गुरुवार, 16 अक्टूबर 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण चतुर्थ स्कन्ध - पंद्रहवां अध्याय..(पोस्ट०३)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
चतुर्थ स्कन्ध – पंद्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

महाराज पृथुका आविर्भाव और राज्याभिषेक

पृथुरुवाच –

भोः सूत हे मागध सौम्य वन्दिन्
     लोकेऽधुनास्पष्टगुणस्य मे स्यात् ।
किमाश्रयो मे स्तव एष योज्यतां
     मा मय्यभूवन् वितथा गिरो वः ॥ २२ ॥
तस्मात्परोक्षेऽस्मदुपश्रुतान्यलं
     करिष्यथ स्तोत्रमपीच्यवाचः ।
सत्युत्तमश्लोकगुणानुवादे
     जुगुप्सितं न स्तवयन्ति सभ्याः ॥ २३ ॥
महद्गु्णानात्मनि कर्तुमीशः
     कः स्तावकैः स्तावयतेऽसतोऽपि ।
तेऽस्याभविष्यन् इति विप्रलब्धो
     जनावहासं कुमतिर्न वेद ॥ २४ ॥
प्रभवो ह्यात्मनः स्तोत्रं जुगुप्सन्त्यपि विश्रुताः ।
ह्रीमन्तः परमोदाराः पौरुषं वा विगर्हितम् ॥ २५ ॥
वयं तु अविदिता लोके सूताद्यापि वरीमभिः ।
कर्मभिः कथमात्मानं गापयिष्याम बालवत् ॥ २६ ॥

पृथुने कहा—सौम्य सूत, मागध और वन्दीजन ! अभी तो लोकमें मेरा कोई भी गुण प्रकट नहीं हुआ। फिर तुम किन गुणोंको लेकर मेरी स्तुति करोगे ? मेरे विषयमें तुम्हारी वाणी व्यर्थ नहीं होनी चाहिये। इसलिये मुझसे भिन्न किसी औरकी स्तुति करो ॥ २२ ॥ मृदुभाषियो ! कालान्तरमें जब मेरे अप्रकट गुण प्रकट हो जायँ, तब भरपेट अपनी मधुर वाणीसे मेरी स्तुति कर लेना। देखो, शिष्ट पुरुष पवित्रकीर्ति श्रीहरिके गुणानुवादके रहते हुए तुच्छ मनुष्योंकी स्तुति नहीं किया करते ॥ २३ ॥ महान् गुणोंको धारण करनेमें समर्थ होनेपर भी ऐसा कौन बुद्धिमान् पुरुष है, जो उनके न रहनेपर भी केवल सम्भावनामात्रसे स्तुति करनेवालोंद्वारा अपनी स्तुति करायेगा ? यदि यह विद्याभ्यास करता तो इसमें अमुक-अमुक गुण हो जाते—इस प्रकारकी स्तुतिसे तो मनुष्यकी वञ्चना की जाती है। वह मन्दमति यह नहीं समझता कि इस प्रकार तो लोग उसका उपहास ही कर रहे हैं ॥ २४ ॥ जिस प्रकार लज्जाशील उदार पुरुष अपने किसी निन्दित पराक्रमकी चर्चा होनी बुरी समझते हैं, उसी प्रकार लोकविख्यात समर्थ पुरुष अपनी स्तुतिको भी निन्दित मानते हैं ॥ २५ ॥ सूतगण ! अभी हम अपने श्रेष्ठ कर्मोंके द्वारा लोकमें अप्रसिद्ध ही हैं; हमने अबतक कोई भी ऐसा काम नहीं किया है, जिसकी प्रशंसा की जा सके। तब तुम लोगोंसे बच्चोंके समान अपनी कीर्तिका किस प्रकार गान करावें ? ॥ २६ ॥

इति श्रीमद्‌भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां चतुर्थस्कन्धे पृथुचरिते पञ्चदशोऽध्यायः ॥ १५ ॥

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श्रीमद्भागवतमहापुराण चतुर्थ स्कन्ध - पंद्रहवां अध्याय..(पोस्ट०२)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
चतुर्थ स्कन्ध – पंद्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

