सोमवार, 30 जून 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - अट्ठाईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - अट्ठाईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)

अष्टाङ्गयोग की विधि

जानुद्वयं जलजलोचनया जनन्या
     लक्ष्म्याखिलस्य सुरवन्दितया विधातुः ।
ऊर्वोर्निधाय करपल्लवरोचिषा यत्
     संलालितं हृदि विभोरभवस्य कुर्यात् ॥ २३ ॥
ऊरू सुपर्णभुजयोरधि शोभमानौ
     वोजोनिधी अतसिकाकुसुमावभासौ ।
व्यालम्बिपीतवरवाससि वर्तमान
     काञ्चीकलापपरिरम्भि नितम्बबिम्बम् ॥ २४ ॥
नाभिह्रदं भुवनकोशगुहोदरस्थं
     यत्रात्मयोनिधिषणाखिललोकपद्मम् ।
व्यूढं हरिन्मणिवृषस्तनयोरमुष्य
     ध्यायेद् द्वयं विशदहारमयूखगौरम् ॥ २५ ॥
वक्षोऽधिवासमृषभस्य महाविभूतेः
     पुंसां मनोनयननिर्वृतिमादधानम् ।
कण्ठं च कौस्तुभमणेरधिभूषणार्थं
     कुर्यान्मनस्यखिल लोकनमस्कृतस्य ॥ २६ ॥

भवभयहारी अजन्मा श्रीहरि की दोनों पिंडलियों एवं घुटनों का ध्यान करे, जिनको विश्वविधाता ब्रह्माजी की माता सुरवन्दिता कमललोचना लक्ष्मीजी  अपनी जाँघोंपर रखकर अपने कान्तिमान् करकिसलयोंकी कान्तिसे लाड़ लड़ाती रहती हैं ॥ २३ ॥ भगवान्‌की जाँघोंका ध्यान करे, जो अलसीके फूलके समान नीलवर्ण और बलकी निधि हैं तथा गरुडजीकी पीठपर शोभायमान हैं। भगवान्‌के नितम्बबिम्ब का ध्यान करे, जो एड़ी तक लटके हुए पीताम्बर से ढका हुआ है और उस पीताम्बरके ऊपर पहनी हुई सुर्वणमयी करधनी की लडिय़ों को आलिङ्गन कर रहा है ॥ २४ ॥
सम्पूर्ण लोकोंके आश्रयस्थान भगवान्‌के उदरदेशमें स्थित नाभिसरोवरका ध्यान करे; इसीमेंसे ब्रह्माजी का आधारभूत सर्वलोकमय कमल प्रकट हुआ है। फिर प्रभुके श्रेष्ठ मरकतमणि सदृश दोनों स्तनों का चिन्तन करे, जो वक्ष:स्थलपर पड़े हुए शुभ्र हारों की किरणों से गौरवर्ण जान पड़ते हैं ॥ २५ ॥ इसके पश्चात् पुरुषोत्तम भगवान्‌ के वक्ष:स्थलका ध्यान करे, जो महालक्ष्मी का निवासस्थान और लोगों के मन एवं नेत्रों को आनन्द देनेवाला है । फिर सम्पूर्ण लोकों के वन्दनीय भगवान्‌ के गले का चिन्तन करे, जो मानो कौस्तुभमणि को भी सुशोभित करने के लिये ही उसे धारण करता है ॥ २६ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


रविवार, 29 जून 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - अट्ठाईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - अट्ठाईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

अष्टाङ्गयोग की विधि

स्थितं व्रजन्तमासीनं शयानं वा गुहाशयम् ।
प्रेक्षणीयेहितं ध्यायेत् शुद्धभावेन चेतसा ॥ १९ ॥
तस्मिन्लब्धपदं चित्तं सर्वावयवसंस्थितम् ।
विलक्ष्यैकत्र संयुज्याद् अङ्गे भगवतो मुनिः ॥ २० ॥
सञ्चिन्तयेद् भगवतश्चरणारविन्दं
     वज्राङ्कुशध्वज सरोरुह लाञ्छनाढ्यम् ।
उत्तुङ्गरक्तविलसन् नखचक्रवाल
     ज्योत्स्नाभिराहतमहद् हृदयान्धकारम् ॥ २१ ॥
यच्छौचनिःसृतसरित् प्रवरोदकेन ।
     तीर्थेन मूर्ध्न्यधिकृतेन शिवः शिवोऽभूत् ।
ध्यातुर्मनःशमलशैलनिसृष्टवज्रं
     ध्यायेच्चिरं भगवतश्चरणारविन्दम् ॥ २२ ॥

