मंगलवार, 23 दिसंबर 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण पंचम स्कन्ध - दसवां अध्याय..(पोस्ट०२)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
पंचम स्कन्ध – दसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

जडभरत और राजा रहूगणकी भेंट

एवं बह्वबद्धमपि भाषमाणं नरदेवाभिमानं रजसा तमसानुविद्धेन मदेन तिरस्कृताशेषभगवत्प्रियनिकेतं पण्डितमानिनं स भगवान्ब्राह्मणो ब्रह्मभूतसर्वभूत सुहृदात्मा योगेश्वरचर्यायां नातिव्युत्पन्नमतिं स्मयमान इव विगतस्मय इदमाह ||८||

ब्राह्मण उवाच
त्वयोदितं व्यक्तमविप्रलब्धं भर्तुः स मे स्याद्यदि वीर भारः
गन्तुर्यदि स्यादधिगम्यमध्वा पीवेति राशौ न विदां प्रवादः ||९||
स्थौल्यं कार्श्यं व्याधय आधयश्च क्षुत्तृड्भयं कलिरिच्छा जरा च
निद्रा रतिर्मन्युरहं मदः शुचो देहेन जातस्य हि मे न सन्ति ||१०||
जीवन्मृतत्वं नियमेन राजनाद्यन्तवद्यद्विकृतस्य दृष्टम्
स्वस्वाम्यभावो ध्रुव ईड्य यत्र तर्ह्युच्यतेऽसौ विधिकृत्ययोगः ||११||
विशेषबुद्धेर्विवरं मनाक्च पश्याम यन्न व्यवहारतोऽन्यत्
क ईश्वरस्तत्र किमीशितव्यं तथापि राजन्करवाम किं ते ||१२||
उन्मत्तमत्तजडवत्स्वसंस्थां गतस्य मे वीर चिकित्सितेन
अर्थः कियान्भवता शिक्षितेन स्तब्धप्रमत्तस्य च पिष्टपेषः ||१३||

रहूगणको राजा होनेका अभिमान था, इसलिये वह इसी प्रकार बहुत-सी अनाप-शनाप बातें बोल गया। वह अपनेको बड़ा पण्डित समझता था, अत: रज-तमयुक्त अभिमानके वशीभूत होकर उसने भगवान्‌के अनन्य प्रीतिपात्र भक्तवर भरतजीका तिरस्कार कर डाला। योगेश्वरोंकी विचित्र कहनी-करनीका तो उसे कुछ पता ही न था। उसकी ऐसी कच्ची बुद्धि देखकर वे सम्पूर्ण प्राणियोंके सुहृद् एवं आत्मा, ब्रह्मभूत ब्राह्मणदेवता मुसकराये और बिना किसी प्रकारका अभिमान किये इस प्रकार कहने लगे ॥ ८ ॥
जडभरतने कहा—राजन् ! तुमने जो कुछ कहा वह यथार्थ है। उसमें कोई उलाहना नहीं है। यदि भार नामकी कोई वस्तु है तो ढोनेवालेके लिये है, यदि कोई मार्ग है तो वह चलनेवालेके लिये है। मोटापन भी उसीका है, यह सब शरीरके लिये कहा जाता है, आत्माके लिये नहीं। ज्ञानीजन ऐसी बात नहीं करते ॥ ९ ॥ स्थूलता, कृशता, आधि, व्याधि, भूख, प्यास, भय, कलह, इच्छा, बुढ़ापा, निद्रा, प्रेम, क्रोध, अभिमान और शोक—ये सब धर्म देहाभिमानको लेकर उत्पन्न होनेवाले जीवमें रहते हैं; मुझमें इनका लेश भी नहीं है ॥ १० ॥ राजन् ! तुमने जो जीने-मरनेकी बात कही—सो जितने भी विकारी पदार्थ हैं, उन सभीमें नियमितरूपसे ये दोनों बातें देखी जाती हैं; क्योंकि वे सभी आदि-अन्तवाले हैं। यशस्वी नरेश ! जहाँ स्वामी-सेवकभाव स्थिर हो, वहीं आज्ञापालनादिका नियम भी लागू हो सकता है ॥ ११ ॥ ‘तुम राजा हो और मैं प्रजा हूँ’ इस प्रकारकी भेदबुद्धिके लिये मुझे व्यवहारके सिवा और कहीं तनिक भी अवकाश नहीं दिखायी देता। परमार्थदृष्टिसे देखा जाय तो किसे स्वामी कहें और किसे सेवक ? फिर भी राजन् ! तुम्हें यदि स्वामित्वका अभिमान है तो कहो, मैं तुम्हारी क्या सेवा करूँ ॥ १२ ॥ वीरवर ! मैं मत्त, उन्मत्त और जडके समान अपनी ही स्थितिमें रहता हूँ। मेरा इलाज करके तुम्हें क्या हाथ लगेगा ? यदि मैं वास्तवमें जड और प्रमादी ही हूँ, तो भी मुझे शिक्षा देना पिसे हुएको पीसनेके समान व्यर्थ ही होगा ॥ १३ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


श्रीमद्भागवतमहापुराण पंचम स्कन्ध - दसवां अध्याय..(पोस्ट०१)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
पंचम स्कन्ध – दसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

जडभरत और राजा रहूगणकी भेंट

श्रीशुक उवाच
अथ सिन्धुसौवीरपते रहूगणस्य व्रजत इक्षुमत्यास्तटे तत्कुलपतिना शिबिकावाहपुरुषान्वेषणसमये दैवेनोपसादितः स द्विजवर उपलब्ध एष पीवा युवा संहननाङ्गो गोखरवद्धुरं वोढुमलमिति पूर्वविष्टिगृहीतैः सह गृहीतः प्रसभमतदर्ह उवाह शिबिकां स महानुभावः ||१||
यदा हि द्विजवरस्येषुमात्रावलोकानुगतेर्न समाहिता पुरुषगतिस्तदा विषमगतां स्वशिबिकां रहूगण उपधार्य पुरुषानधिवहत आह हे वोढारः साध्वतिक्रमत किमिति विषममुह्यते यानमिति ||२||
अथ त ईश्वरवचः सोपालम्भमुपाकर्ण्योपायतुरीयाच्छङ्कितमनसस्तं विज्ञापयां बभूवुः ३
न वयं नरदेव प्रमत्ता भवन्नियमानुपथाः साध्वेव वहामः अयमधुनैव नियुक्तोऽपि न द्रुतं व्रजति नानेन सह वोढुमु ह वयं पारयाम इति ||४||
सांसर्गिको दोष एव नूनमेकस्यापि सर्वेषां सांसर्गिकाणां भवितुमर्हतीति निश्चित्य निशम्य कृपणवचो राजा रहूगण उपासितवृद्धोऽपि निसर्गेण बलात्कृत ईषदुत्थितमन्युरविस्पष्टब्रह्मतेजसं जातवेदसमिव रजसावृतमतिराह ||५||
अहो कष्टं भ्रातर्व्यक्तमुरुपरिश्रान्तो दीर्घमध्वानमेक एव ऊहिवान्सुचिरं नातिपीवा न संहननाङ्गो जरसा चोपद्रुतो भवान्सखे नो एवापर एते सङ्घट्टिन इति बहुविप्रलब्धोऽप्यविद्यया रचितद्रव्य-गुणकर्माशयस्वचरमकलेवरेऽवस्तुनि संस्थानविशेषेऽहं ममेत्यनध्यारोपितमिथ्याप्रत्ययो ब्रह्मभूतस्तूष्णीं शिबिकां पूर्ववदुवाह ||६||
अथ पुनः स्वशिबिकायां विषमगतायां प्रकुपित उवाच रहूगणः किमिदमरे त्वं जीवन्मृतो मां कदर्थीकृत्य भर्तृशासनमतिचरसि प्रमत्तस्य च ते करोमि चिकित्सां दण्डपाणिरिव जनताया यथा प्रकृतिं स्वां भजिष्यस इति ||७||