महाराज पृथुका आविर्भाव और राज्याभिषेक

तस्याभिषेक आरब्धो ब्राह्मणैर्ब्रह्मवादिभिः ।
आभिषेचनिकान्यस्मै आजह्रुः सर्वतो जनाः ॥ ११ ॥
सरित्समुद्रा गिरयो नागा गावः खगा मृगाः ।
द्यौः क्षितिः सर्वभूतानि समाजह्रुरुपायनम् ॥ १२ ॥
सोऽभिषिक्तो महाराजः सुवासाः साध्वलङ्‌कृतः ।
पत्न्याकर्चिषालङ्‌कृतया विरेजेऽग्निरिवापरः ॥ १३ ॥
तस्मै जहार धनदो हैमं वीर वरासनम् ।
वरुणः सलिलस्रावं आतपत्रं शशिप्रभम् ॥ १४ ॥
वायुश्च वालव्यजने धर्मः कीर्तिमयीं स्रजम् ।
इन्द्रः किरीटमुत्कृष्टं दण्डं संयमनं यमः ॥ १५ ॥
ब्रह्मा ब्रह्ममयं वर्म भारती हारमुत्तमम् ।
हरिः सुदर्शनं चक्रं तत् पत्न्याव्याहतां श्रियम् ॥ १६ ॥
दशचन्द्रमसिं रुद्रः शतचन्द्रं तथाम्बिका ।
सोमोऽमृतमयानश्वान् त्वष्टा रूपाश्रयं रथम् ॥ १७ ॥
अग्निराजगवं चापं सूर्यो रश्मिमयानिषून् ।
भूः पादुके योगमय्यौ द्यौः पुष्पावलिमन्वहम् ॥ १८ ॥
नाट्यं सुगीतं वादित्रं अन्तर्धानं च खेचराः ।
ऋषयश्चाशिषः सत्याः समुद्रः शङ्‌खमात्मजम् ॥ १९ ॥
सिन्धवः पर्वता नद्यो रथवीथीर्महात्मनः ।
सूतोऽथ मागधो वन्दी तं स्तोतुमुपतस्थिरे ॥ २० ॥
स्तावकान् तानभिप्रेत्य पृथुर्वैन्यः प्रतापवान् ।
मेघनिर्ह्रादया वाचा प्रहसन् इदमब्रवीत् ॥ २१ ॥

वेदवादी ब्राह्मणोंने महाराज पृथुके अभिषेकका आयोजन किया। सब लोग उसकी सामग्री जुटानेमें लग गये ॥ ११ ॥ उस समय नदी, समुद्र, पर्वत, सर्प, गौ, पक्षी, मृग, स्वर्ग, पृथ्वी तथा अन्य सब प्राणियोंने भी उन्हें तरह-तरहके उपहार भेंट किये ॥ १२ ॥ सुन्दर वस्त्र और आभूषणोंसे अलंकृत महाराज पृथुका विधिवत् राज्याभिषेक हुआ। उस समय अनेकों अलंकारोंसे सजी हुई महारानी अर्चि के साथ वे दूसरे अग्निदेव के सदृश जान पड़ते थे ॥ १३ ॥
वीर विदुरजी ! उन्हें कुबेरने बड़ा ही सुन्दर सोनेका सिंहासन दिया तथा वरुणने चन्द्रमाके समान श्वेत और प्रकाशमय छत्र दिया, जिससे निरन्तर जलकी फुहियाँ झरती रहती थीं ॥ १४ ॥ वायुने दो चँवर, धर्मने कीर्तिमयी माला, इन्द्रने मनोहर मुकुट, यमने दमन करनेवाला दण्ड, ब्रह्माने वेदमय कवच, सरस्वतीने सुन्दर हार, विष्णुभगवान्‌ने सुदर्शनचक्र, विष्णुप्रिया लक्ष्मीजीने अविचल सम्पत्ति, रुद्रने दस चन्द्राकार चिह्नोंसे युक्त कोषवाली तलवार, अम्बिकाजीने सौ चन्द्राकार चिह्नोंवाली ढाल, चन्द्रमाने अमृतमय अश्व, त्वष्टा (विश्वकर्मा) ने सुन्दर रथ, अग्रिने बकरे और गौके सींगोंका बना हुआ सुदृढ़ धनुष, सूर्यने तेजोमय बाण, पृथ्वीने चरणस्पर्श-मात्रसे अभीष्ट स्थानपर पहुँचा देनेवाली योगमयी पादुकाएँ, आकाशके अभिमानी द्यौदेवताने नित्य नूतन पुष्पोंकी माला, आकाशविहारी सिद्ध-गन्धर्वादिने नाचने-गाने, बजाने और अन्तर्धान हो जानेकी शक्तियाँ, ऋषियोंने अमोघ आशीर्वाद, समुद्रने अपनेसे उत्पन्न हुआ शङ्ख, तथा सातों समुद्र, पर्वत और नदियोंने उनके रथके लिये बेरोक-टोक मार्ग उपहारमें दिये। इसके पश्चात् सूत, मागध और वन्दीजन उनकी स्तुति करनेके लिये उपस्थित हुए ॥ १५—२० ॥ तब उन स्तुति करनेवालोंका अभिप्राय समझकर वेनपुत्र परम प्रतापी महाराज पृथुने हँसते हुए मेघके समान गम्भीर वाणीमें कहा ॥ २१ ॥

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बुधवार, 15 अक्टूबर 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण चतुर्थ स्कन्ध - पंद्रहवां अध्याय..(पोस्ट०१)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
चतुर्थ स्कन्ध – पंद्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

