मंगलवार, 18 मई 2021

श्रीमद्भागवतमहापुराण-- श्रीमद्भागवतमाहात्म्यम्- दूसरा अध्याय


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

श्रीमद्भागवतमाहात्म्यम्- दूसरा अध्याय

 

यमुना और श्रीकृष्णपत्नियों का संवाद,

कीर्तनोत्सव में उद्धवजी का प्रकट होना

 

ऋषयः ऊचुः -

शाण्डिल्ये तौ समादिश्य परावृत्ती स्वमाश्रमम् ।

 किं कथं चक्रतुस्तौ तु राजानौ सूत तद् वद ॥ १ ॥

 

 सूत उवाच -

 ततस्तु विष्णुरातेन श्रेणीमुख्याः सहस्रशः ।

 इन्द्रप्रस्थान् समानाय्य मथुरास्थानमापिताः ॥ २ ॥

 माथुरान् ब्राह्मणान् तत्र वानरांश्च पुरातनान् ।

 विज्ञाय माननीयत्वं तेषु स्थापैतवान् स्वराट् ॥ ३ ॥

 वज्रस्तु तत्सहायेन शाण्डिल्यस्याप्यनुग्रहात् ।

 गोविन्दगोपगोपीनां लीलास्थानान्यनुक्रमात् ॥ ४ ॥

 विज्ञायाभिधयाऽऽस्थाप्य ग्रामानावासयद् बहून् ।

 कुण्डकूपादिपूर्तेन शिवादिस्थापनेन च ॥ ५ ॥

 गोविन्दहरिदेवादि स्वरूपारोपणेन च ।

 कृष्णाइकभक्तिं स्वे राज्ये ततान च मुमोद ह ॥ ६ ॥

 प्रजास्तु मुदितास्तस्य कृष्णकीर्तनतत्पराः ।

 परमानन्दसम्पन्ना राज्यं तस्यैव तुष्टुवुः ॥ ७ ॥

 एकदा कृष्णपत्‍न्यस्तु श्रीकृष्णविरहातुराः ।

 कालिन्दीं मुदितां वीक्ष्य तत्तासां करुणापरमानसा ॥ १० ॥

 

 कालिन्दी उवाच -

आत्मारामस्य कृष्णस्य ध्रुवमात्मास्ति राधिका ।

 तस्या दास्यप्रभावेण विरहोऽस्मान् न संस्पृशेत् ॥ ११ ॥

 तस्या एवांशविस्ताराः सर्वाः श्रीकृष्णनायिकाः ।

 नित्यसम्भोग एवास्ति तस्याः साम्मुख्ययोगतः ॥ १२ ॥

 स एव सा स सैवास्ति वंशी तत्प्रेमरूपिका ।

 श्रीकृष्णनखचन्द्रालि सङ्‌घाच्चन्द्रावली स्मृता ॥ १३ ॥

 रूपान्तरमगृह्णाना तयोः सेवातिलालसा ।

 रुक्मिण्यादिसमावेशो मयात्रैव विलोकितः ॥ १४ ॥

 युष्माकमपि कृष्णेन विरहो नैव सर्वतः ।

 किन्तु एवं न जानीथ तस्माद् व्याकुलतामिताः ॥ १५ ॥

 एवमेवात्र गोपीनां अक्रूरावसरे पुरा ।

 विरहाभास एवासीद् उद्धवेन समाहितः ॥ १६ ॥

 तेनैव भवतीनां चेद् भवेदत्र समागमः ।

 तर्हि नित्यं स्वकान्तेन विहारमपि पल्स्यथ ॥ १७ ॥

 

 सूत उवाच -

 एवमुक्तास्तु ताः पत्‍न्यः प्रसन्नां पुनरब्रुवन् ।

 उद्धवालोकनेनात्म प्रेष्ठसङ्‌गमलालसाः ॥ १८ ॥

 

 श्रीकृष्णपत्‍न्य ऊचुः -

 धन्यासि सखि कान्तेन यस्या नैवास्ति विच्युतिः ।

 यतस्ते स्वार्थसंसिद्धिः तस्या दास्यो बभूविम ॥ १९ ॥

 परन्तूद्धवलाभे स्याद् अस्मत् सर्वार्थसाधनम् ।

 तथा वदस्व कालिन्दि तल्लाभोऽपि यथा भवेत् ॥ २० ॥

 

 सूत उवाच -

 एवमुक्ता तु कालिन्दी प्रत्युवाचाथ तास्तथा ।

 स्मरन्ती कृष्णचन्द्रस्य कलाः षोडशरूपिणीः ॥ २१ ॥

 साधनभूमिर्बदरी व्रजता कृष्णेन मंत्रिणे प्रोक्ता ।

 तत्रास्ते स तु साक्षात् तद् वयुनं ग्राहयन् लोकान् ॥ २२ ॥

 फलभूमिर्व्रजब्ःउमिः दत्ता तस्मै पुरैव सरहस्यम् ।

 फलमिह तिरोहितं सत्तद् इहेदानीं स उद्धवोऽलक्ष्यः ॥ २३ ॥

 गोवर्द्धनगिरिनिकटे सखीस्थले तद्‍६रजः कामः ।

 तत्रत्याङ्‌‍कुरवल्लीरूपेणास्ते स उद्धवो नूनम् ॥ २४ ॥

 आत्मोत्सवरूपत्वं हरिणा तस्मै समार्पितं नियतम् ।

 तस्मात् तत्र स्थित्वा कुसुमसरःपरिसरे सवज्राभिः ॥ २५ ॥

 वीणावेणुमृदङ्‌गैः कीर्तनकाव्यादिसरससङ्‌गीतैः ।

 उत्सव आरब्धव्यो हरिरतलोकान् समानाय्य ॥ २६ ॥

 तत्रोद्धवावलोको भविता नियतं महोत्सवे वितते ।

 यौष्माकीणां अभिमतसिद्धिं सविता स एव सवितानाम् ॥ २७ ॥

 