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—राजन् ! एक बार सिन्धुसौवीर देशका स्वामी राजा रहूगण पालकीपर चढक़र जा रहा था। जब वह इक्षुमती नदीके किनारे पहुँचा तब उसकी पालकी उठानेवाले कहारोंके जमादारको एक कहारकी आवश्यकता पड़ी। कहारकी खोज करते समय दैववश उसे ये ब्राह्मण- देवता मिल गये। इन्हें देखकर उसने सोचा, ‘यह मनुष्य हृष्ट-पुष्ट, जवान और गठीले अङ्गोंवाला है। इसलिये यह तो बैल या गधेके समान अच्छी तरह बोझा ढो सकता है।’ यह सोचकर उसने बेगारमें पकड़े हुए अन्य कहारोंके साथ इन्हें भी बलात् पकडक़र पालकीमें जोड़ दिया। महात्मा भरतजी यद्यपि किसी प्रकार इस कार्यके योग्य नहीं थे, तो भी वे बिना कुछ बोले चुपचाप पालकीको उठा ले चले ॥ १ ॥ वे द्विजवर, कोई जीव पैरोंतले दब न जाय—इस डरसे आगेकी एक बाण पृथ्वी देखकर चलते थे। इसलिये दूसरे कहारोंके साथ उनकी चालका मेल नहीं खाता था; अत: जब पालकी टेढ़ी-सीधी होने लगी, तब यह देखकर राजा रहूगणने पालकी उठानेवालोंसे कहा—‘अरे कहारो ! अच्छी तरह चलो, पालकीको इस प्रकार ऊँची-नीची करके क्यों चलते हो ?’ ॥ २ ॥ तब अपने स्वामीका यह आक्षेपयुक्त वचन सुनकर कहारोंको डर लगा कि कहीं राजा उन्हें दण्ड न दें। इसलिये उन्होंने राजासे इस प्रकार निवेदन किया ॥ ३ ॥ ‘महाराज ! यह हमारा प्रमाद नहीं है, हम आपकी नियममर्यादा के अनुसार ठीक-ठीक ही पालकी ले चल रहे हैं। यह एक नया कहार अभी-अभी पालकी में लगाया गया है, तो भी यह जल्दी-जल्दी नहीं चलता। हमलोग इसके साथ पालकी नहीं ले जा सकते’ ॥ ४ ॥ कहारोंके ये दीन वचन सुनकर राजा रहूगणने सोचा, ‘संसर्गसे उत्पन्न होनेवाला दोष एक व्यक्तिमें होनेपर भी उससे सम्बन्ध रखनेवाले सभी पुरुषोंमें आ सकता है। इसलिये यदि इसका प्रतीकार न किया गया तो धीरे-धीरे ये सभी कहार अपनी चाल बिगाड़ लेंगे।’ ऐसा सोचकर राजा रहूगणको कुछ क्रोध हो आया। यद्यपि उसने महापुरुषोंका सेवन किया था, तथापि क्षत्रियस्वभाव- वश बलात् उसकी बुद्धि रजोगुणसे व्याप्त हो गयी और वह उन द्विजश्रेष्ठसे, जिनका ब्रह्मतेज भस्मसे ढके हुए अग्नि के समान प्रकट नहीं था, इस प्रकार व्यंङ्गसे भरे वचन कहने लगा— ॥ ५ ॥ ‘अरे भैया ! बड़े दु:खकी बात है, अवश्य ही तुम बहुत थक गये हो। ज्ञात होता है, तुम्हारे इन साथियोंने तुम्हें तनिक भी सहारा नहीं लगाया। इतनी दूरसे तुम अकेले ही बड़ी देरसे पालकी ढोते चले आ रहे हो। तुम्हारा शरीर भी तो विशेष मोटा-ताजा और हट्टा-कट्टा नहीं है, और मित्र ! बुढ़ापेने अलग तुम्हें दबा रखा है।’ इस प्रकार बहुत ताना मारनेपर भी वे पहलेकी ही भाँति चुपचाप पालकी उठाये चलते रहे ! उन्होंने इसका कुछ भी बुरा न माना; क्योंकि उनकी दृष्टिमें तो पञ्चभूत, इन्द्रिय और अन्त:करणका सङ्घात यह अपना अन्तिम शरीर अविद्याका ही कार्य था। वह विविध अङ्गोंसे युक्त दिखायी देनेपर भी वस्तुत: था ही नहीं, इसलिये उसमें उनका मैं-मेरेपनका मिथ्या अध्यास सर्वथा निवृत्त हो गया था और वे ब्रह्मरूप हो गये थे ॥ ६ ॥ (किन्तु) पालकी अब भी सीधी चालसे नहीं चल रही है—यह देखकर राजा रहूगण क्रोधसे आग-बबूला हो गया और कहने लगा, ‘अरे ! यह क्या ? क्या तू जीता ही मर गया है ? तू मेरा निरादर करके (मेरी) आज्ञाका उल्लङ्घन कर रहा है ! मालूम होता है, तू सर्वथा प्रमादी है। अरे ! जैसे दण्डपाणि यमराज जन-समुदायको उसके अपराधोंके लिये दण्ड देते हैं, उसी प्रकार मैं भी अभी तेरा इलाज किये देता हूँ। तब तेरे होश ठिकाने आ जायँगे’ ॥ ७ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
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सोमवार, 22 दिसंबर 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण पंचम स्कन्ध - नवां अध्याय..(पोस्ट०३)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
पंचम स्कन्ध – नवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