महाराज पृथुका आविर्भाव और राज्याभिषेक

मैत्रेय उवाच -
अथ तस्य पुनर्विप्रैः अपुत्रस्य महीपतेः ।
बाहुभ्यां मथ्यमानाभ्यां मिथुनं समपद्यत ॥ १ ॥
तद् दृष्ट्वा मिथुनं जातं ऋषयो ब्रह्मवादिनः ।
ऊचुः परमसन्तुष्टा विदित्वा भगवत्कलाम् ॥ २ ॥

ऋषय ऊचुः -
एष विष्णोर्भगवतः कला भुवनपालिनी ।
इयं च लक्ष्म्याः सम्भूतिः पुरुषस्यानपायिनी ॥ ३ ॥
अयं तु प्रथमो राज्ञां पुमान् प्रथयिता यशः ।
पृथुर्नाम महाराजो भविष्यति पृथुश्रवाः ॥ ४ ॥
इयं च सुदती देवी गुणभूषणभूषणा ।
अर्चिर्नाम वरारोहा पृथुमेवावरुन्धती ॥ ५ ॥
एष साक्षात् हरेरंशो जातो लोकरिरक्षया ।
इयं च तत्परा हि श्रीः अनुजज्ञेऽनपायिनी ॥ ६ ॥

मैत्रेय उवाच -
प्रशंसन्ति स्म तं विप्रा गन्धर्वप्रवरा जगुः ।
मुमुचुः सुमनोधाराः सिद्धा नृत्यन्ति स्वःस्त्रियः ॥ ७ ॥
शङ्‌खतूर्यमृदङ्‌गाद्या नेदुर्दुन्दुभयो दिवि ।
तत्र सर्व उपाजग्मुः देवर्षिपितॄणां गणाः ॥ ८ ॥
ब्रह्मा जगद्गुगरुर्देवैः सहासृत्य सुरेश्वरैः ।
वैन्यस्य दक्षिणे हस्ते दृष्ट्वा चिह्नं गदाभृतः ॥ ९ ॥
पादयोः अरविन्दं च तं वै मेने हरेः कलाम् ।
यस्याप्रतिहतं चक्रं अंशः स परमेष्ठिनः ॥ १० ॥

श्रीमैत्रेयजी कहते हैं—विदुरजी ! इसके बाद ब्राह्मणोंने पुत्रहीन राजा वेनकी भुजाओंका मन्थन किया, तब उनसे एक स्त्री-पुरुषका जोड़ा प्रकट हुआ ॥ १ ॥ ब्रह्मवादी ऋषि उस जोड़ेको उत्पन्न हुआ देख और उसे भगवान्‌का अंश जान बहुत प्रसन्न हुए और बोले ॥ २ ॥
ऋषियोंने कहा—यह पुरुष भगवान्‌ विष्णुकी विश्वपालिनी कलासे प्रकट हुआ है और यह स्त्री उन परम पुरुषकी अनपायिनी (कभी अलग न होनेवाली) शक्ति लक्ष्मीजीका अवतार है ॥ ३ ॥ इनमेंसे जो पुरुष है वह अपने सुयशका प्रथन—विस्तार करनेके कारण परम यशस्वी ‘पृथु’ नामक सम्राट् होगा। राजाओंमें यही सबसे पहला होगा ॥ ४ ॥ यह सुन्दर दाँतोंवाली एवं गुण और आभूषणोंको भी विभूषित करनेवाली सुन्दरी इन पृथुको ही अपना पति बनायेगी। इसका नाम अर्चि होगा ॥ ५ ॥ पृथुके रूपमें साक्षात् श्रीहरिके अंशने ही संसारकी रक्षाके लिये अवतार लिया है और अर्चिके रूपमें, निरन्तर भगवान्‌की सेवामें रहनेवाली उनकी नित्य सहचरी श्रीलक्ष्मीजी ही प्रकट हुई हैं ॥ ६ ॥
श्रीमैत्रेयजी कहते हैं—विदुरजी ! उस समय ब्राह्मण लोग पृथुकी स्तुति करने लगे, श्रेष्ठ गन्धर्वोंने गुणगान किया, सिद्धोंने पुष्पोंकी वर्षा की, अप्सराएँ नाचने लगीं ॥ ७ ॥ आकाशमें शङ्ख, तुरही, मृदङ्ग और दुन्दुभि आदि बाजे बजने लगे। समस्त देवता, ऋषि और पितर अपने-अपने लोकोंसे वहाँ आये ॥ ८ ॥ जगद्गुरु ब्रह्माजी देवता और देवेश्वरोंके साथ पधारे। उन्होंने वेनकुमार पृथुके दाहिने हाथमें भगवान्‌ विष्णुकी हस्तरेखाएँ और चरणोंमें कमलका चिह्न देखकर उन्हें श्रीहरिका ही अंश समझा; क्योंकि जिसके हाथमें दूसरी रेखाओंसे बिना कटा हुआ चक्रका चिह्न होता है, वह भगवान्‌का ही अंश होता है ॥ ९-१० ॥

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श्रीमद्भागवतमहापुराण चतुर्थ स्कन्ध - चौदहवां अध्याय..(पोस्ट०५)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
चतुर्थ स्कन्ध – चौदहवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)