भगवान्‌ की लीलाएँ बड़ी दर्शनीय हैं; अत: अपनी रुचि के अनुसार खड़े हुए, चलते हुए, बैठे हुए, पौढ़े हुए अथवा अन्तर्यामीरूप में स्थित हुए उनके स्वरूप का विशुद्ध भावयुक्त चित्त से चिन्तन करे ॥ १९ ॥ इस प्रकार योगी जब यह अच्छी तरह देख ले कि भगवद्विग्रह में चित्त की स्थिति हो गयी,तब वह उनके समस्त अङ्गों में लगे हुए चित्त को विशेष रूपसे एक-एक अङ्ग में लगावे   ॥ २० ॥ भगवान्‌के चरणकमलों का ध्यान करना चाहिये। वे वज्र, अङ्कुश, ध्वजा और कमलके मङ्गलमय चिह्नोंसे युक्त हैं तथा अपने उभरे हुए लाल-लाल शोभामय नखचन्द्र-मण्डलकी चन्द्रिकासे ध्यान करनेवालोंके हृदयके अज्ञानरूप घोर अन्धकारको दूर कर देते हैं ॥ २१ ॥ इन्हींकी धोवनसे नदियोंमें श्रेष्ठ श्रीगङ्गाजी प्रकट हुई थीं, जिनके पवित्र जलको मस्तकपर धारण करनेके कारण स्वयं मङ्गलरूप श्रीमहादेवजी और भी अधिक मङ्गलमय हो गये। ये अपना ध्यान करनेवालोंके पापरूप पर्वतोंपर छोड़े हुए इन्द्रके वज्रके समान हैं। भगवान्‌के इन चरणकमलोंका चिरकालतक चिन्तन करे ॥ २२ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


शनिवार, 28 जून 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - अट्ठाईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - अट्ठाईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

अष्टाङ्गयोग की विधि

यदा मनः स्वं विरजं योगेन सुसमाहितम् ।
काष्ठां भगवतो ध्यायेत् स्वनासाग्रावलोकनः ॥ १२ ॥
प्रसन्नवदनाम्भोजं पद्मगर्भारुणेक्षणम् ।
नीलोत्पलदलश्यामं शङ्खचक्रगदाधरम् ॥ १३ ॥
लसत्पङ्कज किञ्जल्क पीतकौशेयवाससम् ।
श्रीवत्सवक्षसं भ्राजत् कौस्तुभामुक्तकन्धरम् ॥ १४ ॥
मत्तद्विरेफकलया परीतं वनमालया ।
परार्ध्यहारवलय किरीटाङ्गदनूपुरम् ॥ १५ ॥
काञ्चीगुणोल्लसत् श्रोणिं हृदयाम्भोजविष्टरम् ।
दर्शनीयतमं शान्तं मनोनयन वर्धनम् ॥ १६ ॥
अपीच्यदर्शनं शश्वत् सर्वलोकनमस्कृतम् ।
सन्तं वयसि कैशोरे भृत्यानुग्रहकातरम् ॥ १७ ॥
कीर्तन्यतीर्थयशसं पुण्यश्लोकयशस्करम् ।
ध्यायेद्देवं समग्राङ्गं यावन्न च्यवते मनः ॥ १८ ॥

