॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
चतुर्थ स्कन्ध – पंद्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)
महाराज पृथुका आविर्भाव और राज्याभिषेक
पृथुरुवाच –
भोः सूत हे मागध सौम्य वन्दिन्
लोकेऽधुनास्पष्टगुणस्य मे स्यात् ।
किमाश्रयो मे स्तव एष योज्यतां
मा मय्यभूवन् वितथा गिरो वः ॥ २२ ॥
तस्मात्परोक्षेऽस्मदुपश्रुतान्यलं
करिष्यथ स्तोत्रमपीच्यवाचः ।
सत्युत्तमश्लोकगुणानुवादे
जुगुप्सितं न स्तवयन्ति सभ्याः ॥ २३ ॥
महद्गु्णानात्मनि कर्तुमीशः
कः स्तावकैः स्तावयतेऽसतोऽपि ।
तेऽस्याभविष्यन् इति विप्रलब्धो
जनावहासं कुमतिर्न वेद ॥ २४ ॥
प्रभवो ह्यात्मनः स्तोत्रं जुगुप्सन्त्यपि विश्रुताः ।
ह्रीमन्तः परमोदाराः पौरुषं वा विगर्हितम् ॥ २५ ॥
वयं तु अविदिता लोके सूताद्यापि वरीमभिः ।
कर्मभिः कथमात्मानं गापयिष्याम बालवत् ॥ २६ ॥
पृथुने कहा—सौम्य सूत, मागध और वन्दीजन ! अभी तो लोकमें मेरा कोई भी गुण प्रकट नहीं हुआ। फिर तुम किन गुणोंको लेकर मेरी स्तुति करोगे ? मेरे विषयमें तुम्हारी वाणी व्यर्थ नहीं होनी चाहिये। इसलिये मुझसे भिन्न किसी औरकी स्तुति करो ॥ २२ ॥ मृदुभाषियो ! कालान्तरमें जब मेरे अप्रकट गुण प्रकट हो जायँ, तब भरपेट अपनी मधुर वाणीसे मेरी स्तुति कर लेना। देखो, शिष्ट पुरुष पवित्रकीर्ति श्रीहरिके गुणानुवादके रहते हुए तुच्छ मनुष्योंकी स्तुति नहीं किया करते ॥ २३ ॥ महान् गुणोंको धारण करनेमें समर्थ होनेपर भी ऐसा कौन बुद्धिमान् पुरुष है, जो उनके न रहनेपर भी केवल सम्भावनामात्रसे स्तुति करनेवालोंद्वारा अपनी स्तुति करायेगा ? यदि यह विद्याभ्यास करता तो इसमें अमुक-अमुक गुण हो जाते—इस प्रकारकी स्तुतिसे तो मनुष्यकी वञ्चना की जाती है। वह मन्दमति यह नहीं समझता कि इस प्रकार तो लोग उसका उपहास ही कर रहे हैं ॥ २४ ॥ जिस प्रकार लज्जाशील उदार पुरुष अपने किसी निन्दित पराक्रमकी चर्चा होनी बुरी समझते हैं, उसी प्रकार लोकविख्यात समर्थ पुरुष अपनी स्तुतिको भी निन्दित मानते हैं ॥ २५ ॥ सूतगण ! अभी हम अपने श्रेष्ठ कर्मोंके द्वारा लोकमें अप्रसिद्ध ही हैं; हमने अबतक कोई भी ऐसा काम नहीं किया है, जिसकी प्रशंसा की जा सके। तब तुम लोगोंसे बच्चोंके समान अपनी कीर्तिका किस प्रकार गान करावें ? ॥ २६ ॥
शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से