राजा वेन की कथा

एकदा मुनयस्ते तु सरस्वत् सलिलाप्लुताः ।
हुत्वाग्नीन् सत्कथाश्चक्रुः उपविष्टाः सरित्तटे ॥ ३६ ॥
वीक्ष्योत्थितान् तदोत्पातान् आहुर्लोक भयङ्‌करान् ।
अप्यभद्रमनाथाया दस्युभ्यो न भवेद्‌भुवः ॥ ३७ ॥
एवं मृशन्त ऋषयो धावतां सर्वतोदिशम् ।
पांसुः समुत्थितो भूरिः चोराणामभिलुम्पताम् ॥ ३८ ॥
तदुपद्रवमाज्ञाय लोकस्य वसु लुम्पताम् ।
भर्तर्युपरते तस्मिन् अन्योन्यं च जिघांसताम् ॥ ३९ ॥
चोरप्रायं जनपदं हीनसत्त्वमराजकम् ।
लोकान् आवारयञ्छक्ता अपि तद्दोषदर्शिनः ॥ ४० ॥
ब्राह्मणः समदृक् शान्तो दीनानां समुपेक्षकः ।
स्रवते ब्रह्म तस्यापि भिन्नभाण्डात्पयो यथा ॥ ४१ ॥
नाङ्‌गस्य वंशो राजर्षेः एष संस्थातुमर्हति ।
अमोघवीर्या हि नृपा वंशेऽस्मिन् केशवाश्रयाः ॥ ४२ ॥
विनिश्चित्यैवमृषयो विपन्नस्य महीपतेः ।
ममन्थुरूरुं तरसा तत्रासीद्बा हुको नरः ॥ ४३ ॥
काककृष्णोऽतिह्रस्वाङ्‌गो ह्रस्वबाहुर्महाहनुः ।
ह्रस्वपान् निम्ननासाग्रो रक्ताक्षस्ताम्रमूर्धजः ॥ ४४ ॥
तं तु तेऽवनतं दीनं किं करोमीति वादिनम् ।
निषीदेत्यब्रुवंस्तात स निषादस्ततोऽभवत् ॥ ४५ ॥
तस्य वंश्यास्तु नैषादा गिरिकाननगोचराः ।
येनाहरत् जायमानो वेनकल्मषमुल्बणम् ॥ ४६ ॥

एक दिन वे मुनिगण सरस्वतीके पवित्र जलमें स्नान कर अग्निहोत्र से निवृत्त हो नदीके तीरपर बैठे हुए हरिचर्चा कर रहे थे ॥ ३६ ॥ उन दिनों लोकोंमें आतंक फैलानेवाले बहुतसे उपद्रव होते देखकर वे आपसमें कहने लगे, ‘आजकल पृथ्वीका कोई रक्षक नहीं है; इसलिये चोर-डाकुओंके कारण उसका कुछ अमङ्गल तो नहीं होनेवाला है ?’ ॥ ३७ ॥ ऋषिलोग ऐसा विचार कर ही रहे थे कि उन्होंने सब दिशाओंमें धावा करनेवाले चोरों और डाकुओंके कारण उठी हुई बड़ी भारी धूल देखी ॥ ३८ ॥ देखते ही वे समझ गये कि राजा वेनके मर जानेके कारण देशमें अराजकता फैल गयी है, राज्य शक्तिहीन हो गया है और चोर-डाकू बढ़ गये हैं; यह सारा उपद्रव लोगोंका धन लूटनेवाले तथा एक-दूसरेके खूनके प्यासे लुटेरोंका ही है। अपने तेजसे अथवा तपोबलसे लोगोंको ऐसी कुप्रवृत्तिसे रोकनेमें समर्थ होनेपर भी ऐसा करनेमें हिंसादि दोष देखकर उन्होंने इसका कोई निवारण नहीं किया ॥ ३९-४० ॥ फिर सोचा कि ‘ब्राह्मण यदि समदर्शी और शान्तस्वभाव भी हो तो भी दीनोंकी उपेक्षा करनेसे उसका तप उसी प्रकार नष्ट हो जाता है जैसे फूटे हुए घड़े में से जल बह जाता है ॥ ४१ ॥ फिर राजर्षि अङ्ग का वंश भी नष्ट नहीं होना चाहिये, क्योंकि इसमें अनेक अमोघ-शक्ति और भगवत्परायण राजा हो चुके हैं’ ॥ ४२ ॥ ऐसा निश्चय कर उन्होंने मृत राजाकी जाँघ को बड़ेजोरसे मथा तो उसमें से एक बौना पुरुष उत्पन्न हुआ ॥ ४३ ॥ वह कौए के समान काला था; उसके सभी अङ्ग और खासकर भुजाएँ बहुत छोटी थीं, जबड़े बहुत बड़े, टाँगें छोटी, नाक चपटी, नेत्र लाल और केश ताँबे के-से रंगके थे ॥ ४४ ॥ उसने बड़ी दीनता और नम्रभाव से पूछा कि ‘मैं क्या करूँ ?’ तो ऋषियोंने कहा—‘निषीद (बैठ जा)।’ इसीसे वह ‘निषाद’ कहलाया ॥ ४५ ॥ उसने जन्म लेते ही राजा वेनके भयङ्कर पापोंको अपने ऊपर ले लिया, इसीलिये उसके वंशधर नैषाद भी हिंसा, लूटपाट आदि पापकर्मोंमें रत रहते हैं; अत: वे गाँव और नगरमें न टिक कर वन और पर्वतोंमें ही निवास करते हैं ॥ ४६ ॥