जब योगका अभ्यास करते-करते चित्त निर्मल और एकाग्र हो जाय, तब नासिकाके अग्रभागमें दृष्टि जमाकर इस प्रकार भगवान्‌की मूर्तिका ध्यान करे ॥ १२ ॥ भगवान्‌ का मुखकमल आनन्द से प्रफुल्ल है, नेत्र कमलकोश के समान रतनारे हैं, शरीर नीलकमलदल के समान श्याम है; हाथों में शङ्ख, चक्र और गदा धारण किये हैं ॥ १३ ॥ कमल की केसर के समान पीला रेशमी वस्त्र लहरा रहा है,वक्ष:स्थल में श्रीवत्सचिह्न है और गले में कौस्तुभमणि झिलमिला रही है॥१४॥ वनमाला चरणोंतक लटकी हुई है, जिसके चारों ओर भौंरे सुगन्धसे मतवाले होकर मधुर गुंजार कर रहे हैं; अङ्ग-प्रत्यङ्ग में महामूल्य हार, कङ्कण, किरीट, भुजबन्ध और नूपुर आदि आभूषण विराजमान हैं ॥१५॥ कमर में करधनी की लडिय़ाँ उसकी शोभा बढ़ा रही हैं; भक्तों के हृदयकमल ही उनके आसन हैं, उनका दर्शनीय श्यामसुन्दर स्वरूप अत्यन्त शान्त एवं मन और नयनों को आनन्दित करनेवाला है ॥१६॥ उनकी अति सुन्दर किशोर अवस्था है,वे भक्तोंपर कृपा करनेके लिये आतुर हो रहे हैं। बड़ी मनोहर झाँकी है। भगवान्‌ सदा सम्पूर्ण लोकोंसे वन्दित हैं ॥१७॥ उनका पवित्र यश परम कीर्तनीय है और वे राजा बलि आदि परम यशस्वियोंके भी यशको बढ़ानेवाले हैं। इस प्रकार श्रीनारायणदेव का सम्पूर्ण अङ्गोंके सहित तब तक ध्यान करे, जब तक चित्त वहाँसे हटे नहीं ॥ १८ ॥ 

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


शुक्रवार, 27 जून 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - अट्ठाईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - अट्ठाईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

अष्टाङ्गयोग की विधि

शुचौ देशे प्रतिष्ठाप्य विजितासन आसनम् ।
तस्मिन् स्वस्ति समासीन ऋजुकायः समभ्यसेत् ॥ ८ ॥
प्राणस्य शोधयेन्मार्गं पूरकुम्भकरेचकैः ।
प्रतिकूलेन वा चित्तं यथा स्थिरं अचञ्चलम् ॥ ९ ॥
मनोऽचिरात्स्याद् विरजं जितश्वासस्य योगिनः ।
वाय्वग्निभ्यां यथा लोहं ध्मातं त्यजति वै मलम् ॥ १० ॥
प्राणायामैः दहेद् दोषान् धारणाभिश्च किल्बिषान् ।
प्रत्याहारेण संसर्गान् ध्यानेनान् ईश्वरान्गुणान् ॥ ११ ॥

पहले आसन को जीते, फिर प्राणायाम के अभ्यास के लिये पवित्र देश में कुश-मृगचर्मादि से युक्त आसन बिछावे । उसपर शरीरको सीधा और स्थिर रखते हुए सुखपूर्वक बैठकर अभ्यास करे॥८॥ आरम्भ में पूरक, कुम्भक और रेचक क्रम से अथवा इसके विपरीत रेचक, कुम्भक और पूरक करके प्राण के मार्ग का शोधन करे—जिससे चित्त स्थिर और निश्चल हो जाय ॥ ९ ॥ जिस प्रकार वायु और अग्नि से तपाया हुआ सोना अपने मल को त्याग देता है, उसी प्रकार जो योगी प्राणवायु को जीत लेता है, उसका मन बहुत शीघ्र शुद्ध हो जाता है ॥ १० ॥ अत: योगी को उचित है कि प्राणायाम से वात-पित्तादिजनित दोषों को, धारणा से पापों को, प्रत्याहार से विषयों के सम्बन्ध को और ध्यान से भगवद्विमुख करनेवाले राग-द्वेषादि दुर्गुणों को दूर करे ॥ ११ ॥

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


गुरुवार, 26 जून 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - अट्ठाईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - अट्ठाईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

अष्टाङ्गयोग की विधि

श्रीभगवानुवाच -
योगस्य लक्षणं वक्ष्ये सबीजस्य नृपात्मजे ।
मनो येनैव विधिना प्रसन्नं याति सत्पथम् ॥ १ ॥
स्वधर्माचरणं शक्त्या विधर्माच्च निवर्तनम् ।
दैवाल्लब्धेन सन्तोष आत्मवित् चरणार्चनम् ॥ २ ॥
ग्राम्यधर्मनिवृत्तिश्च मोक्षधर्मरतिस्तथा ।
मितमेध्यादनं शश्वद् विविक्तक्षेमसेवनम् ॥ ३ ॥
अहिंसा सत्यमस्तेयं यावदर्थपरिग्रहः ।
ब्रह्मचर्यं तपः शौचं स्वाध्यायः पुरुषार्चनम् ॥ ४ ॥
मौनं सदाऽऽसनजयः स्थैर्यं प्राणजयः शनैः ।
प्रत्याहारश्चेन्द्रियाणां विषयान्मनसा हृदि ॥ ५ ॥
स्वधिष्ण्यानां एकदेशे मनसा प्राणधारणम् ।
वैकुण्ठलीलाभिध्यानं समाधानं तथात्मनः ॥ ६ ॥
एतैः अन्यैश्च पथिभिः मनो दुष्टमसत्पथम् ।
बुद्ध्या युञ्जीत शनकैः जितप्राणो ह्यतन्द्रितः ॥ ७ ॥