भरतजीका ब्राह्मणकुलमें जन्म

इति तेषां वृषलानां रजस्तमःप्रकृतीनां धनमदरजौत्सिक्तमनसां भगवत्कलावीरकुलं कदर्थीकृत्योत्पथेन स्वैरं विहरतां हिंसावि-हाराणां कर्मातिदारुणं यद्ब्रह्मभूतस्य साक्षाद्ब्रह्मर्षिसुतस्य निर्वैरस्य सर्वभूतसुहृदः सूनायामप्यननुमतमालम्भनं तदुपलभ्य ब्रह्मतेजसा-तिदुर्विषहेण दन्दह्यमानेन वपुषा सहसोच्चचाट सैव देवी भद्रकाली ||१७||
भृशममर्षरोषावेशरभसविलसितभ्रुकुटिविटपकुटिलदंष्ट्रारुणेक्षणाटोपातिभयानकवदना हन्तुकामेवेदं महाट्टहासमतिसंरम्भेण विमुञ्चन्ती तत उत्पत्य पापीयसां दुष्टानां तेनैवासिना विवृक्णशीर्ष्णां गलात्स्रवन्तमसृगासवमत्युष्णं सह गणेन निपीयातिपानमदविह्वलो-च्चैस्तरां स्वपार्षदैः सह जगौ ननर्त च विजहार च शिरःकन्दुक-लीलया ||१८||
एवमेव खलु महदभिचारातिक्रमः कार्त्स्न्येनात्मने फलति ||९||
न वा एतद्विष्णुदत्त महदद्भुतं यदसम्भ्रमः स्वशिरश्छेदन आपतितेऽपि विमुक्तदेहाद्यात्मभावसुदृढहृदयग्रन्थीनां सर्वसत्त्वसुहृदात्मनां निर्वैराणां साक्षाद्भगवतानिमिषारिवरायुधेनाप्रमत्तेन तैस्तैर्भावैः परिरक्ष्यमाणानां तत्पादमूलमकुतश्चिद्भयमुपसृतानां भागवतपरमहंसानाम् ||२०||

चोर स्वभावसे तो रजोगुणी-तमोगुणी थे ही, धनके मदसे उनका चित्त और भी उन्मत्त हो गया था। हिंसामें भी उनकी स्वाभाविक रुचि थी। इस समय तो वे भगवान्‌के अंशस्वरूप ब्राह्मणकुलका तिरस्कार करके स्वच्छन्दतासे कुमार्गकी ओर बढ़ रहे थे। आपत्तिकालमें भी जिस हिंसाका अनुमोदन किया गया है, उसमें भी ब्राह्मण-वधका सर्वथा निषेध है, तो भी वे साक्षात् ब्रह्मभावको प्राप्त हुए वैरहीन तथा समस्त प्राणियोंके सुहृद् एक ब्रह्मर्षिकुमार की बलि देना चाहते थे। यह भयङ्कर कुकर्म देखकर देवी भद्रकालीके शरीरमें अति दु:सह ब्रह्मतेजसे दाह होने लगा और वे एकाएक मूर्तिको फोडक़र प्रकट हो गयीं ॥ १७ ॥ अत्यन्त असहनशीलता और क्रोधके कारण उनकी भौंहें चढ़ी हुई थीं तथा कराल दाढ़ों और चढ़ी हुई लाल आँखोंके कारण उनका चेहरा बड़ा भयानक जान पड़ता था। उनके उस विकराल वेषको देखकर ऐसा जान पड़ता था मानो वे इस संसारका संहार कर डालेंगी। उन्होंने क्रोधसे तडक़कर बड़ा भीषण अट्टहास किया और उछलकर उस अभिमन्त्रित खड्गसे ही उन सारे पापियोंके सिर उड़ा दिये और अपने गणोंके सहित उनके गलेसे बहता हुआ गरम-गरम रुधिररूप आसव पीकर अति उन्मत्त हो ऊँचे स्वरसे गाती और नाचती हुई उन सिरोंको ही गेंद बनाकर खेलने लगीं ॥ १८ ॥ सच है, महापुरुषोंके प्रति किया हुआ अत्याचाररूप अपराध इसी प्रकार ज्यों-का-त्यों अपने ही ऊपर पड़ता है ॥ १९ ॥ परीक्षित्‌ ! जिनकी देहाभिमानरूप सुदृढ़ हृदयग्रन्थि छूट गयी है, जो समस्त प्राणियोंके सुहृद् एवं आत्मा तथा वैरहीन हैं, साक्षात् भगवान्‌ ही भद्रकाली आदि भिन्न-भिन्न रूप धारण करके अपने कभी न चूकनेवाले कालचक्ररूप श्रेष्ठ शस्त्रसे जिनकी रक्षा करते हैं और जिन्होंने भगवान्‌के निर्भय चरणकमलोंका आश्रय ले रखा है—उन भगवद्भक्त परमहंसोंके लिये अपना सिर कटनेका अवसर आनेपर भी किसी प्रकार व्याकुल न होना—यह कोई बड़े आश्चर्यकी बात नहीं है ॥ २० ॥

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां पञ्चमस्कन्धे जडभरतचरिते नवमोऽध्यायः

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


श्रीमद्भागवतमहापुराण पंचम स्कन्ध - नवां अध्याय..(पोस्ट०२)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
पंचम स्कन्ध – नवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