इति श्रीमद्‌भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां चतुर्थस्कन्धे पृथुचरिते निषादोत्पत्तिर्नाम चतुर्दशोऽध्यायः ॥ १४ ॥

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मंगलवार, 14 अक्टूबर 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण चतुर्थ स्कन्ध - चौदहवां अध्याय..(पोस्ट०४)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
चतुर्थ स्कन्ध – चौदहवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

राजा वेन की कथा

मैत्रेय उवाच –

इत्थं विपर्ययमतिः पापीयानुत्पथं गतः ।
अनुनीयमानस्तद्याच्ञां न चक्रे भ्रष्टमङ्‌गलः ॥ २९ ॥
इति तेऽसत्कृतास्तेन द्विजाः पण्डितमानिना ।
भग्नायां भव्ययाच्ञायां तस्मै विदुर चुक्रुधुः ॥ ३० ॥
हन्यतां हन्यतामेष पापः प्रकृतिदारुणः ।
जीवन् जगदसावाशु कुरुते भस्मसाद् ध्रुवम् ॥ ३१ ॥
नायमर्हत्यसद्‌वृत्तो नरदेववरासनम् ।
योऽधियज्ञपतिं विष्णुं विनिन्दत्यनपत्रपः ॥ ३२ ॥
को वैनं परिचक्षीत वेनमेकमृतेऽशुभम् ।
प्राप्त ईदृशमैश्वर्यं यदनुग्रहभाजनः ॥ ३३ ॥
इत्थं व्यवसिता हन्तुं हृषयो रूढमन्यवः ।
निजघ्नुर्हुङ्‌कृतैर्वेनं हतमच्युतनिन्दया ॥ ३४ ॥
ऋषिभिः स्वाश्रमपदं गते पुत्रकलेवरम् ।
सुनीथा पालयामास विद्यायोगेन शोचती ॥ ३५ ॥

श्रीमैत्रेयजी कहते हैं—इस प्रकार विपरीत बुद्धि होनेके कारण वह(राजा वेन) अत्यन्त पापी और कुमार्गगामी हो गया था। उसका पुण्य क्षीण हो चुका था, इसलिये मुनियोंके बहुत विनयपूर्वक प्रार्थना करनेपर भी उसने उनकी बातपर ध्यान न दिया ॥ २९ ॥ कल्याणरूप विदुरजी ! अपनेको बड़ा बुद्धिमान् समझनेवाले वेन ने जब उन मुनियों का इस प्रकार अपमान किया, तब अपनी माँगको व्यर्थ हुई देख वे उसपर अत्यन्त कुपित हो गये ॥ ३० ॥ ‘मार डालो ! इस स्वभावसे ही दुष्ट पापीको मार डालो ! यह यदि जीता रह गया तो कुछ ही दिनोंमें संसारको अवश्य भस्म कर डालेगा ॥ ३१ ॥ यह दुराचारी किसी प्रकार राजसिंहासन के योग्य नहीं है, क्योंकि यह निर्लज्ज साक्षात् यज्ञपति श्रीविष्णुभगवान्‌ की निन्दा करता है ॥ ३२ ॥ अहो ! जिनकी कृपासे इसे ऐसा ऐश्वर्य मिला, उन श्रीहरिकी निन्दा अभागे वेनको छोडक़र और कौन कर सकता है’ ? ॥ ३३ ॥ इस प्रकार अपने छिपे हुए क्रोधको प्रकट कर उन्होंने उसे मारनेका निश्चय कर लिया। वह तो भगवान्‌की निन्दा करनेके कारण पहले ही मर चुका था, इसलिये केवल हुंकारों से ही उन्होंने उसका काम तमाम कर दिया ॥ ३४ ॥ जब मुनिगण अपने-अपने आश्रमोंको चले गये, तब इधर वेनकी शोकाकुला माता सुनीथा मन्त्रादि के बलसे तथा अन्य युक्तियोंसे अपने पुत्र के शव की रक्षा करने लगी ॥ ३५ ॥

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श्रीमद्भागवतमहापुराण चतुर्थ स्कन्ध - चौदहवां अध्याय..(पोस्ट०३)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
चतुर्थ स्कन्ध – चौदहवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