कपिलभगवान्‌ कहते हैं—माताजी ! अब मैं तुम्हें सबीज (ध्येयस्वरूप के आलम्बन से युक्त) योग का लक्षण बताता हूँ, जिसके द्वारा चित्त शुद्ध एवं प्रसन्न होकर परमात्मा के मार्ग में प्रवृत्त हो जाता है ॥ १ ॥ यथाशक्ति शास्त्रविहित स्वधर्म का पालन करना तथा शास्त्रविरुद्ध आचरण का परित्याग करना, प्रारब्ध के अनुसार जो कुछ मिल जाय उसी में सन्तुष्ट रहना, आत्मज्ञानियों के चरणों की पूजा करना, ॥ २ ॥ विषयवासनाओं को बढ़ानेवाले कर्मों से दूर रहना, संसारबन्धन से छुड़ानेवाले धर्मों में प्रेम करना, पवित्र और परिमित भोजन करना, निरन्तर एकान्त और निर्भय स्थान में रहना, ॥ ३ ॥ मन, वाणी और शरीरसे किसी जीवको न सताना, सत्य बोलना, चोरी न करना, आवश्यकता से अधिक वस्तुओं का संग्रह न करना, ब्रह्मचर्य का पालन करना, तपस्या करना (धर्मपालन के लिये कष्ट सहना), बाहर-भीतर से पवित्र रहना, शास्त्रों का अध्ययन करना, भगवान्‌ की पूजा करना, ॥ ४ ॥ वाणी का संयम करना, उत्तम आसनोंका अभ्यास करके स्थिरतापूर्वक बैठना, धीरे-धीरे प्राणायाम के द्वारा श्वास को जीतना, इन्द्रियों को मन के द्वारा विषयों से हटाकर अपने हृदय में ले जाना ॥ ५ ॥ मूलाधार आदि किसी एक केन्द्रमें मनके सहित प्राणों को स्थिर करना, निरन्तर भगवान्‌ की लीलाओं का चिन्तन और चित्त को समाहित करना,॥ ६ ॥ इनसे तथा व्रत-दानादि दूसरे साधनों से भी सावधानी के साथ प्राणों को जीतकर बुद्धि के द्वारा अपने कुमार्गगामी दुष्ट चित्त को धीरे-धीरे एकाग्र करे, परमात्मा के ध्यान में लगावे ॥ ७ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


बुधवार, 25 जून 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - सत्ताईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०७)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - सत्ताईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०७)

प्रकृति-पुरुषके विवेक से मोक्ष-प्राप्ति का वर्णन

यदैवमध्यात्मरतः कालेन बहुजन्मना ।
सर्वत्र जातवैराग्य आब्रह्मभुवनान्मुनिः ॥ २७ ॥
मद्भतक्तः प्रतिबुद्धार्थो मत्प्रसादेन भूयसा ।
निःश्रेयसं स्वसंस्थानं कैवल्याख्यं मदाश्रयम् ॥ २८ ॥
प्राप्नोतीहाञ्जसा धीरः स्वदृशा च्छिन्नसंशयः ।
यद्गपत्वा न निवर्तेत योगी लिङ्गाद् विनिर्गमे ॥ २९ ॥
यदा न योगोपचितासु चेतो
     मायासु सिद्धस्य विषज्जतेऽङ्ग ।
अनन्यहेतुष्वथ मे गतिः स्याद्
     आत्यन्तिकी यत्र न मृत्युहासः ॥ ३० ॥