भरतजीका ब्राह्मणकुलमें जन्म

पितर्युपरते भ्रातर एनमतत्प्रभावविदस्त्रय्यां विद्यायामेव पर्यवसितमतयो न परविद्यायां जडमतिरिति भ्रातुरनुशासननिर्बन्धान्न्यवृत्सन्त ||८||
स च प्राकृतैर्द्विपदपशुभिरुन्मत्तजडबधिरमूकेत्यभिभाष्यमाणो यदा तदनुरूपाणि प्रभाषते कर्माणि च कार्यमाणः परेच्छया करोति विष्टितो वेतनतो वा याच्ञ्या यदृच्छया वोपसादितमल्पं 
बहु मृष्टं कदन्नं वाभ्यवहरति परं नेन्द्रि यप्रीतिनिमित्तम्नित्यनिवृत्तनिमित्तस्वसिद्धविशुद्धानुभवानन्दस्वात्मलाभाधिगमः सुखदुःख-योर्द्वन्द्वनिमित्तयोरसम्भावितदेहाभिमानः ||९||
शीतोष्णवातवर्षेषु वृष इवानावृताङ्गः पीनः संहननाङ्गः स्थण्डिल संवेशनानुन्मर्दनामज्जनरजसा महामणिरिवानभिव्यक्तब्रह्मवर्चसः कुपटावृतकटिरुपवीतेनोरुमषिणा द्विजातिरिति ब्रह्मबन्धुरिति संज्ञयातज्ज्ञजनावमतो विचचार ||१०||
यदा तु परत आहारं कर्मवेतनत ईहमानः स्वभ्रातृभिरपि केदारकर्मणि निरूपितस्तदपि करोति किन्तु न समं विषमं न्यूनमधिकमिति वेद कणपिण्याकफलीकरणकुल्माषस्थालीपुरीषादीन्यप्यमृतवदभ्यवहरति ||११||
अथ कदाचित्कश्चिद्वृषलपतिर्भद्र काल्यै पुरुषपशुमालभतापत्यकामः ||१२||
तस्य ह दैवमुक्तस्य पशोः पदवीं तदनुचराः परिधावन्तो निशि निशीथसमये तमसावृतायामनधिगतपशव आकस्मिकेन विधिना केदारान्वीरासनेन मृगवराहादिभ्यः संरक्षमाणमङ्गिरःप्रवरसुतमपश्यन् ||१३||
अथ त एनमनवद्यक्षणमवमृश्य भर्तृकर्मनिष्पत्तिं मन्यमाना बद्ध्वा रशनया चण्डिकागृहमुपनिन्युर्मुदा विकसितवदनाः ||१४||
अथ पणयस्तं स्वविधिनाभिषिच्याहतेन वाससाच्छाद्य भूषणालेपस्रक्तिलकादिभिरुपस्कृतं भुक्तवन्तं धूपदीपमाल्यलाजकिसलया-ङ्कुरफलोपहारोपेतया वैशससंस्थया महता गीतस्तुतिमृदङ्गपणव-घोषेण च पुरुषपशुं भद्र काल्याः पुरत उपवेशयामासुः ||१५||
अथ वृषलराजपणिः पुरुषपशोरसृगासवेन देवीं भद्र कालीं यक्ष्य-माणस्तदभिमन्त्रितमसिमतिकरालनिशितमुपाददे ||१६||

भरतजीके भाई कर्मकाण्डको सबसे श्रेष्ठ समझते थे। वे ब्रह्मज्ञानरूप पराविद्यासे सर्वथा अनभिज्ञ थे। इसलिये उन्हें भरतजीका प्रभाव भी ज्ञात नहीं था, वे उन्हें निरा मूर्ख समझते थे। अत: पिताके परलोक सिधारनेपर उन्होंने उन्हें पढ़ाने-लिखानेका आग्रह छोड़ दिया ॥ ८ ॥ भरतजीको मानापमानका कोई विचार न था। जब साधारण नर-पशु उन्हें पागल, मूर्ख अथवा बहरा कहकर पुकारते तब वे भी उसीके अनुरूप भाषण करने लगते। कोई भी उनसे कुछ भी काम कराना चाहते, तो वे उनकी इच्छाके अनुसार कर देते। बेगारके रूपमें, मजदूरीके रूपमें, माँगनेपर अथवा बिना माँगे जो भी थोड़ा-बहुत अच्छा या बुरा अन्न उन्हें मिल जाता, उसीको जीभका जरा भी स्वाद न देखते हुए खा लेते। अन्य किसी कारणसे उत्पन्न न होनेवाला स्वत:सिद्ध केवल ज्ञानानन्दस्वरूप आत्मज्ञान उन्हें प्राप्त हो गया था; इसलिये शीतोष्ण, मानापमान आदि द्वन्द्वोंसे होनेवाले सुख- दु:खादिमें उन्हें देहाभिमानकी स्फूर्ति नहीं होती थी ॥ ९ ॥ वे सर्दी, गरमी, वर्षा और आँधीके समय साँडक़े समान नंगे पड़े रहते थे। उनके सभी अङ्ग हृष्ट-पुष्ट एवं गठे हुए थे। वे पृथ्वीपर ही पड़े रहते थे, कभी तेल-उबटन आदि नहीं लगाते थे और न कभी स्नान ही करते थे, इससे उनके शरीरपर मैल जम गयी थी। उनका ब्रह्मतेज धूलिसे ढके हुए मूल्यवान् मणिके समान छिप गया था। वे अपनी कमरमें एक मैला-कुचैला कपड़ा लपेटे रहते थे। उनका यज्ञोपवीत भी बहुत ही मैला हो गया था। इसलिये अज्ञानी जनता ‘यह कोई द्विज है’, ‘कोई अधम ब्राह्मण है’ ऐसा कहकर उनका तिरस्कार कर दिया करती थी, किन्तु वे इसका कोई विचार न करके स्वच्छन्द विचरते थे ॥ १० ॥ दूसरोंकी मजदूरी करके पेट पालते देख जब उन्हें उनके भाइयोंने खेतकी क्यारियाँ ठीक करनेमें लगा दिया तब वे उस कार्यको भी करने लगे। परंतु उन्हें इस बातका कुछ भी ध्यान न था कि उन क्यारियोंकी भूमि समतल है या ऊँची-नीची, अथवा वह छोटी है या बड़ी। उनके भाई उन्हें चावलकी कनी, खली, भूसी, घुने हुए उड़द अथवा बरतनोंमें लगी हुई जले अन्नकी खुरचन—जो कुछ भी दे देते, उसीको वे अमृतके समान खा लेते थे ॥ ११ ॥
किसी समय डाकुओंके सरदारने, जिसके सामन्त शूद्र जातिके थे, पुत्रकी कामनासे भद्रकालीको मनुष्यकी बलि देनेका संकल्प किया ॥ १२ ॥ उसने जो पुरुष-पशु बलि देनेके लिये पकड़ मँगाया था, वह दैववश उसके फंदेसे निकलकर भाग गया। उसे ढूँढऩेके लिये उसके सेवक चारों ओर दौड़े; किन्तु अँधेरी रातमें आधी रातके समय कहीं उसका पता न लगा। इसी समय दैवयोगसे अकस्मात् उनकी दृष्टि इन आङ्गिरसगोत्रीय ब्राह्मणकुमारपर पड़ी, जो वीरासनसे बैठे हुए मृग-वराहादि जीवोंसे खेतोंकी रखवाली कर रहे थे ॥ १३ ॥ उन्हेंने देखा कि यह पशु तो बड़े अच्छे लक्षणोंवाला है, इससे हमारे स्वामीका कार्य अवश्य सिद्ध हो जायगा। यह सोचकर उनका मुख आनन्दसे खिल उठा और वे उन्हें रस्सियोंसे बाँधकर चण्डिकाके मन्दिरमें ले आये ॥ १४ ॥
तदनन्तर उन चोरोंने अपनी पद्धतिके अनुसार विधिपूर्वक उनको अभिषेक एवं स्नान कराकर कोरे वस्त्र पहनाये तथा नाना प्रकारके आभूषण, चन्दन, माला और तिलक आदिसे विभूषित कर अच्छी तरह भोजन कराया। फिर धूप, दीप, माला, खील, पत्ते, अङ्कुर और फल आदि उपहार-सामग्रीके सहित बलिदानकी विधिसे गान, स्तुति और मृदङ्ग एवं ढोल आदिका महान् शब्द करते उस पुरुष-पशुको भद्रकालीके सामने नीचा सिर कराके बैठा दिया ॥ १५ ॥ इसके पश्चात् दस्युराजके पुरोहित बने हुए लुटेरेने उस नर-पशुके रुधिरसे देवीको तृप्त करनेके लिये देवीमन्त्रोंसे अभिमन्त्रित एक तीक्ष्ण खड्ग उठाया ॥ १६ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