राजा वेन की कथा

तस्मिन् तुष्टे किमप्राप्यं जगतां ईश्वरेश्वरे ।
लोकाः सपाला ह्येतस्मै हरन्ति बलिमादृताः ॥ २० ॥
तं सर्वलोकामरयज्ञसङ्‌ग्रहं
     त्रयीमयं द्रव्यमयं तपोमयम् ।
यज्ञैर्विचित्रैर्यजतो भवाय ते
     राजन् स्वदेशान् अनुरोद्धुमर्हसि ॥ २१ ॥
यज्ञेन युष्मद्विषये द्विजातिभिः
     वितायमानेन सुराः कला हरेः ।
स्विष्टाः सुतुष्टाः प्रदिशन्ति वाञ्छितं
     तद्धेलनं नार्हसि वीर चेष्टितुम् ॥ २२ ॥

वेन उवाच -
बालिशा बत यूयं वा अधर्मे धर्ममानिनः ।
ये वृत्तिदं पतिं हित्वा जारं पतिमुपासते ॥ २३ ॥
अवजानन्त्यमी मूढा नृपरूपिणमीश्वरम् ।
नानुविन्दन्ति ते भद्रं इह लोके परत्र च ॥ २४ ॥
को यज्ञपुरुषो नाम यत्र वो भक्तिरीदृशी ।
भर्तृस्नेहविदूराणां यथा जारे कुयोषिताम् ॥ २५ ॥
विष्णुर्विरिञ्चो गिरिश इन्द्रो वायुर्यमो रविः ।
पर्जन्यो धनदः सोमः क्षितिरग्निरपाम्पतिः ॥ २६ ॥
एते चान्ये च विबुधाः प्रभवो वरशापयोः ।
देहे भवन्ति नृपतेः सर्वदेवमयो नृपः ॥ २७ ॥
तस्मान्मां कर्मभिर्विप्रा यजध्वं गतमत्सराः ।
बलिं च मह्यं हरत मत्तोऽन्यः कोऽग्रभुक् पुमान् ॥ २८ ॥

(मुनि राजा वें से कह रहे हैं) भगवान्‌ ब्रह्मादि जगदीश्वरोंके भी ईश्वर हैं, उनके प्रसन्न होनेपर कोई भी वस्तु दुर्लभ नहीं रह जाती। तभी तो इन्द्रादि लोकपालोंके सहित समस्त लोक उन्हें बड़े आदरसे पूजोपहार समर्पण करते हैं ॥ २० ॥ राजन् ! भगवान्‌ श्रीहरि समस्त लोक, लोकपाल और यज्ञोंके नियन्ता हैं; वे वेदत्रयीरूप, द्रव्यरूप और तप:स्वरूप हैं। इसलिये आपके जो देशवासी आपकी उन्नतिके लिये अनेक प्रकारके यज्ञोंसे भगवान्‌का यजन करते हैं, आपको उनके अनुकूल ही रहना चाहिये ॥ २१ ॥ जब आपके राज्यमें ब्राह्मणलोग यज्ञोंका अनुष्ठान करेंगे, तब उनकी पूजासे प्रसन्न होकर भगवान्‌के अंशस्वरूप देवता आपको मनचाहा फल देंगे। अत: वीरवर ! आपको यज्ञादि धर्मानुष्ठान बंद करके देवताओंका तिरस्कार नहीं करना चाहिये ॥ २२ ॥
वेनने कहा—तुमलोग बड़े मूर्ख हो ! खेद है, तुमने अधर्ममें ही धर्मबुद्धि कर रखी है। तभी तो तुम जीविका देनेवाले मुझ साक्षात् पति को छोडक़र किसी दूसरे जारपति की उपासना करते हो ॥ २३ ॥ जो लोग मूर्खतावश राजारूप परमेश्वरका अनादर करते हैं, उन्हें न तो इस लोकमें सुख मिलता है और न परलोकमें ही ॥ २४ ॥ अरे ! जिसमें तुमलोगोंकी इतनी भक्ति है, वह यज्ञपुरुष है कौन ? यह तो ऐसी ही बात हुई जैसे कुलटा स्त्रियाँ अपने विवाहित पतिसे प्रेम न करके किसी परपुरुषमें आसक्त हो जायँ ॥ २५ ॥ विष्णु, ब्रह्मा, महादेव, इन्द्र, वायु, यम, सूर्य, मेघ, कुबेर, चन्द्रमा, पृथ्वी, अग्रि और वरुण तथा इनके अतिरिक्त जो दूसरे वर और शाप देनेमें समर्थ देवता हैं, वे सब-के-सब राजाके शरीरमें रहते हैं; इसलिये राजा सर्वदेवमय है और देवता उसके अंशमात्र हैं ॥ २६-२७ ॥ इसलिये ब्राह्मणो ! तुम मत्सरता छोडक़र अपने सभी कर्मोंद्वारा एक मेरा ही पूजन करो और मुझीको बलि समर्पण करो। भला मेरे सिवा और कौन अग्रपूजाका अधिकारी हो सकता है ॥ २८ ॥