 सूत उवाच -

 इति श्रुत्वा प्रसन्नास्ताः कालिन्दीं अभिवन्द्य तत् ।

 कथयामासुरागत्य वज्रं प्रति परीक्षितम् ॥ २८ ॥

 विष्णुरातस्तु तत् श्रुत्वा प्रसन्नस्तद्युतस्तदा ।

 तत्रैवागत्य तत् सर्वं कारयामास सत्वरम् ॥ २९ ॥

 गोवर्द्धनाददूरेण वृन्दारण्ये सखीस्थले ।

 प्रवृत्तः कुसुमाम्भोधौ कृष्णसंकीर्तनोत्सवः ॥ ३० ॥

 वृषभानुसुताकान्त विहारे कीर्तनश्रिया ।

 साक्षादिव समावृत्ते सर्वेऽनन्यदृशोऽभवन् ॥ ३१ ॥

 ततः पश्यत्सु सर्वेषु तृणगुल्मलताचयात् ।

 आजगामोद्धवः स्रग्वी श्यामः पीताम्बरावृतः ॥ ३२ ॥

 गुञ्जमालाधरो गायन् वल्लवीवल्लभं मुहुः ।

 तदागमनतो रेजे भृशं सङ्‌कीर्तनोत्सवः ॥ ३३ ॥

 चन्द्रिकागमतो यद्वत् स्फाटिकाट्टालभूमणिः ।

 अथ सर्वे सुखाम्भोधौ मग्नाः सर्वं विसस्मरुः ॥ ३४ ॥

 क्षणेनागतविज्ञाना दृष्ट्वा श्रीकृष्णरूपिणम् ।

 उद्धवं पूजयाञ्चक्रुः प्रतिलब्धमनोरथाः ॥ ३५ ॥

 

ऋषियोंने पूछा—सूतजी ! अब यह बतलाइये कि परीक्षित्‌ और वज्रनाभको इस प्रकार आदेश देकर जब शाण्डिल्य मुनि अपने आश्रमको लौट गये, तब उन दोनों राजाओंने कैसे-कैसे और कौन-कौन-सा काम किया ? ॥ १ ॥

सूतजी कहने लगे—तदनन्तर महाराज परीक्षित्‌ने इन्द्रप्रस्थ (दिल्ली) से हजारों बड़े-बड़े सेठोंको बुलवाकर मथुरामें रहनेकी जगह दी ॥ २ ॥ इनके अतिरिक्त सम्राट् परीक्षित्‌ने मथुरामण्डलके ब्राह्मणों तथा प्राचीन वानरोंको, जो भगवान्‌के बड़े ही प्रेमी थे, बुलवाया और उन्हें आदरके योग्य समझकर मथुरानगरीमें बसाया ॥ ३ ॥ इस प्रकार राजा परीक्षित्‌की सहायता और महर्षि शाण्डिल्यकी कृपासे वज्रनाभने क्रमश: उन सभी स्थानोंकी खोज की, जहाँ भगवान्‌ श्रीकृष्ण अपने प्रेमी गोप-गोपियोंके साथ नाना प्रकारकी लीलाएँ करते थे। लीलास्थानोंका ठीक-ठीक निश्चय हो जानेपर उन्होंने वहाँ-वहाँकी लीलाके अनुसार उस-उस स्थानका नाम-करण किया, भगवान्‌के लीलाविग्रहोंकी स्थापना की तथा उन-उन स्थानोंपर अनेकों गाँव बसाये। स्थान-स्थानपर भगवान्‌के नामसे कुण्ड और कुएँ खुदवाये। कुञ्ज और बगीचे लगवाये, शिव आदि देवताओंकी स्थापना की ॥ ४-५ ॥ गोविन्ददेव, हरिदेव आदि नामोंसे भगवद्विग्रह स्थापित किये। इन सब शुभ कर्मोंके द्वारा वज्रनाभने अपने राज्यमें सब ओर एकमात्र श्रीकृष्णभक्तिका प्रचार किया और बड़े ही आनन्दित हुए ॥ ६ ॥ उनके प्रजाजनोंको भी बड़ा आनन्द था, वे सदा भगवान्‌के मधुर नाम तथा लीलाओंके कीर्तनमें संलग्र हो परमानन्दके समुद्रमें डूबे रहते थे और सदा ही वज्रनाभके राज्यकी प्रशंसा किया करते थे ॥ ७ ॥

एक दिन भगवान्‌ श्रीकृष्णकी विरह-वेदनासे व्याकुल सोलह हजार रानियाँ अपने प्रियतम पतिदेवकी चतुर्थ पटरानी कालिन्दी (यमुनाजी) को आनन्दित देखकर सरलभावसे उनसे पूछने लगीं। उनके मनमें सौतियाडाह लेशमात्र भी नहीं था ॥ ८ ॥

श्रीकृष्णकी रानियोंने कहा—बहिन कालिन्दी ! जैसे हम सब श्रीकृष्णकी धर्मपत्नी हैं, वैसे ही तुम भी तो हो। हम तो उनकी विरहाग्रिमें जली जा रही हैं, उनके वियोग-दु:खसे हमारा हृदय व्यथित हो रहा है; किन्तु तुम्हारी यह स्थिति नहीं है, तुम प्रसन्न हो। इसका क्या कारण है ? कल्याणी ! कुछ बताओ तो सही ॥ ९ ॥

उनका प्रश्र सुनकर यमुनाजी हँस पड़ीं। साथ ही यह सोचकर कि मेरे प्रियतमकी पत्नी होनेके कारण ये भी मेरी ही बहिनें हैं, पिघल गयीं; उनका हृदय दयासे द्रवित हो उठा। अत: वे इस प्रकार कहने लगीं ॥ १० ॥