रविवार, 21 दिसंबर 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण पंचम स्कन्ध - नवां अध्याय..(पोस्ट०१)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
पंचम स्कन्ध – नवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

भरतजीका ब्राह्मणकुलमें जन्म

श्रीशुक उवाच
अथ कस्यचिद्द्विजवरस्याङ्गिरःप्रवरस्य शमदमतपः स्वाध्यायाध्ययनत्यागसन्तोषतितिक्षाप्रश्रयविद्यानसूयात्मज्ञानानन्दयुक्तस्यात्मस-दृशश्रुतशीलाचाररूपौदार्यगुणा नव सोदर्या अङ्गजा बभूवुर्मिथुनं च यवीयस्यां भार्यायाम् ||१|| यस्तु तत्र पुमांस्तं परमभागवतं राजर्षिप्रवरं भरतमुत्सृष्टमृगशरीरं चरमशरीरेण विप्रत्वं गतमाहुः ||२||
तत्रापि स्वजनसङ्गाच्च भृशमुद्विजमानो भगवतः कर्मबन्धविध्वंसनश्रवणस्मरणगुणविवरणचरणारविन्दयुगलं मनसा विदधदात्मनः प्रतिघातमाशङ्कमानो भगवदनुग्रहेणानुस्मृतस्वपूर्वजन्मावलिरात्मानमुन्मत्तजडान्धबधिरस्वरूपेण दर्शयामास लोकस्य ||३||
तस्यापि ह वा आत्मजस्य विप्रः पुत्रस्नेहानुबद्धमना आसमावर्तना-त्संस्कारान्यथोपदेशं विदधान उपनीतस्य च पुनः शौचाचमनादीन्कर्मनियमाननभिप्रेतानपि समशिक्षयदनुशिष्टेन हि भाव्यं पितुः पुत्रेणेति ||४||
स चापि तदु ह पितृसन्निधावेवासध्रीचीनमिव स्म करोति छन्दांस्यध्यापयिष्यन्सह व्याहृतिभिः सप्रणवशिरस्त्रिपदीं सावित्रीं ग्रैष्म-वासन्तिकान्मासानधीयानमप्यसमवेतरूपं ग्राहयामास ||५||
एवं स्वतनुज आत्मन्यनुरागावेशितचित्तः शौचाध्ययनव्रतनियमगुर्वनलशुश्रूषणाद्यौपकुर्वाणककर्माण्यनभियुक्तान्यपि समनुशिष्टेन भाव्यमित्यसदाग्रहः पुत्रमनुशास्य स्वयं तावदनधिगतमनोरथः कालेनाप्रमत्तेन स्वयं गृह एव प्रमत्त उसंहृतः ||६||
अथ यवीयसी द्विजसती स्वगर्भजातं मिथुनं सपत्न्या उपन्यस्य स्वयमनुसंस्थया पतिलोकमगात् ||७||

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—राजन् ! आङ्गिरस गोत्रमें शम, दम, तप, स्वाध्याय, वेदाध्ययन, त्याग (अतिथि आदिको अन्न देना), सन्तोष, तितिक्षा, विनय, विद्या (कर्मविद्या), अनसूया (दूसरोंके गुणोंमें दोष न ढूँढऩा), आत्मज्ञान (आत्माके कर्तृत्व और भोक्तृत्वका ज्ञान) एवं आनन्द (धर्मपालनजनित सुख) सभी गुणोंसे सम्पन्न एक श्रेष्ठ ब्राह्मण थे। उनकी बड़ी स्त्रीसे उन्हींके समान विद्या, शील, आचार, रूप और उदारता आदि गुणोंवाले नौ पुत्र हुए तथा छोटी पत्नीसे एक ही साथ एक पुत्र और एक कन्याका जन्म हुआ ॥ १ ॥ इन दोनोंमें जो पुरुष था वह परम भागवत राजर्षिशिरोमणि भरत ही थे। वे मृगशरीरका परित्याग करके अन्तिम जन्ममें ब्राह्मण हुए थे—ऐसा महापुरुषोंका कथन है ॥ २ ॥ इस जन्ममें भी भगवान्‌की कृपासे अपनी पूर्व-जन्मपरम्पराका स्मरण रहनेके कारण, वे इस आशङ्कासे कि कहीं फिर कोई विघ्र उपस्थित न हो जाय, अपने स्वजनोंके सङ्गसे भी बहुत डरते थे। हर समय जिनका श्रवण, स्मरण और गुणकीर्तन सब प्रकारके कर्मबन्धनको काट देता है, श्रीभगवान्‌के उन युगल चरणकमलोंको ही हृदयमें धारण किये रहते तथा दूसरोंकी दृष्टिमें अपनेको पागल, मूर्ख, अंधे और बहरेके समान दिखाते ॥ ३ ॥ पिताका तो उनमें भी वैसा ही स्नेह था। इसलिये ब्राह्मणदेवताने अपने पागल पुत्रके भी शास्त्रानुसार समावर्तनपर्यन्त विवाहसे पूर्वके सभी संस्कार करनेके विचारसे उनका उपनयनसंस्कार किया। यद्यपि वे चाहते नहीं थे तो भी ‘पिताका कर्तव्य है कि पुत्रको शिक्षा दे’ इस शास्त्रविधिके अनुसार उन्होंने इन्हें शौच-आचमन आदि आवश्यक कर्मोंकी शिक्षा दी ॥ ४ ॥ किन्तु भरतजी तो पिताके सामने ही उनके उपदेशके विरुद्ध आचरण करने लगते थे। पिता चाहते थे कि वर्षाकालमें इसे वेदाध्ययन आरम्भ करा दूँ। किन्तु वसन्त और ग्रीष्मऋतुके चैत्र, वैशाख, ज्येष्ठ और आषाढ़—चार महीनोंतक पढ़ाते रहनेपर भी वे इन्हें व्याहृति और शिरोमन्त्र प्रणवके सहित त्रिपदा गायत्री भी अच्छी तरह याद न करा सके ॥ ५ ॥
ऐसा होनेपर भी अपने इस पुत्रमें उनका आत्माके समान अनुराग था। इसलिये उसकी प्रवृत्ति न होनेपर भी वे ‘पुत्रको अच्छी तरह शिक्षा देनी चाहिये’ इस अनुचित आग्रहसे उसे शौच, वेदाध्ययन, व्रत, नियम तथा गुरु और अग्रिकी सेवा आदि ब्रह्मचर्याश्रमके आवश्यक नियमोंकी शिक्षा देते ही रहे। किन्तु अभी पुत्रको सुशिक्षित देखनेका उनका मनोरथ पूरा न हो पाया था और स्वयं भी भगवद्भजनरूप अपने मुख्य कर्तव्यसे असावधान रहकर केवल घरके धंधोंमें ही व्यस्त थे कि सदा सजग रहनेवाले कालभगवान्‌ने आक्रमण करके उनका अन्त कर दिया ॥ ६ ॥ तब उनकी छोटी भार्या अपने गर्भसे उत्पन्न हुए दोनों बालक अपनी सौतको सौंपकर स्वयं सती होकर पतिलोकको चली गयी ॥ ७ ॥

