् नरेन्द्रदितिजेन्द्र सुरेन्द्रलक्ष्मीः
नाना विभान्ति
किल विश्वसृजोपकॢप्ताः ।
ताभिः
पतीन्द्रुपदराजसुतोपतस्थे
यस्यां
विषक्तहृदयः कुरुराडतप्यत् ॥ ३२ ॥
यस्मिन् तदा
मधुपतेर्महिषीसहस्रं
श्रोणीभरेण
शनकैः क्वणदङ्घ्रिशोभम् ।
मध्ये सुचारु
कुचकुङ्कुमशोणहारं
श्रीमन्मुखं
प्रचलकुण्डलकुन्तलाढ्यम् ॥ ३३ ॥
सभायां मयकॢप्तायां क्वापि धर्मसुतोऽधिराट् ।
वृतोऽनुगैर्बन्धुभिश्च कृष्णेनापि स्वचक्षुषा ॥
३४ ॥
आसीनः काञ्चने
साक्षात् आसने मघवानिव ।
पारमेष्ठ्यश्रीया
जुष्टः स्तूयमानश्च वन्दिभिः ॥ ३५ ॥
तत्र दुर्योधनो
मानी परीतो भ्रातृभिर्नृप ।
किरीटमाली न्यविशद्
असिहस्तः क्षिपन् रुषा ॥ ३६ ॥
स्थलेऽभ्यगृह्णाद्
वस्त्रान्तं जलं मत्वा स्थलेऽपतत् ।
जले च स्थलवद्
भ्रान्त्या मयमायाविमोहितः ॥ ३७ ॥
जहास भीमस्तं
दृष्ट्वा स्त्रियो नृपतयोऽपरे ।
निवार्यमाणा अप्यङ्ग
राज्ञा कृष्णानुमोदिताः ॥ ३८ ॥
स व्रीडितोऽवाग्वदनो रुषा ज्वलन्
निष्क्रम्य
तूष्णीं प्रययौ गजाह्वयम् ।
हाहेति शब्दः
सुमहानभूत् सतां
अजातशत्रुर्विमना इवाभवत् ।
बभूव तूष्णीं
भगवान्भुवो भरं
समुज्जिहीर्षुर्भ्रमति
स्म यद् दृशा ॥ ३९ ॥
एतत्तेऽभिहितं राजन् यत्पृष्टोऽहमिह त्वया ।
सुयोधनस्य
दौरात्म्यं राजसूये महाक्रतौ ॥ ४० ॥
परीक्षित् !
राजसूय यज्ञमें जितने लोग आये थे—परम शीलवान् ऋत्विज्, ब्रह्मवादी सदस्य, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य,
शूद्र, राजा, देवता,
ऋषि, मुनि, पितर तथा
अन्य प्राणी और अपने अनुयायियोंके साथ लोकपाल—इन सबकी पूजा
महाराज युधिष्ठिरने की। इसके बाद वे लोग धर्मराजसे अनुमति लेकर अपने-अपने
निवासस्थानको चले गये ॥ २५-२६ ॥ परीक्षित् ! जैसे मनुष्य अमृतपान करते-करते कभी
तृप्त नहीं हो सकता, वैसे ही सब लोग भगवद्भक्त राजर्षि
युधिष्ठिरके राजसूय महायज्ञकी प्रशंसा करते-करते तृप्त न होते थे ॥ २७ ॥ इसके बाद
धर्मराज युधिष्ठिरने बड़े प्रेमसे अपने हितैषी सुहृद्-सम्बन्धियों, भाई-बन्धुओं और भगवान् श्रीकृष्णको भी रोक लिया, क्योंकि
उन्हें उनके विछोहकी कल्पनासे ही बड़ा दु:ख होता था ॥ २८ ॥ परीक्षित् ! भगवान्
श्रीकृष्णने यदुवंशी वीर साम्ब आदिको द्वारकापुरी भेज दिया और स्वयं राजा
युधिष्ठिर की अभिलाषा पूर्ण करने के लिये, उन्हें आनन्द
देनेके लिये वहीं रह गये ॥ २९ ॥ इस प्रकार धर्मनन्दन महाराज युधिष्ठिर मनोरथों के
महान् समुद्र को, जिसे पार करना अत्यन्त कठिन है, भगवान् श्रीकृष्ण की कृपा से अनायास ही पार कर गये और उनकी सारी चिन्ता
मिट गयी ॥ ३० ॥
एक दिनकी बात
है, भगवान्के परमप्रेमी महाराज
युधिष्ठिरके अन्त:पुरकी सौन्दर्य-सम्पत्ति और राजसूय यज्ञद्वारा प्राप्त महत्त्वको
देखकर दुर्योधनका मन डाहसे जलने लगा ॥ ३१ ॥ परीक्षित् ! पाण्डवोंके लिये मयदानवने
जो महल बना दिये थे, उनमें नरपति, दैत्यपति
और सुर- पतियोंकी विविध विभूतियाँ तथा श्रेष्ठ सौन्दर्य स्थान-स्थानपर शोभायमान