(श्रीभगवान्‌ कह रहे हैं) जब मनुष्य अनेकों जन्मों में बहुत समय तक इस प्रकार आत्मचिन्तन में ही निमग्न रहता है, तब उसे ब्रह्मलोक-पर्यन्त सभी प्रकार के भोगों से वैराग्य हो जाता है ॥ २७ ॥ मेरा वह धैर्यवान् भक्त मेरी ही महती कृपासे तत्त्वज्ञान प्राप्त करके आत्मानुभव के द्वारा सारे संशयों से मुक्त हो जाता है और फिर लिङ्गदेह का नाश होने पर एकमात्र मेरे ही आश्रित अपने स्वरूपभूत कैवल्य-संज्ञक मङ्गलमय पद को सहज में ही प्राप्त कर लेता है, जहाँ पहुँचने पर योगी फिर लौटकर नहीं आता ॥ २८-२९ ॥  माताजी ! यदि योगीका चित्त योगसाधना से बढ़ी हुई मायामयी अणिमादि सिद्धियोंमें, जिनकी प्राप्तिका योगके सिवा दूसरा कोई साधन नहीं है, नहीं फँसता, तो उसे मेरा वह अविनाशी परमपद प्राप्त होता है—जहाँ मृत्युकी कुछ भी दाल नहीं गलती ॥ ३० ॥

इति श्रीमद्‌भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
तृतीयस्कन्धे सप्तविंशोऽध्यायः ॥ २७ ॥

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


मंगलवार, 24 जून 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - सत्ताईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - सत्ताईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)

प्रकृति-पुरुषके विवेक से मोक्ष-प्राप्ति का वर्णन

श्रीभगवानुवाच –
अनिमित्तनिमित्तेन स्वधर्मेणामलात्मना ।
तीव्रया मयि भक्त्या च श्रुतसम्भृतया चिरम् ॥ २१ ॥
ज्ञानेन दृष्टतत्त्वेन वैराग्येण बलीयसा ।
तपोयुक्तेन योगेन तीव्रेणात्मसमाधिना ॥ २२ ॥
प्रकृतिः पुरुषस्येह दह्यमाना त्वहर्निशम् ।
तिरोभवित्री शनकैः अग्नेर्योनिरिवारणिः ॥ २३ ॥
भुक्तभोगा परित्यक्ता दृष्टदोषा च नित्यशः ।
नेश्वरस्याशुभं धत्ते स्वे महिम्नि स्थितस्य च ॥ २४ ॥
यथा हि अप्रतिबुद्धस्य प्रस्वापो बह्वनर्थभृत् ।
स एव प्रतिबुद्धस्य न वै मोहाय कल्पते ॥ २५ ॥
एवं विदिततत्त्वस्य प्रकृतिर्मयि मानसम् ।
युञ्जतो नापकुरुत आत्मारामस्य कर्हिचित् ॥ २६ ॥

श्रीभगवान्‌ने कहा—माताजी ! जिस प्रकार अग्नि का उत्पत्तिस्थान अरणि अपने से ही उत्पन्न अग्नि से जलकर भस्म हो जाती है, उसी प्रकार निष्कामभावसे किये हुए स्वधर्मपालनद्वारा अन्त:करण शुद्ध होनेसे बहुत समय तक भगवत्कथा-श्रवणद्वारा पुष्ट हुई मेरी तीव्र भक्ति से, तत्त्वसाक्षात्कार करानेवाले ज्ञान से, प्रबल वैराग्य से, व्रतनियमादि के सहित किये हुए ध्यानाभ्याससे और चित्तकी प्रगाढ़ एकाग्रतासे पुरुषकी प्रकृति (अविद्या) दिन-रात क्षीण होती हुई धीरे-धीरे लीन हो जाती है ॥ २१—२३ ॥ फिर नित्यप्रति दोष दीखनेसे भोगकर त्यागी हुई वह प्रकृति अपने स्वरूप में स्थित और स्वतन्त्र (बन्धनमुक्त) हुए उस पुरुष का कुछ भी नहीं बिगाड़ सकती ॥ २४ ॥ जैसे सोये हुए पुरुष को स्वप्न में कितने ही अनर्थों का  अनुभव करना पड़ता है, किन्तु जग पडऩे पर उसे उन स्वप्न के अनुभवों से किसी प्रकार का मोह नहीं होता ॥२५॥ उसी प्रकार जिसे तत्त्वज्ञान हो गया है और जो निरन्तर मुझ में ही मन लगाये रहता है, उस आत्माराम मुनि का प्रकृति कुछ भी नहीं बिगाड़ सकती ॥ २६ ॥ 

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सोमवार, 23 जून 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - सत्ताईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - सत्ताईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)