यमुनाजीने कहा—अपनी आत्मामें ही रमण करनेके कारण भगवान्‌ श्रीकृष्ण आत्माराम हैं और उनकी आत्मा हैं—श्रीराधाजी। मैं दासीकी भाँति राधाजीकी सेवा करती रहती हूँ; उनकी सेवाका ही यह प्रभाव है कि विरह हमारा स्पर्श नहीं कर सकता ॥ ११ ॥ भगवान्‌ श्रीकृष्णकी जितनी भी रानियाँ हैं, सब-की-सब श्रीराधाजीके ही अंशका विस्तार हैं। भगवान्‌ श्रीकृष्ण और राधा सदा एक- दूसरेके सम्मुख हैं, उनका परस्पर नित्य संयोग है; इसलिये राधाके स्वरूपमें अंशत: विद्यमान जो श्रीकृष्णकी अन्य रानियाँ हैं, उनको भी भगवान्‌का नित्य-संयोग प्राप्त है ॥ १२ ॥ श्रीकृष्ण ही राधा हैं और राधा ही श्रीकृष्ण हैं। उन दोनोंका प्रेम ही वंशी है। तथा राधाकी प्यारी सखी चन्द्रावली भी श्रीकृष्ण-चरणोंके नखरूपी चन्द्रमाओंकी सेवामें आसक्त रहनेके कारण ही ‘चन्द्रावली’ नामसे कही जाती है ॥ १३ ॥ श्रीराधा और श्रीकृष्णकी सेवामें उसकी बड़ी लालसा, बड़ी लगन है; इसीलिये वह कोई दूसरा स्वरूप धारण नहीं करती। मैंने यहीं श्रीराधामें ही रुक्मिणी आदिका समावेश देखा है ॥ १४ ॥ तुमलोगोंका भी सर्वांशमें श्रीकृष्णके साथ वियोग नहीं हुआ है, किन्तु तुम इस रहस्यको इस रूपमें जानती नहीं हो, इसीलिये इतनी व्याकुल हो रही हो ॥ १५ ॥ इसी प्रकार पहले भी जब अक्रूर श्रीकृष्णको नन्दगाँवसे मथुरामें ले आये थे, उस अवसरपर जो गोपियोंको श्रीकृष्णसे विरहकी प्रतीति हुई थी, वह भी वास्तविक विरह नहीं, केवल विरहका आभास था। इस बातको जबतक वे नहीं जानती थीं, तबतक उन्हें बड़ा कष्ट था; फिर जब उद्धवजीने आकर उनका समाधान किया, तब वे इस बातको समझ सकीं ॥ १६ ॥ यदि तुम्हें भी उद्धवजीका सत्संग प्राप्त हो जाय तो तुम सब भी अपने प्रियतम श्रीकृष्णके साथ नित्यविहारका सुख प्राप्त कर लोगी ॥ १७ ॥

सूतजी कहते हैं—ऋषिगण ! जब उन्होंने इस प्रकार समझाया, तब श्रीकृष्णकी पत्नियाँ सदा प्रसन्न रहनेवाली यमुनाजीसे पुन: बोलीं। उस समय उनके हृदयमें इस बातकी बड़ी लालसा थी कि किसी उपायसे उद्धवजीका दर्शन हो, जिससे हमें अपने प्रियतमके नित्य-संयोगका सौभाग्य प्राप्त हो सके ॥ १८ ॥

श्रीकृष्णपत्नियोंने कहा—सखी ! तुम्हारा ही जीवन धन्य है; क्योंकि तुम्हें कभी भी अपने प्राणनाथके वियोगका दु:ख नहीं भोगना पड़ता। जिन श्रीराधिकाजीकी कृपासे तुम्हारे अभीष्ट अर्थकी सिद्धि हुई है, उनकी अब हमलोग भी दासी हुर्ईं ॥ १९ ॥ किन्तु तुम अभी कह चुकी हो कि उद्धवजीके मिलनेपर ही हमारे सभी मनोरथ पूर्ण होंगे; इसलिये कालिन्दी ! अब ऐसा कोई उपाय बताओ, जिससे उद्धवजी भी शीघ्र ही मिल जायँ ॥ २० ॥

सूतजी कहते हैं—श्रीकृष्णकी रानियोंने जब यमुनाजीसे इस प्रकार कहा, तब वे भगवान्‌ श्रीकृष्णचन्द्रकी सोलह कलाओंका चिन्तन करती हुई उनसे कहने लगीं— ॥ २१ ॥ ‘‘जब भगवान्‌ श्रीकृष्ण अपने परमधामको पधारने लगे, तब उन्होंने अपने मन्त्री उद्धवसे कहा—‘उद्धव ! साधना करनेकी भूमि है बदरिकाश्रम, अत: अपनी साधना पूर्ण करनेके लिये तुम वहीं जाओ।’ भगवान्‌की इस आज्ञाके अनुसार उद्धवजी इस समय अपने साक्षात् स्वरूपसे बदरिकाश्रममें विराजमान हैं और वहाँ जानेवाले जिज्ञासुलोगोंको भगवान्‌के बताये हुए ज्ञानका उपदेश करते रहते हैं ॥ २२ ॥ साधनकी फलरूपा भूमि है—व्रजभूमि; इसे भी इसके रहस्योंसहित भगवान्‌ने पहले ही उद्धवको दे दिया था। किन्तु वह फलभूमि यहाँसे भगवान्‌के अन्तर्धान होनेके साथ ही स्थूल दृष्टिसे परे जा चुकी है; इसीलिये इस समय यहाँ उद्धव प्रत्यक्ष दिखायी नहीं पड़ते ॥ २३ ॥ फिर भी एक स्थान है, जहाँ उद्धवजीका दर्शन हो सकता है। गोवर्धन पर्वतके निकट भगवान्‌की लीलासहचरी गोपियोंकी विहार- स्थली है; वहाँकी लता, अङ्कुर और बेलोंके रूपमें अवश्य ही उद्धवजी वहाँ निवास करते हैं। लताओंके रूपमें उनके रहनेका यही उद्देश्य है कि भगवान्‌की प्रियतमा गोपियोंकी चरणरज उनपर पड़ती रहे ॥ २४ ॥ उद्धवजीके सम्बन्धमें एक निश्चित बात यह भी है कि उन्हें भगवान्‌ने अपना उत्सव- स्वरूप प्रदान किया है। भगवान्‌का उत्सव उद्धवजीका अंग है, वे उससे अलग नहीं रह सकते; इसलिये अब तुमलोग वज्रनाभको साथ लेकर वहाँ जाओ और कुसुमसरोवरके पास ठहरो ॥ २५ ॥ भगवद्भक्तोंकी मण्डली एकत्र करके वीणा, वेणु और मृदङ्ग आदि बाजोंके साथ भगवान्‌के नाम और लीलाओंके कीर्तन, भगवत्सम्बन्धी काव्य-कथाओंके श्रवण तथा भगवद्गुणगानसे युक्त सरस संगीतोंद्वारा महान् उत्सव आरम्भ करो ॥ २६ ॥ इस प्रकार जब उस महान् उत्सवका विस्तार होगा, तब निश्चय है कि वहाँ उद्धवजीका दर्शन मिलेगा। वे ही भलीभाँति तुम सब लोगोंके मनोरथ पूर्ण करेंगे’’ ॥ २७ ॥