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श्रीमद्भागवतमहापुराण पंचम स्कन्ध - आठवां अध्याय..(पोस्ट०७)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
पंचम स्कन्ध – आठवाँ अध्याय..(पोस्ट०७)

भरतजीका मृगके मोहमें फँसकर मृग-योनिमें जन्म लेना

तत्रापि ह वा आत्मनो मृगत्वकारणं भगवदाराधनसमीहानुभावेनानुस्मृत्य भृशमनुतप्यमान आह ||२८||
अहो कष्टं भ्रष्टोऽहमात्मवतामनुपथाद्यद्विमुक्तसमस्तसङ्गस्य विवि-क्तपुण्यारण्यशरणस्यात्मवत आत्मनि सर्वेषामात्मनां भगवति वासुदेवे तदनुश्रवणमननसङ्कीर्तनाराधनानुस्मरणाभियोगेनाशून्यसकलयामेन कालेन समावेशितं समाहितं कार्त्स्न्येन मनस्तत्तु पुनर्ममाबुधस्यारान्मृगसुतमनु परिसुस्राव ||२९||
इत्येवं निगूढनिर्वेदो विसृज्य मृगीं मातरं पुनर्भगवत्क्षेत्रमुपशमशीलमुनिगणदयितं शालग्रामं पुलस्त्यपुलहाश्रमं कालञ्जरात्प्रत्याज-गाम ||३०||
तस्मिन्नपि कालं प्रतीक्षमाणः सङ्गाच्च भृशमुद्विग्न आत्मसहचरः शुष्कपर्णतृणवीरुधा वर्तमानो मृगत्वनिमित्तावसानमेव गणयन्मृगशरीरं तीर्थोदकक्लिन्नमुत्ससर्ज ||३१||

उस योनिमें भी पूर्वजन्मकी भगवदाराधनाके प्रभावसे अपने मृगरूप होनेका कारण जानकर वे अत्यन्त पश्चात्ताप करते हुए कहने लगे, ॥ २८ ॥ ‘अहो ! बड़े खेदकी बात है, मैं संयमशील महानुभावोंके मार्गसे पतित हो गया ! मैंने तो धैर्यपूर्वक सब प्रकारकी आसक्ति छोडक़र एकान्त और पवित्र वनका आश्रय लिया था। वहाँ रहकर जिस चित्तको मैंने सर्वभूतात्मा श्रीवासुदेवमें, निरन्तर उन्हींके गुणोंका श्रवण, मनन और सङ्कीर्तन करके तथा प्रत्येक पलको उन्हींकी आराधना और स्मरणादिसे सफल करके, स्थिरभावसे पूर्णतया लगा दिया था, मुझ अज्ञानीका वही मन अकस्मात् एक नन्हें-से हरिण-शिशुके पीछे अपने लक्ष्यसे च्युत हो गया !’ ॥ २९ ॥
इस प्रकार मृग बने हुए राजर्षि भरतके हृदयमें जो वैराग्य-भावना जाग्रत् हुई, उसे छिपाये रखकर उन्होंने अपनी माता मृगीको त्याग दिया और अपनी जन्मभूमि कालञ्जर पर्वतसे वे फिर शान्तस्वभाव मुनियोंके प्रिय उसी शालग्रामतीर्थमें, जो भगवान्‌का क्षेत्र है, पुलस्त्य और पुलह ऋषिके आश्रमपर चले आये ॥ ३० ॥ वहाँ रहकर भी वे कालकी ही प्रतीक्षा करने लगे। आसक्तिसे उन्हें बड़ा भय लगने लगा था। बस, अकेले रहकर वे सूखे पत्ते, घास और झाडिय़ोंद्वारा निर्वाह करते मृगयोनिकी प्राप्ति करानेवाले प्रारब्धके क्षयकी बाट देखते रहे। अन्तमें उन्होंने अपने शरीरका आधा भाग गंडकीके जलमें डुबाये रखकर उस मृगशरीरको छोड़ दिया ॥ ३१ ॥

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां पञ्चमस्कन्धे भरतचरितेऽष्टमोऽध्यायः

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शनिवार, 20 दिसंबर 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण पंचम स्कन्ध - आठवां अध्याय..(पोस्ट०६)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
पंचम स्कन्ध – आठवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)

भरतजीका मृगके मोहमें फँसकर मृग-योनिमें जन्म लेना

विभ्रंशितः स योगतापसो भगवदाराधनलक्षणाच्च कथमितरथा जात्यन्तर एणकुणक आसङ्गः साक्षान्निःश्रेयसप्रतिपक्षतया प्राक्परित्यक्तदुस्त्यजहृदयाभिजातस्य तस्यैवमन्तरायविहतयोगारम्भणस्य राजर्षेर्भरतस्य तावन्मृगार्भकपोषणपालनप्रीणनलालनानुषङ्गेणाविगणयत आत्मानमहिरिवाखुबिलं दुरतिक्रमः कालः करालरभस आपद्यत ||२६||
तदानीमपि पार्श्ववर्तिनमात्मजमिवानुशोचन्तमभिवीक्षमाणो मृग एवाभिनिवेशितमना विसृज्य लोकमिमं सह मृगेण कलेवरं मृतमनु न मृतजन्मानुस्मृतिरितरवन्मृगशरीरमवाप ||२७||