प्रकृति-पुरुषके विवेक से मोक्ष-प्राप्ति का वर्णन

देवहूतिरुवाच –

पुरुषं प्रकृतिर्ब्रह्मन् न विमुञ्चति कर्हिचित् ।
अन्योन्यापाश्रयत्वाच्च नित्यत्वाद् अनयोः प्रभो ॥ १७ ॥
यथा गन्धस्य भूमेश्च न भावो व्यतिरेकतः ।
अपां रसस्य च यथा तथा बुद्धेः परस्य च ॥ १८ ॥
अकर्तुः कर्मबन्धोऽयं पुरुषस्य यदाश्रयः ।
गुणेषु सत्सु प्रकृतेः कैवल्यं तेष्वतः कथम् ॥ १९ ॥
क्वचित् तत्त्वावमर्शेन निवृत्तं भयमुल्बणम् ।
अनिवृत्तनिमित्तत्वात् पुनः प्रत्यवतिष्ठते ॥ २० ॥

देवहूतिने पूछा—प्रभो ! पुरुष और प्रकृति दोनों ही नित्य और एक-दूसरे के आश्रयसे रहनेवाले हैं, इसलिये प्रकृति तो पुरुषको कभी छोड़ ही नहीं सकती ॥ १७ ॥ ब्रह्मन् ! जिस प्रकार गन्ध और पृथ्वी तथा रस और जल की पृथक्-पृथक् स्थिति नहीं हो सकती, उसी प्रकार पुरुष और प्रकृति भी एक-दूसरे को छोडक़र नहीं रह सकते ॥ १८ ॥ अत: जिनके आश्रय से अकर्ता पुरुष को यह कर्मबन्धन प्राप्त हुआ है, उन प्रकृतिके गुणों के रहते हुए उसे कैवल्यपद कैसे प्राप्त होगा ? ॥ १९ ॥ यदि तत्त्वोंका विचार करनेसे कभी यह संसारबन्धनका तीव्र भय निवृत्त हो भी जाय, तो भी उसके निमित्तभूत प्राकृत गुणोंका अभाव न होनेसे वह भय फिर उपस्थित हो सकता है ॥ २० ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


रविवार, 22 जून 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - सत्ताईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - सत्ताईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

प्रकृति-पुरुषके विवेक से मोक्ष-प्राप्ति का वर्णन

यथा जलस्थ आभासः स्थलस्थेनावदृश्यते ।
स्वाभासेन तथा सूर्यो जलस्थेन दिवि स्थितः ॥ १२ ॥
एवं त्रिवृद् अहङ्कारो भूतेन्द्रियमनोमयैः ।
स्वाभासैः लक्षितोऽनेन सदाभासेन सत्यदृक् ॥ १३ ॥
भूतसूक्ष्मेन्द्रियमनो बुद्ध्यादिष्विह निद्रया ।
लीनेष्वसति यस्तत्र विनिद्रो निरहङ्‌क्रियः ॥ १४ ॥
मन्यमानस्तदात्मानं अनष्टो नष्टवन्मृषा ।
नष्टेऽहङ्करणे द्रष्टा नष्टवित्त इवातुरः ॥ १५ ॥
एवं प्रत्यवमृश्यादौ आत्मानं प्रतिपद्यते ।
साहङ्कारस्य द्रव्यस्य योऽवस्थानमनुग्रहः ॥ १६ ॥

(श्रीभगवान्‌ कहते हैं )जिस प्रकार जल में पड़ा हुआ सूर्य का प्रतिबिम्ब दीवालपर पड़े हुए अपने आभास के सम्बन्ध से देखा जाता है और जल में दीखनेवाले प्रतिबिम्ब से आकाशस्थित सूर्य का ज्ञान होता है, उसी प्रकार वैकारिक आदि भेद से तीन प्रकार का अहंकार देह, इन्द्रिय और मन में स्थित अपने प्रतिबिम्बों से लक्षित होता है और फिर सत् परमात्मा के प्रतिबिम्बयुक्त उस अहंकार के द्वारा सत्य-ज्ञानस्वरूप परमात्मा का दर्शन होता है—जो सुषुप्ति के समय निद्रा से शब्दादि भूतसूक्ष्म, इन्द्रिय और मनबुद्धि आदि के अव्याकृत में लीन हो जानेपर स्वयं जागता रहता है और सर्वथा अहंकारशून्य है ॥ १२—१४ ॥ (जाग्रत्-अवस्था में यह आत्मा भूतसूक्ष्मादि दृश्यवर्ग के द्रष्टारूप में स्पष्टतया अनुभवमें आता है; किन्तु) सुषुप्ति के समय अपने उपाधिभूत अहंकारका नाश होनेसे वह भ्रमवश अपनेको ही नष्ट हुआ मान लेता है और जिस प्रकार धनका नाश हो जानेपर मनुष्य अपनेको भी नष्ट हुआ मानकर अत्यन्त व्याकुल हो जाता है, उसी प्रकार वह भी अत्यन्त विवश होकर नष्टवत् हो जाता है ॥ १५ ॥ माताजी ! इन सब बातों का मनन करके विवेकी पुरुष अपने आत्मा का अनुभव कर लेता है, जो अहंकार के सहित सम्पूर्ण तत्त्वों का अधिष्ठान और प्रकाशक है ॥ १६ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