सूतजी कहते हैं—यमुनाजीकी बतायी हुई बातें सुनकर श्रीकृष्णकी रानियाँ बहुत प्रसन्न हुर्ईं। उन्होंने यमुनाजीको प्रणाम किया और वहाँसे लौटकर वज्रनाभ तथा परीक्षित्‌से वे सारी बातें कह सुनायीं ॥ २८ ॥ सब बातें सुनकर परीक्षित्‌को बड़ी प्रसन्नता हुई और उन्होंने वज्रनाभ तथा श्रीकृष्णपत्नियोंको उसी समय साथ ले उस स्थानपर पहुँचकर तत्काल वह सब कार्य आरम्भ करवा दिया, जो कि यमुनाजीने बताया था ॥ २९ ॥ गोवर्धनके निकट वृन्दावनके भीतर कुसुमसरोवरपर जो सखियोंकी विहारस्थली है, वहाँ ही श्रीकृष्णकीर्तनका उत्सव आरम्भ हुआ ॥ ३० ॥ वृषभानुनन्दिनी श्रीराधाजी तथा उनके प्रियतम श्रीकृष्णकी वह लीलाभूभि जब साक्षात् सङ्कीर्तनकी शोभासे सम्पन्न हो गयी, उस समय वहाँ रहनेवाले सभी भक्तजन एकाग्र हो गये; उनकी दृष्टि, उनके मनकी वृत्ति कहीं अन्यत्र न जाती थी ॥ ३१ ॥ तदनन्तर सबके देखते-देखते वहाँ फैले हुए तृण, गुल्म और लताओंके समूहसे प्रकट होकर श्रीउद्धवजी सबके सामने आये। उनका शरीर श्यामवर्ण था, उसपर पीताम्बर शोभा पा रहा था। वे गलेमें वनमाला और गुंजाकी माला धारण किये हुए थे तथा मुखसे बारंबार गोपीवल्लभ श्रीकृष्णकी मधुर लीलाओंका गान कर रहे थे। उद्धवजीके आगमनसे उस सङ्कीर्तनोत्सवकी शोभा कई गुनी बढ़ गयी। जैसे स्फटिकमणिकी बनी हुई अट्टालिकाकी छतपर चाँदनी छिटकनेसे उसकी शोभा बहुत बढ़ जाती है। उस समय सभी लोग आनन्दके समुद्रमें निमग्र हो अपना सब कुछ भूल गये, सुध-बुध खो बैठे ॥ ३२—३४ ॥ थोड़ी देर बाद जब उनकी चेतना दिव्य लोकसे नीचे आयी, अर्थात् जब उन्हें होश हुआ, तब उद्धवजीको भगवान्‌ श्रीकृष्णके स्वरूपमें उपस्थित देख, अपना मनोरथ पूर्ण हो जानेके कारण प्रसन्न हो, वे उनकी पूजा करने लगे ॥ ३५ ॥

 

इति श्रीस्कान्दे महापुराण एकशीतिसाहस्र्यां संहितायां द्वितीये वैष्णवखण्डे

श्रीमद्भागवतमाहात्म्ये गोवर्धनपर्वतसमीपे परीक्षिदादीनां उद्धवदर्शनवर्णनं नाम द्वितीयोऽध्यायः ॥ २ ॥

 

 हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥



सोमवार, 17 मई 2021

श्रीमद्भागवतमहापुराण --श्रीमद्भागवतमाहात्म्यम्- पहला अध्याय

 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

श्रीमद्भागवतमाहात्म्यम्- पहला अध्याय

 

परीक्षित्‌ और वज्रनाभ का समागम, शाण्डिल्यमुनि के मुख से

भगवान्‌ की लीला के रहस्य और व्रजभूमिके महत्त्व का वर्णन

 

व्यास उवाच

श्रीसच्चिदानन्दघन स्वरूपिणे

     कृष्णाय चानन्तसुखाभिवर्षिणे ।

 विश्वोद्‌भवस्थाननिरोधहेतवे

     नुमो नु वयं भक्तिरसाप्तयेऽनिशम् ॥ १ ॥

 नैमिषे सूतमासीनं अभिवाद्य महामतिम् ।

 कथामृतरसास्वाद कुशला ऋषयोऽब्रुवन् ॥ २ ॥

 

 ऋषयः ऊचुः -

वज्रं श्रीमाथुरे देशे स्वपौत्रं हस्तिनापुरे ।

 अभिषिच्य गते राज्ञि तौ कथं किंच चक्रतुः ॥ ३ ॥

 

 सूत उवाच -

 नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम् ।

 देवीं सरस्वतीं व्यासं ततो जयमुदीरयेत् ॥ ४ ॥

 महापथं गते राज्ञि परीक्षित् पृथिवीपतिः ।

 जगाम मथुरां विप्रा वज्रनाभदिदृक्षया ॥ ५ ॥

 पितृव्यमागतं ज्ञात्वा वज्रः प्रेमपरिप्लुतः ।

 अभिगम्याभिवाद्याथ निनाय निजमन्दिरम् ॥ ६ ॥

 परिष्वज्य स तं वीरः कृष्णैकगतमानसः ।

 रोहिण्याद्या हरेः पत्‍नीः ववन्दायतनागतः ॥ ७ ॥

 ताभिः संमानितोऽत्यर्थं परीक्षित् पृथिवीपतिः ।

 विश्रान्तः सुखमासीनो वज्रनाभमुवाच ह ॥ ८ ॥

 