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सोमवार, 13 अक्टूबर 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण चतुर्थ स्कन्ध - चौदहवां अध्याय..(पोस्ट०२)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
चतुर्थ स्कन्ध – चौदहवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

राजा वेन की कथा

अहेरिव पयःपोषः पोषकस्याप्यनर्थभृत् ।
वेनः प्रकृत्यैव खलः सुनीथागर्भसम्भवः ॥ १० ॥
निरूपितः प्रजापालः स जिघांसति वै प्रजाः ।
तथापि सान्त्वयेमामुं नास्मान् तत्पातकं स्पृशेत् ॥ ११ ॥
तद् विद्वद्‌भिः असद्‌वृत्तो वेनोऽस्माभिः कृतो नृपः ।
सान्त्वितो यदि नो वाचं न ग्रहीष्यत्यधर्मकृत् ॥ १२ ॥
लोकधिक्कारसन्दग्धं दहिष्यामः स्वतेजसा ।
एवं अध्यवसायैनं मुनयो गूढमन्यवः ॥ १३ ॥
उपव्रज्याब्रुवन् वेनं सान्त्वयित्वा च सामभिः ॥ १३ ॥

मुनय ऊचुः –
नृपवर्य निबोधैतद् यत्ते विज्ञापयाम भोः ।
आयुःश्रीबलकीर्तीनां तव तात विवर्धनम् ॥ १४ ॥
धर्म आचरितः पुंसां वाङ्‌मनःकायबुद्धिभिः ।
लोकान् विशोकान् वितरति अथ अनन्त्यमसङ्‌गिनाम् ॥ १५ ॥
स ते मा विनशेद्वीर प्रजानां क्षेमलक्षणः ।
यस्मिन् विनष्टे नृपतिः ऐश्वर्यादवरोहति ॥ १६ ॥
राजन् असाध्वमात्येभ्यः चोरादिभ्यः प्रजा नृपः ।
रक्षन् यथा बलिं गृह्णन् इह प्रेत्य च मोदते ॥ १७ ॥
यस्य राष्ट्रे पुरे चैव भगवान् यज्ञपूरुषः ।
इज्यते स्वेन धर्मेण जनैर्वर्णाश्रमान्वितैः ॥ १८ ॥
तस्य राज्ञो महाभाग भगवान् भूतभावनः ।
परितुष्यति विश्वात्मा तिष्ठतो निजशासने ॥ १९ ॥

सुनीथा की कोख से उत्पन्न हुआ यह वेन स्वभावसे ही दुष्ट है। परन्तु साँपको दूध पिलाने के समान इसको पालना-पालनेवालों के लिये अनर्थका कारण हो गया ॥ १० ॥ हमने इसे प्रजाकी रक्षा करनेके लिये नियुक्त किया था, यह आज उसीको नष्ट करनेपर तुला हुआ है। इतना सब होनेपर भी हमें इसे समझाना अवश्य चाहिये; ऐसा करनेसे इसके किये हुए पाप हमें स्पर्श नहीं करेंगे ॥ ११ ॥ हमने जान-बूझकर दुराचारी वेनको राजा बनाया था। किन्तु यदि समझानेपर भी यह हमारी बात नहीं मानेगा, तो लोक के धिक्कार से दग्ध हुए इस दुष्ट को हम अपने तेज से भस्म कर देंगे।’ ऐसा विचार करके मुनिलोग वेनके पास गये और अपने क्रोधको छिपाकर उसे प्रिय वचनोंसे समझाते हुए इस प्रकार कहने लगे ॥ १२-१३ ॥
मुनियोंने कहा—राजन् ! हम आपसे जो बात कहते हैं, उसपर ध्यान दीजिये। इससे आपकी आयु, श्री, बल और कीर्तिकी वृद्धि होगी ॥ १४ ॥ तात ! यदि मनुष्य मन, वाणी, शरीर और बुद्धिसे धर्मका आचरण करे, तो उसे स्वर्गादि शोकरहित लोकोंकी प्राप्ति होती है। यदि उसका निष्काम भाव हो, तब तो वही धर्म उसे अनन्त मोक्षपदपर पहुँचा देता है ॥ १५ ॥ इसलिये वीरवर ! प्रजाका कल्याणरूप वह धर्म आपके कारण नष्ट नहीं होना चाहिये। धर्मके नष्ट होनेसे राजा भी ऐश्वर्यसे च्युत हो जाता है ॥ १६ ॥ जो राजा दुष्ट मन्त्री और चोर आदिसे अपनी प्रजाकी रक्षा करते हुए न्यायानुकूल कर लेता है, वह इस लोकमें और परलोकमें दोनों जगह सुख पाता है ॥ १७ ॥ जिसके राज्य अथवा नगरमें वर्णाश्रम-धर्मोंका पालन करनेवाले पुरुष स्वधर्मपालनके द्वारा भगवान्‌ यज्ञपुरुषकी आराधना करते हैं, महाभाग ! अपनी आज्ञाका पालन करनेवाले उस राजासे भगवान्‌ प्रसन्न रहते हैं; क्योंकि वे ही सारे विश्वकी आत्मा तथा सम्पूर्ण भूतोंके रक्षक हैं ॥ १८-१९ ॥ 