शनिवार, 21 जून 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - सत्ताईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - सत्ताईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

प्रकृति-पुरुषके विवेक से मोक्ष-प्राप्ति का वर्णन

यमादिभिः योगपथैः अभ्यसन् श्रद्धयान्वितः ।
मयि भावेन सत्येन मत्कथाश्रवणेन च ॥ ६ ॥
सर्वभूतसमत्वेन निर्वैरेणाप्रसङ्गतः ।
ब्रह्मचर्येण मौनेन स्वधर्मेण बलीयसा ॥ ७ ॥
यदृच्छयोपलब्धेन सन्तुष्टो मितभुङ् मुनिः ।
विविक्तशरणः शान्तो मैत्रः करुण आत्मवान् ॥ ८ ॥
सानुबन्धे च देहेऽस्मिन् अकुर्वन् असदाग्रहम् ।
ज्ञानेन दृष्टतत्त्वेन प्रकृतेः पुरुषस्य च ॥ ९ ॥
निवृत्तबुद्ध्यवस्थानो दूरीभूतान्यदर्शनः ।
उपलभ्यात्मनात्मानं चक्षुषेवार्कमात्मदृक् ॥ १० ॥
मुक्तलिङ्गं सदाभासं असति प्रतिपद्यते ।
सतो बन्धुमसच्चक्षुः सर्वानुस्यूतमद्वयम् ॥ ११ ॥

यमादि योगसाधनोंके द्वारा श्रद्धापूर्वक अभ्यास—चित्तको बारंबार एकाग्र करते हुए मुझमें सच्चा भाव रखने, मेरी कथा श्रवण करने, समस्त प्राणियोंमें समभाव रखने, किसीसे वैर न करने, आसक्तिके त्याग, ब्रह्मचर्य, मौन-व्रत और बलिष्ठ (अर्थात् भगवान्‌को समर्पित किये हुए) स्वधर्मसे जिसे ऐसी स्थिति प्राप्त हो गयी है कि—प्रारब्धके अनुसार जो कुछ मिल जाता है उसीमें सन्तुष्ट रहता है, परिमित भोजन करता है, सदा एकान्तमें रहता है, शान्तस्वभाव है, सबका मित्र है, दयालु और धैर्यवान् है, प्रकृति और पुरुषके वास्तविक स्वरूपके अनुभवसे प्राप्त हुए तत्त्वज्ञानके कारण स्त्री-पुत्रादि सम्बन्धियोंके सहित इस देहमें मैं-मेरेपनका मिथ्या अभिनिवेश नहीं करता, बुद्धिकी जाग्रदादि अवस्थाओंसे भी अलग हो गया है तथा परमात्माके सिवा और कोई वस्तु नहीं देखता—वह आत्मदर्शी मुनि नेत्रोंसे सूर्यको देखने की भाँति अपने शुद्ध अन्त:करणद्वारा परमात्मा का साक्षात्कार कर उस अद्वितीय ब्रह्मपदको प्राप्त हो जाता है, जो देहादि सम्पूर्ण उपाधियोंसे पृथक्, अहंकारादि मिथ्या वस्तुओंमें सत्यरूप से भासनेवाला, जगत्कारणभूता प्रकृतिका अधिष्ठान, महदादि कार्यवर्ग का प्रकाशक और कार्य-कारणरूप सम्पूर्ण पदार्थोंमें व्याप्त है ॥ ६—११ ॥

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - उनतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - उनतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०५) भक्ति का मर्म और काल की महिमा यथा वातरथो घ्राणं आव...