 परीक्षिदुवाच -

 तात त्वत्पितृभिः नूनं अस्मत् पितृपितामहाः ।

 उद्‌धृता भूरिदुःखौघादहं च परिरक्षितः ॥ ९ ॥

 न पारयाम्यहं तात साधु कृत्वोपकारतः ।

 त्वामतः प्रार्थयाम्यङ्‌ग सुखं राज्येऽनुयुज्यताम् ॥ १० ॥

 कोशसैन्यादिजा चिन्ता तथारिदमनादिजा ।

 मनागपि न कार्या ए सुसेव्याः किन्तु मातरः ॥ ११ ॥

 निवेद्य मयि कर्तव्यं सर्वाधिपरिवर्जनम् ।

 श्रुत्वैतत् परमप्रीतो वज्रस्तं प्रत्युवाच ह ॥ १२ ॥

 

 वज्रनाभ उवाच -

 राज उचितमेतत्ते यदस्मासु प्रभाषसे ।

 त्वत्पित्रोपकृतश्चाहं धनुर्विद्याप्रदानतः ॥ १३ ॥

 तस्मात् नाल्पापि मे चिन्ता क्षात्रं दृढमुपेयुषः ।

 किन्त्वेका परमा चिन्ता तत्र किञ्चिद् विचार्यताम् ॥ १४ ॥

 माथुरे त्वभिषिक्तोऽपि स्थितोऽहं निर्जने वने ।

 क्व गता वै प्रजात्रत्या अत्र राज्यं प्ररोचते ॥ १५ ॥

 इत्युक्तो विष्णुरातस्तु नदादीनां पुरोहितम् ।

 शाण्डिल्यमाजुहावाशु वज्रसन्देहमुत्तये ॥ १६ ॥

 अथोटजं विहायाशु शाण्डिल्यः समुपागतः ।

 पूजितो वज्रनाभेन निषसादासनोत्तमे ॥ १७ ॥

 उपोद्‌घातं विष्णुरातः चकाराशु ततस्त्वसौ ।

 उवाच परमप्रीतस्तावुभौ परिसान्त्वयन् ॥ १८ ॥

 