(शुकदेवजी कह रहे हैं) राजन् ! इस प्रकार जिनका पूरा होना सर्वथा असम्भव था, उन विविध मनोरथोंसे भरतका चित्त व्याकुल रहने लगा। अपने मृगशावकके रूपमें प्रतीत होनेवाले प्रारब्धकर्मके कारण तपस्वी भरतजी भगवदाराधनरूप कर्म एवं योगानुष्ठानसे च्युत हो गये। नहीं तो, जिन्होंने मोक्षमार्गमें साक्षात् विघ्नरूप समझकर अपने ही हृदयसे उत्पन्न दुस्त्यज पुत्रादिको भी त्याग दिया था, उन्हींकी अन्यजातीय हरिणशिशु में ऐसी आसक्ति कैसे हो सकती थी। इस प्रकार राजर्षि भरत विघ्रोंके वशीभूत होकर योगसाधनसे भ्रष्ट हो गये और उस मृगछौनेके पालन-पोषण और लाड़-प्यारमें ही लगे रहकर आत्मस्वरूपको भूल गये। इसी समय जिसका टलना अत्यन्त कठिन है, वह प्रबल वेगशाली कराल काल, चूहेके बिलमें जैसे सर्प घुस आये, उसी प्रकार उनके सिरपर चढ़ आया ॥ २६ ॥ उस समय भी वह हरिणशावक उनके पास बैठा पुत्रके समान शोकातुर हो रहा था। वे उसे इस स्थितिमें देख रहे थे और उनका चित्त उसीमें लग रहा था। इस प्रकारकी आसक्तिमें ही मृगके साथ उनका शरीर भी छूट गया। तदनन्तर उन्हें अन्तकालकी भावनाके अनुसार अन्य साधारण पुरुषोंके समान मृगशरीर ही मिला। किन्तु उनकी साधना पूरी थी, इससे उनकी पूर्वजन्मकी स्मृति नष्ट नहीं हुई ॥ २७ ॥ 

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श्रीमद्भागवतमहापुराण पंचम स्कन्ध - आठवां अध्याय..(पोस्ट०५)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
पंचम स्कन्ध – आठवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)

भरतजीका मृगके मोहमें फँसकर मृग-योनिमें जन्म लेना

किं वा अरे आचरितं तपस्तपस्विन्यानया यदियमवनिः सविनयकृष्णसारतनयतनुतरसुभगशिवतमाखरखुरपदपङ्क्तिभिर्द्रविणविधुरातुरस्य कृपणस्य मम द्रविणपदवीं सूचयन्त्यात्मानं च सर्वतः कृतकौतुकं द्विजानां स्वर्गापवर्गकामानां देवयजनं करोति ||२३||
अपि स्विदसौ भगवानुडुपतिरेनं मृगपतिभयान्मृतमातरं मृगबालकं स्वाश्रमपरिभ्रष्टमनुकम्पया कृपणजनवत्सलः परिपाति ||२४||
किं वात्मजविश्लेषज्वरदवदहनशिखाभिरुपतप्यमानहृदयस्थलनलिनीकं मामुपसृतमृगीतनयं शिशिरशान्तानुरागगुणितनिजवदनसलिलामृतमयगभस्तिभिः स्वधयतीति च एवमघटमानमनोरथाकुलहृदयो मृगदारकाभासेन स्वारब्धकर्मणा योगारम्भणतो ||२५||

 [फिर पृथ्वीपर उस मृगशावक के खुरके चिह्न देखकर भारत जी कहने लगते—] ‘अहो ! इस तपस्विनी धरतीने ऐसा कौन-सा तप किया है जो उस अतिविनीत कृष्ण-सारकिशोरके छोटे-छोटे सुन्दर, सुखकारी और सुकोमल खुरोंवाले चरणोंके चिह्नोंसे मुझे, जो मैं अपना मृगधन लुट जानेसे अत्यन्त व्याकुल और दीन हो रहा हूँ, उस द्रव्यकी प्राप्तिका मार्ग दिखा रही है और स्वयं अपने शरीरको भी सर्वत्र उन पदचिह्नोंसे विभूषित कर स्वर्ग और अपवर्गके इच्छुक द्विजोंके लिये यज्ञस्थल[*] बना रही है’ ॥ २३ ॥ (चन्द्रमामें मृगका-सा श्याम चिह्न देख उसे अपना ही मृग मानकर कहने लगते—) ‘अहो ! जिसकी माता सिंहके भयसे मर गयी थी, आज वही मृगशिशु अपने आश्रमसे बिछुड़ गया है। अत: उसे अनाथ देखकर क्या ये दीनवत्सल भगवान्‌ नक्षत्रनाथ दयावश उसकी रक्षा कर रहे हैं ? ॥ २४ ॥ [फिर उसकी शीतल किरणोंसे आह्लादित होकर कहने लगते—] ‘अथवा अपने पुत्रोंके वियोगरूप दावानलकी विषम ज्वालासे हृदयकमल दग्ध हो जानेके कारण मैंने एक मृग- बालकका सहारा लिया था। अब उसके चले जानेसे फिर मेरा हृदय जलने लगा है; इसलिये ये अपनी शीतल, शान्त, स्नेहपूर्ण और वदनसलिलरूपा अमृतमयी किरणोंसे मुझे शान्त कर रहे हैं’ ॥ २५ ॥
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[*] शास्त्रोंमें उल्लेख आता है कि जिस भूमिमें कृष्णमृग विचरते हैं, वह अत्यन्त पवित्र और यज्ञानुष्ठानके योग्य होती है।

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शुक्रवार, 19 दिसंबर 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण पंचम स्कन्ध - आठवां अध्याय..(पोस्ट०४)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
पंचम स्कन्ध – आठवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

भरतजीका मृगके मोहमें फँसकर मृग-योनिमें जन्म लेना

अन्यदा भृशमुद्विग्नमना नष्टद्रविण इव कृपणः सकरुणमतितर्षेण हरिणकुणकविरहविह्वलहृदयसन्तापस्तमेवानुशोचन्किल कश्मलं महदभिरम्भित इति होवाच ||१५||
अपि बत स वै कृपण एणबालको मृतहरिणीसुतोऽहो ममानार्यस्य शठकिरातमतेरकृतसुकृतस्य कृतविस्रम्भ आत्मप्रत्ययेन तदविगणयन्सुजन इवागष्यिति ||१६||
अपि क्षेमेणास्मिन्नाश्रमोपवने शष्पाणि चरन्तं देवगुप्तं द्रक्ष्यामि ||१७||
अपि च न वृकः सालावृकोऽन्यतमो वा नैकचर एकचरो वा भक्षयति ||१८||
निम्लोचति ह भगवान्सकलजगत्क्षेमोदयस्त्रय्यात्माद्यापि मम न मृगवधून्यास आगच्छति ||१९||
अपि स्विदकृतसुकृतमागत्य मां सुखयिष्यति हरिणराजकुमारो विविधरुचिरदर्शनीयनिजमृगदारकविनोदैरसन्तोषं स्वानामपनुदन् ||२०||
क्ष्वेलिकायां मां मृषासमाधिनामीलितदृशं प्रेमसंरम्भेण चकितचकित आगत्य पृषद् अपरुषविषाणाग्रेण लुठति ||२१||
आसादितहविषि बर्हिषि दूषिते मयोपालब्धो भीतभीतः सपद्युपरतरास ऋषिकुमारवदवहितकरणकलाप आस्ते ||२२||