था। उनके द्वारा राजरानी द्रौपदी अपने पतियोंकी सेवा करती थीं। उस राजभवनमें उन
दिनों भगवान् श्रीकृष्णकी सहस्रों रानियाँ निवास करती थीं। नितम्बके भारी भारके
कारण जब वे उस राजभवनमें धीरे-धीरे चलने लगती थीं, तब उनके
पायजेबोंकी झनकार चारों ओर फैल जाती थी। उनका कटिभाग बहुत ही सुन्दर था तथा उनके
वक्ष:स्थलपर लगी हुई केसरकी लालिमासे मोतियोंके सुन्दर श्वेत हार भी लाल-लाल जान
पड़ते थे। कुण्डलोंकी और घुँघराली अलकोंकी चञ्चलतासे उनके मुखकी शोभा और भी बढ़
जाती थी। यह सब देखकर दुर्योधनके हृदयमें बड़ी जलन होती। परीक्षित् ! सच पूछो तो
दुर्योधनका चित्त द्रौपदीमें आसक्त था और यही उसकी जलन का मुख्य कारण भी था ॥
३२-३३ ॥
एक दिन
राजाधिराज महाराज युधिष्ठिर अपने भाइयों,
सम्बन्धियों एवं अपने नयनोंके तारे परम हितैषी भगवान् श्रीकृष्णके
साथ मयदानवकी बनायी सभामें स्वर्णसिंहासनपर देवराज इन्द्रके समान विराजमान थे।
उनकी भोग-सामग्री, उनकी राज्यलक्ष्मी ब्रह्माजीके ऐश्वर्यके
समान थी। वंदीजन उनकी स्तुति कर रहे थे ॥ ३४-३५ ॥ उसी समय अभिमानी दुर्योधन अपने
दु:शासन आदि भाइयोंके साथ वहाँ आया। उसके सिरपर मुकुट, गलेमें
माला और हाथमें तलवार थी। परीक्षित् ! वह क्रोधवश द्वारपालों और सेवकोंको झिडक़
रहा था ॥ ३६ ॥ उस सभामें मयदानवने ऐसी माया फैला रखी थी कि दुर्योधनने उससे मोहित
हो स्थलको जल समझकर अपने वस्त्र समेट लिये और जलको स्थल समझकर वह उसमें गिर पड़ा ॥
३७ ॥ उसको गिरते देखकर भीमसेन, राजरानियाँ तथा दूसरे नरपति
हँसने लगे। यद्यपि युधिष्ठिर उन्हें ऐसा करनेसे रोक रहे थे, परन्तु
प्यारे परीक्षित् ! उन्हें इशारेसे श्रीकृष्णका अनुमोदन प्राप्त हो चुका था ॥ ३८
॥ इससे दुर्योधन लज्जित हो गया, उसका रोम-रोम क्रोधसे जलने
लगा। अब वह अपना मुँह लटकाकर चुपचाप सभाभवनसे निकलकर हस्तिनापुर चला गया। इस
घटनाको देखकर सत्पुरुषोंमें हाहाकार मच गया और धर्मराज युधिष्ठिरका मन भी कुछ
खिन्न-सा हो गया। परीक्षित् ! यह सब होनेपर भी भगवान् श्रीकृष्ण चुप थे। उनकी
इच्छा थी कि किसी प्रकार पृथ्वीका भार उतर जाय; और सच पूछो,
तो उन्हीं की दृष्टिसे दुर्योधन को वह भ्रम हुआ था ॥ ३९ ॥ परीक्षित्
! तुमने मुझसे यह पूछा था कि उस महान् राजसूय यज्ञमें दुर्योधन को डाह क्यों हुआ ?
जलन क्यों हुई ? सो वह सब मैंने तुम्हें बतला
दिया ॥ ४० ॥
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
दशमस्कन्धे उत्तरार्धे दुर्योधनमानभंगो नाम
पञ्चसप्ततितमोऽध्यायः ॥ ७५ ॥
हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥
शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर
द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण
(विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535
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