 शाण्डिल्य उवाच -

 श्रृणुतं दत्तचित्तौ मे रहस्यं व्रजभूमिजम् ।

 व्रजनं व्याप्तिरित्युक्त्या व्यापनाद् व्रज उच्यते ॥ १९ ॥

 गुणातीतं परं ब्रह्म व्यापकं व्रज उच्यते ।

 सदानन्दं परं ज्योतिः मुक्तानां पदमव्ययम् ॥ २० ॥

 तस्मिन् नन्दात्मजः कृष्णः सदानन्दाङ्‍‌गविग्रहः ।

 आत्मारामस्चाप्तकामः प्रेमाक्तैरनुभूयते ॥ २१ ॥

 आत्मा तु राधिका तस्य तयैव रमणादसौ ।

 आत्मारामतया प्राज्ञैः प्रोच्यते बूढवेदिभिः ॥ २२ ॥

 कामास्तु वाञ्छितास्तस्य गावो गोपाश्च गोपिकाः ।

 नित्यां सर्वे विहाराद्या आप्तकामस्ततस्त्वयम् ॥ २३ ॥

 रहस्यं त्विदमेतस्य प्रकृतेः परमुच्यते ।

 प्रकृत्या खेलतस्तस्य लीलान्यैरनुभूयते ॥ २४ ॥

 सर्गस्थित्यप्यया जत्र रजःसत्त्वतमोगुणैः ।

 लीलैवं द्विविधा तस्य वास्तवी व्यावहारिकी ॥ २५ ॥

 वास्तवी तत्स्वसंवेद्या जीवानां व्यावहारिकी ।

 आद्यां विना द्वितीया न द्वितीया नाद्यगा क्वचित् ॥ २६ ॥

 युवयोः गोचरेयं तु तल्लीला व्यावहारिकी ।

 यत्र भूरादयो लोका भुवि माथुरमण्डलम् ॥ २७ ॥

 अत्रैव व्रजभूमिः सा यत्र तत्वं सुगोपितम् ।

 भासते प्रेमपूर्णानां कदाचिदपि सर्वतः ॥ २८ ॥

 कदाचित् द्वापरस्यान्ते रहोलीलाधिकारिणः ।

 समवेता यदात्र स्युः यथेदानीं तदा हरिः ॥ २९ ॥

 स्वैः सहावतरेत् स्वेषु समावेशार्थमीप्सिताः ।

 तदा देवादयोऽप्यन्ये ऽवरन्ति समन्ततः ॥ ३० ॥

 सर्वेषां वाञ्छितं कृत्वा हरिरन्तर्हितोऽभवत् ।

 तेनात्र त्रिविधा लोकाः स्थिताः पूर्वं न संशयः ॥ ३१ ॥

 नित्यास्तल्लिप्सवश्चैव देवाद्याश्चेति भेदतः ।

 देवाद्यास्तेषु कृष्णेन द्वारिकां प्रापिताः पुरा ॥ ३२ ॥

 पुनर्मौसलमार्गेण स्वाधिकारेषु चापिताः ।

 तल्लिप्सूंश्च सदा कृष्णः प्रेमानन्दैकरूपिणः ॥ ३३ ॥

 विधाय स्वीयनित्येषु समावेशितवांस्तदा ।

 नित्याः सर्वेऽप्ययोग्येषु दर्शनाभावतां गताः ॥ ३४ ॥

 व्यावकारिकलीलास्थाः तत्र यन्नाधिकारिणः ।

 पश्यन्त्यत्रागतास्तत्मात् निर्जनत्वं समन्ततः ॥ ३५ ॥

 तस्माच्चिन्ता न ते कार्या वज्रनाभ मदाज्ञया ।

 वासयात्र बहून् ग्रामान् संसिद्धिस्ते भविष्यति ॥ ३६ ॥

 कृष्णलीलानुसारेण कृत्वा नामानि सर्वतः ।

 त्वया वासयता ग्रामान् संसेव्या भूरियं परा ॥ ३७ ॥

 गोवर्द्धने दीर्घपुरे मथुरायां महावने ।

 नन्दिग्रामे बृहत्सानौ कार्या राज्यस्थितिस्त्वया ॥ ३८ ॥

 नद्यद्रिद्रोणिकुण्डादि कुञ्जान् संसेवतस्तव ।

 राज्ये प्रजाः सुसम्पन्नास्त्वं च प्रीतो भविष्यसि ॥ ३९ ॥

 सच्चिदानन्दभूरेषा त्वया सेव्या प्रयत्‍नतः ।

 तव कृष्णस्थलान्यत्र स्फुरन्तु मदनुग्रहात् ॥ ४० ॥

 वज्र संसेवनादस्य उद्धवस्त्वां मिलिष्यति ।

 ततो रहस्यमेतस्मात् प्राप्स्यसि त्वं समातृकः ॥ ४१ ॥

 एवमुक्त्वा तु शाण्डिल्यो गतः कृष्णमनुस्मरन् ।

 विष्णूरातोऽथ वज्रश्च परां प्रीत्तिमवापतुः ॥ ४२ ॥

 

महर्षि व्यास कहते हैं—जिनका स्वरूप है सच्चिदानन्दघन, जो अपने सौन्दर्य और माधुर्यादि गुणों से सबका मन अपनी ओर आकर्षित कर लेते हैं और सदा-सर्वदा अनन्त सुख की वर्षा करते रहते हैं, जिनकी ही शक्ति से इस विश्वकी उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय होते हैं—उन भगवान्‌ श्रीकृष्ण को हम भक्तिरस का आस्वादन करने के लिये नित्य-निरन्तर प्रणाम करते हैं ॥ १ ॥

नैमिषारण्यक्षेत्र में श्रीसूतजी स्वस्थ चित्तसे अपने आसनपर बैठे हुए थे। उस समय भगवान्‌ की अमृतमयी लीलाकथाके रसिक, उसके रसास्वादनमें अत्यन्त कुशल शौनकादि ऋषियोंने सूतजीको प्रणाम करके उनसे यह प्रश्र किया ॥ २ ॥

ऋषियोंने पूछा—सूतजी ! धर्मराज युधिष्ठिर जब श्रीमथुरामण्डलमें अनिरुद्धनन्दन वज्रका और हस्तिनापुरमें अपने पौत्र परीक्षित्‌का राज्याभिषेक करके हिमालयपर चले गये, तब राजा वज्र और परीक्षित्‌ने कैसे-कैसे कौन-कौन-सा कार्य किया ॥ ३ ॥

सूतजीने कहा—भगवान्‌ नारायण, नरोत्तम नर, देवी सरस्वती और महर्षि व्यासको नमस्कार करके शुद्धचित्त होकर भगवत्तत्त्वको प्रकाशित करनेवाले इतिहासपुराणरूप ‘जय’का उच्चारण करना चाहिये ॥ ४ ॥ शौनकादि ब्रहमर्षियो ! जब धर्मराज युधिष्ठिर आदि पाण्डवगण स्वर्गारोहणके लिये हिमालय चले गये, तब सम्राट् परीक्षित्‌ एक दिन मथुरा गये। उनकी इस यात्राका उद्देश्य इतना ही था कि वहाँ चलकर वज्रनाभसे मिल-जुल आयें ॥ ५ ॥ जब वज्रनाभको यह समाचार मालूम हुआ कि मेरे पितातुल्य परीक्षित्‌ मुझसे मिलनेके लिये आ रहे हैं, तब उनका हृदय प्रेमसे भर गया। उन्होंने नगरसे आगे बढक़र उनकी अगवानी की, चरणोंमें प्रणाम किया और बड़े प्रेमसे उन्हें अपने महलमें ले आये ॥ ६ ॥ वीर परीक्षित्‌ भगवान्‌ श्रीकृष्णके परम प्रेमी भक्त थे। उनका मन नित्य-निरन्तर आनन्दघन श्रीकृष्णचन्द्रमें ही रमता रहता था। उन्होंने भगवान्‌ श्रीकृष्णके प्रपौत्र वज्रनाभका बड़े प्रेमसे आलिङ्गन किया। इसके बाद अन्त:पुरमें जाकर भगवान्‌ श्रीकृष्णकी रोहिणी आदि पत्नियोंको नमस्कार किया ॥ ७ ॥ रोहिणी आदि श्रीकृष्ण-पत्नियोंने भी सम्राट् परीक्षित्‌का अत्यन्त सम्मान किया। वे विश्राम करके जब आरामसे बैठ गये, तब उन्होंने वज्रनाभसे यह बात कही ॥ ८ ॥

राजा परीक्षित्‌ ने कहा—‘हे तात ! तुम्हारे पिता और पितामहों ने मेरे पिता-पितामह को बड़े-बड़े सङ्कटों से बचाया है। मेरी रक्षा भी उन्होंने ही की है ॥ ९ ॥ प्रिय वज्रनाभ ! यदि मैं उनके उपकारों का बदला चुकाना चाहूँ तो किसी प्रकार नहीं चुका सकता। इसलिये मैं तुमसे प्रार्थना करता हूँ कि तुम सुखपूर्वक अपने राजकाजमें लगे रहो ॥ १० ॥ तुम्हें अपने खजानेकी, सेनाकी तथा शत्रुओंको दबाने आदिकी तनिक भी चिन्ता न करनी चाहिये। तुम्हारे लिये कोई कर्तव्य है तो केवल एक ही; वह यह कि तुम्हें अपनी इन माताओंकी खूब प्रेमसे भलीभाँति सेवा करते रहना चाहिये ॥ ११ ॥ यदि कभी तुम्हारे ऊपर कोई आपत्ति-विपत्ति आये अथवा किसी कारणवश तुम्हारे हृदयमें अधिक क्लेशका अनुभव हो, तो मुझसे बताकर निश्चिन्त हो जाना; मैं तुम्हारी सारी चिन्ताएँ दूर कर दूँगा।’ सम्राट् परीक्षित्‌की यह बात सुनकर वज्रनाभको बड़ी प्रसन्नता हुई। उन्होंने राजा परीक्षित्‌से कहा— ॥ १२ ॥