कभी यदि वह (हरिन के बच्चा) दिखायी न देता तो जिसका धन लुट गया हो, उस दीन मनुष्यके समान उनका चित्त अत्यन्त उद्विग्न हो जाता और फिर वे उस हरिनीके बच्चेके विरहसे व्याकुल एवं सन्तप्त हो करुणावश अत्यन्त उत्कण्ठित एवं मोहाविष्ट हो जाते तथा शोकमग्र होकर इस प्रकार कहने लगते ॥ १५ ॥ ‘अहो ! क्या कहा जाय ? क्या वह मातृहीन दीन मृगशावक दुष्ट बहेलियेकी-सी बुद्धिवाले मुझ पुण्यहीन अनार्यका विश्वास करके और मुझे अपना मानकर मेरे किये हुए अपराधोंको सत्पुरुषोंके समान भूलकर फिर लौट आयेगा ? ॥ १६ ॥ क्या मैं उसे फिर इस आश्रमके उपवनमें भगवान्‌की कृपासे सुरक्षित रहकर निर्विघ्र हरी-हरी दूब चरते देखूँगा ? ॥ १७ ॥ ऐसा न हो कि कोई भेडिय़ा, कुत्ता, गोल बाँधकर विचरनेवाले सूकरादि अथवा अकेले घूमनेवाले व्याघ्रादि ही उसे खा जायँ ॥ १८ ॥ अरे ! सम्पूर्ण जगत् की  कुशल के लिये प्रकट होनेवाले वेदत्रयीरूप भगवान्‌ सूर्य अस्त होना चाहते हैं; किन्तु अभीतक वह मृगीकी धरोहर लौटकर नहीं आयी ! ॥ १९ ॥ क्या वह हरिणराजकुमार मुझ पुण्यहीनके पास आकर अपनी भाँति-भाँतिकी मृगशावकोचित मनोहर एवं दर्शनीय क्रीडाओंसे अपने स्वजनोंका शोक दूर करते हुए मुझे आनन्दित करेगा ? ॥ २० ॥ अहो ! जब कभी मैं प्रणयकोपसे खेलमें झूठ-मूठ समाधिके बहाने आँखें मूँदकर बैठ जाता, तब वह चकित चित्तसे मेरे पास आकर जलबिन्दुके समान कोमल और नन्हें-नन्हें सींगोंकी नोकसे किस प्रकार मेरे अङ्गोंको खुजलाने लगता था ॥ २१ ॥ मैं कभी कुशोंपर हवन सामग्री रख देता और वह उन्हें दाँतोंसे खींचकर अपवित्र कर देता तो मेरे डाँटने-डपटनेपर वह अत्यन्त भयभीत होकर उसी समय सारी उछल-कूद छोड़ देता और ऋषिकुमारके समान अपनी समस्त इन्द्रियोंको रोककर चुपचाप बैठ जाता था’ ॥ २२ ॥

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श्रीमद्भागवतमहापुराण पंचम स्कन्ध - आठवां अध्याय..(पोस्ट०३)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
पंचम स्कन्ध – आठवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

भरतजीका मृगके मोहमें फँसकर मृग-योनिमें जन्म लेना

इति कृतानुषङ्ग आसनशयनाटनस्नानाशनादिषु सह मृगजहुना स्नेहानुबद्धहृदय आसीत् ||११||
कुशकुसुमसमित्पलाशफलमूलोदकान्याहरिष्यमाणो वृकसालावृकादिभ्यो भयमाशंसमानो यदा सह हरिणकुणकेन वनं समा-विशति ||१२||
पथिषु च मुग्धभावेन तत्र तत्र विषक्तमतिप्रणयभरहृदयः कार्पण्यात्स्कन्धेनोद्वहति एवमुत्सङ्ग उरसि चाधायोपलालयन्मुदं परमामवाप ||१३||
क्रियायां निर्वर्त्यमानायामन्तरालेऽप्युत्थायोत्थाय यदैनमभिचक्षीत तर्हि वाव स वर्षपतिः प्रकृतिस्थेन मनसा तस्मा आशिष आशास्ते स्वस्ति स्ताद्वत्स ते सर्वत इति ||१४||

इस प्रकार उस हरिन के बच्चे में आसक्ति बढ़ जाने से बैठते, सोते, टहलते, ठहरते और भोजन करते समय भी उनका चित्त उसके स्नेहपाशमें बँधा रहता था ॥ ११ ॥ जब उन्हें कुश, पुष्प, समिधा, पत्र और फल-मूलादि लाने होते तो भेडिय़ों और कुत्तोंके भयसे उसे वे साथ लेकर ही वनमें जाते ॥ १२ ॥ मार्गमें जहाँ-तहाँ कोमल घास आदिको देखकर मुग्धभावसे वह हरिणशावक अटक जाता तो वे अत्यन्त प्रेमपूर्ण हृदयसे दयावश उसे अपने कंधेपर चढ़ा लेते। इसी प्रकार कभी गोदमें लेकर और कभी छातीसे लगाकर उसका दुलार करनेमें भी उन्हें बड़ा सुख मिलता ॥१३॥ नित्य- नैमित्तिक कर्मोंको करते समय भी राजराजेश्वर भरत बीच-बीचमें उठ-उठकर उस मृगबालकको देखते और जब उसपर उनकी दृष्टि पड़ती, तभी उनके चित्तको शान्ति मिलती। उस समय उसके लिये मङ्गलकामना करते हुए वे कहने लगते—‘बेटा ! तेरा सर्वत्र कल्याण हो’ ॥ १४ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


श्रीमद्भागवतमहापुराण पंचम स्कन्ध - तेरहवां अध्याय..(पोस्ट०१)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  पंचम स्कन्ध – तेरहवाँ अध्याय..(पोस्ट०१) भवाटवीका वर्णन और रहूगणका संशयनाश ब्राह्मण उवाच दुरत...