वज्रनाभने कहा—‘महाराज ! आप मुझसे जो कुछ कह रहे हैं, वह सर्वथा आपके अनुरूप है। आपके पिताने भी मुझे धनुर्वेदकी शिक्षा देकर मेरा महान् उपकार किया है ॥ १३ ॥ इसलिये मुझे किसी बातकी तनिक भी चिन्ता नहीं है; क्योंकि उनकी कृपासे मैं क्षत्रियोचित शूरवीरतासे भलीभाँति सम्पन्न हूँ। मुझे केवल एक बातकी बहुत बड़ी चिन्ता है, आप उसके सम्बन्धमें कुछ विचार कीजिये ॥ १४ ॥ यद्यपि मैं मथुरामण्डलके राज्यपर अभिषिक्त हूँ, तथापि मैं यहाँ निर्जन वनमें ही रहता हूँ। इस बातका मुझे कुछ भी पता नहीं है कि यहाँकी प्रजा कहाँ चली गयी; क्योंकि राज्यका सुख तो तभी है, जब प्रजा रहे’ ॥ १५ ॥ जब वज्रनाभने परीक्षित्‌से यह बात कही, तब उन्होंने वज्रनाभका सन्देह मिटानेके लिये महर्षि शाण्डिल्यको बुलवाया। ये ही महर्षि शाण्डिल्य पहले नन्द आदि गोपोंके पुरोहित थे ॥ १६ ॥ परीक्षित्‌ का सन्देश पाते ही महर्षि शाण्डिल्य अपनी कुटी छोडक़र वहाँ आ पहुँचे। वज्रनाभने विधिपूर्वक उनका स्वागत-सत्कार किया और वे एक ऊँचे आसनपर विराजमान हुए ॥ १७ ॥ राजा परीक्षित्‌ ने वज्रनाभकी बात उन्हें कह सुनायी। इसके बाद महर्षि शाण्डिल्य बड़ी प्रसन्नतासे उनको सान्त्वना देते हुए कहने लगे— ॥ १८ ॥

शाण्डिल्यजीने कहा—‘प्रिय परीक्षित्‌ और वज्रनाभ ! मैं तुमलोगोंसे व्रजभूमिका रहस्य बतलाता हूँ। तुम दत्तचित्त होकर सुनो। ‘व्रज’ शब्दका अर्थ है व्याप्ति। इस वृद्धवचनके अनुसार व्यापक होनेके कारण ही इस भूमिका नाम ‘व्रज’ पड़ा है ॥ १९ ॥ सत्त्व, रज, तम—इन तीन गुणोंसे अतीत जो परब्रह्म है, वही व्यापक है। इसलिये उसे ‘व्रज’ कहते हैं। वह सदानन्दस्वरूप, परम ज्योतिर्मय और अविनाशी है। जीवन्मुक्त पुरुष उसीमें स्थित रहते हैं ॥ २० ॥ इस परब्रह्मस्वरूप व्रजधाममें नन्दनन्दन भगवान्‌ श्रीकृष्णका निवास है। उनका एक-एक अंग सच्चिदानन्दस्वरूप है। वे आत्माराम और आप्तकाम हैं। प्रेमरसमें डूबे हुए रसिकजन ही उनका अनुभव करते हैं ॥ २१ ॥ भगवान्‌ श्रीकृष्णकी आत्मा हैं—राधिका; उनसे रमण करनेके कारण ही रहस्य-रसके मर्मज्ञ ज्ञानी पुरुष उन्हें ‘आत्माराम’ कहते हैं ॥ २२ ॥ ‘काम’ शब्दका अर्थ है कामना—अभिलाषा। व्रजमें भगवान्‌ श्रीकृष्णके वाञ्छित पदार्थ हैं—गौएँ, ग्वालबाल, गोपियाँ और उनके साथ लीला-विहार आदि; वे सब-के-सब यहाँ नित्य प्राप्त हैं। इसीसे श्रीकृष्णको ‘आप्तकाम’ कहा गया है ॥ २३ ॥ भगवान्‌ श्रीकृष्णकी यह रहस्य-लीला प्रकृतिसे परे है। वे जिस समय प्रकृतिके साथ खेलने लगते हैं, उस समय दूसरे लोग भी उनकी लीलाका अनुभव करते हैं ॥ २४ ॥ प्रकृतिके साथ होनेवाली लीलामें ही रजोगुण, सत्त्वगुण और तमोगुणके द्वारा सृष्टि, स्थिति और प्रलयकी प्रतीति होती है। इस प्रकार यह निश्चय होता है कि भगवान्‌ की लीला दो प्रकारकी है—एक वास्तवी और दूसरी व्यावहारिकी ॥ २५ ॥ वास्तवी लीला स्वसंवेद्य है—उसे स्वयं भगवान्‌ और उनके रसिक भक्तजन ही जानते हैं। जीवोंके सामने जो लीला होती है, वह व्यावहारिकी लीला है। वास्तवी लीलाके बिना व्यावहारिकी लीला नहीं हो सकती; परन्तु व्यावहारिकी लीलाका वास्तविक लीलाके राज्यमें कभी प्रवेश नहीं हो सकता ॥ २६ ॥ तुम दोनों भगवान्‌की जिस लीलाको देख रहे हो, यह व्यावहारिकी लीला है। यह पृथ्वी और स्वर्ग आदि लोक इसी लीलाके अन्तर्गत हैं। इसी पृथ्वीपर यह मथुरामण्डल है ॥ २७ ॥ यहीं वह व्रजभूमि है, जिसमें भगवान्‌की वह वास्तवी रहस्य-लीला गुप्तरूपसे होती रहती है। वह कभी-कभी प्रेमपूर्ण हृदयवाले रसिक भक्तोंको सब ओर दीखने लगती है ॥ २८ ॥ कभी अट्ठाईसवें द्वापरके अन्तमें जब भगवान्‌ की रहस्य-लीलाके अधिकारी भक्तजन यहाँ एकत्र होते हैं, जैसा कि इस समय भी कुछ काल पहले हुए थे, उस समय भगवान्‌ अपने अन्तरङ्ग प्रेमियों के साथ अवतार लेते हैं। उनके अवतारका यह प्रयोजन होता है कि रहस्य-लीलाके अधिकारी भक्तजन भी अन्तरङ्ग परिकरोंके साथ सम्मिलित होकर लीला-रसका आस्वादन कर सकें। इस प्रकार जब भगवान्‌ अवतार ग्रहण करते हैं, उस समय भगवान्‌के अभिमत प्रेमी देवता और ऋषि आदि भी सब ओर अवतार लेते हैं ॥ २९-३० ॥

अभी-अभी जो अवतार हुआ था, उसमें भगवान्‌ अपने सभी प्रेमियोंकी अभिलाषाएँ पूर्ण करके अब अन्तर्धान हो चुके हैं। इससे यह निश्चय हुआ कि यहाँ पहले तीन प्रकारके भक्तजन उपस्थित थे; इसमें सन्देह नहीं है ॥ ३१ ॥ उन तीनोंमें प्रथम तो उनकी श्रेणी है, जो भगवान्‌के नित्य ‘अन्तरङ्ग’ पार्षद हैं—जिनका भगवान्‌से कभी वियोग होता ही नहीं। दूसरे वे हैं, जो एकमात्र भगवान्‌को पानेकी इच्छा रखते हैं—उनकी अन्तरङ्ग-लीलामें अपना प्रवेश चाहते हैं। तीसरी श्रेणीमें देवता आदि हैं। इनमेंसे जो देवता आदिके अंशसे अवतीर्ण हुए थे, उन्हें भगवान्‌ने व्रजभूमिसे हटाकर पहले ही द्वारका पहुँचा दिया था ॥ ३२ ॥ फिर भगवान्‌ने ब्राह्मणके शापसे उत्पन्न मूसलको निमित्त बनाकर यदुकुलमें अवतीर्ण देवताओंको स्वर्गमें भेज दिया और पुन: अपने-अपने अधिकारपर स्थापित कर दिया। तथा जिन्हें एकमात्र भगवान्‌को ही पानेकी इच्छा थी, उन्हें प्रेमानन्दस्वरूप बनाकर श्रीकृष्णने सदाके लिये अपने नित्य अन्तरङ्ग पार्षदोंमें सम्मिलित कर लिया। जो नित्य पार्षद हैं, वे यद्यपि यहाँ गुप्तरूपसे होनेवाली नित्यलीलामें सदा ही रहते हैं, परन्तु जो उनके दर्शनके अधिकारी नहीं हैं, ऐसे पुरुषोंके लिये वे भी अदृश्य हो गये हैं ॥ ३३-३४ ॥ जो लोग व्यावहारिक लीलामें स्थित हैं, वे नित्यलीलाका दर्शन पानेके अधिकारी नहीं हैं; इसलिये यहाँ आनेवालोंको सब ओर निर्जन वन—सूना-ही-सूना दिखायी देता है; क्योंकि वे वास्तविक लीलामें स्थित भक्तजनोंको देख नहीं सकते ॥ ३५ ॥

इसलिये वज्रनाभ ! तुम्हें तनिक भी चिन्ता नहीं करनी चाहिये। तुम मेरी आज्ञासे यहाँ बहुत-से गाँव बसाओ; इससे निश्चय ही तुम्हारे मनोरथोंकी सिद्धि होगी ॥ ३६ ॥ भगवान्‌ श्रीकृष्णने जहाँ जैसी लीला की है, उसके अनुसार उस स्थानका नाम रखकर तुम अनेकों गाँव बसाओ और इस प्रकार दिव्य व्रजभूमिका भलीभाँति सेवन करते रहो ॥ ३७ ॥ गोवर्धन, दीर्घपुर (डीग), मथुरा, महावन (गोकुल), नन्दिग्राम (नन्दगाँव) और बृहत्सानु (बरसाना) आदि में तुम्हें अपने लिये छावनी बनवानी चाहिये ॥ ३८ ॥ उन-उन स्थानोंमें रहकर भगवान्‌ की लीलाके स्थल नदी, पर्वत, घाटी, सरोवर और कुण्ड तथा कुञ्ज-वन आदिका सेवन करते रहना चाहिये। ऐसा करनेसे तुम्हारे राज्यमें प्रजा बहुत ही सम्पन्न होगी और तुम भी अत्यन्त प्रसन्न रहोगे ॥ ३९ ॥ यह व्रजभूमि सच्चिदानन्दमयी है, अत: तुम्हें प्रयत्नपूर्वक इस भूमिका सेवन करना चाहिये। मैं आशीर्वाद देता हूँ; मेरी कृपासे भगवान्‌ की लीलाके जितने भी स्थल हैं, सबकी तुम्हें ठीक-ठीक पहचान हो जायगी ॥ ४० ॥ वज्रनाभ ! इस व्रजभूमिका सेवन करते रहनेसे तुम्हें किसी दिन उद्धवजी मिल जायँगे। फिर तो अपनी माताओंसहित तुम उन्हींसे इस भूमिका तथा भगवान्‌ की लीलाका रहस्य भी जान लोगे ॥ ४१ ॥

मुनिवर शाण्डिल्यजी उन दोनोंको इस प्रकार समझा-बुझाकर भगवान्‌ श्रीकृष्णका स्मरण करते हुए अपने आश्रमपर चले गये। उनकी बातें सुनकर राजा परीक्षित्‌ और वज्रनाभ दोनों ही बहुत प्रसन्न हुए ॥ ४२ ॥

 

इति श्रीस्कान्दे महापुराण एकशीतिसाहस्र्यां संहितायां द्वितीये वैष्णवखण्डे

श्रीमद्भागवतमाहात्म्ये शाण्डील्योपदिष्ट व्रजभूमिमाहात्म्यवर्णनं नाम प्रथमोऽध्यायः ॥ १ ॥

 

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

 




श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट०९)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - पाँचवा अध्याय..(पोस्ट०९) विदुरजीका प्रश्न  और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्णन देव...