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श्रीमद्भागवतमहापुराण चतुर्थ स्कन्ध - चौदहवां अध्याय..(पोस्ट०१)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
चतुर्थ स्कन्ध – चौदहवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

राजा वेन की कथा

मैत्रेय उवाच –

भृग्वादयस्ते मुनयो लोकानां क्षेमदर्शिनः ।
गोप्तर्यसति वै नॄणां पश्यन्तः पशुसाम्यताम् ॥ १ ॥
वीरमातरमाहूय सुनीथां ब्रह्मवादिनः ।
प्रकृत्यसम्मतं वेनं अभ्यषिञ्चन् पतिं भुवः ॥ २ ॥
श्रुत्वा नृपासनगतं वेनमत्युग्रशासनम् ।
निलिल्युर्दस्यवः सद्यः सर्पत्रस्ता इवाखवः ॥ ३ ॥
स आरूढनृपस्थान उन्नद्धोऽष्टविभूतिभिः ।
अवमेने महाभागान्स्तब्धः सम्भावितः स्वतः ॥ ४ ॥
एवं मदान्ध उत्सिक्तो निरङ्‌कुश इव द्विपः ।
पर्यटन् रथमास्थाय कम्पयन् इव रोदसी ॥ ५ ॥
न यष्टव्यं न दातव्यं न होतव्यं द्विजाः क्वचित् ।
इति न्यवारयद् धर्मं भेरीघोषेण सर्वशः ॥ ६ ॥
वेनस्यावेक्ष्य मुनयो दुर्वृत्तस्य विचेष्टितम् ।
विमृश्य लोकव्यसनं कृपयोचुः स्म सत्रिणः ॥ ७ ॥
अहो उभयतः प्राप्तं लोकस्य व्यसनं महत् ।
दारुणि उभयतो दीप्ते इव तस्करपालयोः ॥ ८ ॥
अराजकभयादेष कृतो राजातदर्हणः ।
ततोऽप्यासीद्‌भयं त्वद्य कथं स्यात् स्वस्ति देहिनाम् ॥ ९ ॥

श्रीमैत्रेयजी कहते हैं—वीरवर विदुरजी ! सभी लोकोंकी कुशल चाहनेवाले भृगु आदि मुनियोंने देखा कि अङ्गके चले जानेसे अब पृथ्वीकी रक्षा करनेवाला कोई नहीं रह गया है, सब लोग पशुओंके समान उच्छृङ्खल होते जा रहे हैं ॥ १ ॥ तब उन्होंने माता सुनीथाकी सम्मतिसे, मन्त्रियोंके सहमत न होनेपर भी वेनको भूमण्डलके राजपदपर अभिषिक्त कर दिया ॥ २ ॥ वेन बड़ा कठोर शासक था। जब चोर-डाकुओंने सुना कि वही राजसिंहासनपर बैठा है, तब सर्पसे डरे हुए चूहोंके समान वे सब तुरंत ही जहाँ-तहाँ छिप गये ॥ ३ ॥ राज्यासन पानेपर वेन आठों लोकपालोंकी ऐश्वर्यकलाके कारण उन्मत्त हो गया और अभिमानवश अपनेको ही सबसे बड़ा मानकर महापुरुषोंका अपमान करने लगा ॥ ४ ॥ वह ऐश्वर्यमदसे अंधा हो रथपर चढक़र निरङ्कुश गजराजके समान पृथ्वी और आकाशको कँपाता हुआ सर्वत्र विचरने लगा ॥ ५ ॥ ‘कोई भी द्विजातिवर्णका पुरुष कभी किसी प्रकारका यज्ञ, दान और हवन न करे’ अपने राज्यमें यह ढिंढोरा पिटवाकर उसने सारे धर्म-कर्म बंद करवा दिये ॥ ६ ॥
दुष्ट वेनका ऐसा अत्याचार देख सारे ऋषि-मुनि एकत्र हुए और संसारपर सङ्कट आया समझकर करुणावश आपसमें कहने लगे ॥ ७ ॥ ‘अहो ! जैसे दोनों ओर जलती हुई लकड़ीके बीचमें रहनेवाले चींटी आदि जीव महान् सङ्कटमें पड़ जाते हैं, वैसे ही इस समय सारी प्रजा एक ओर राजाके और दूसरी ओर चोर-डाकुओंके अत्याचारसे महान् सङ्कटमें पड़ रही है ॥ ८ ॥ हमने अराजकताके भयसे ही अयोग्य होनेपर भी वेनको राजा बनाया था; किन्तु अब उससे भी प्रजाको भय हो गया। ऐसी अवस्थामें प्रजाको किस प्रकार सुख-शान्ति मिल सकती है ? ॥ ९ ॥ 

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रविवार, 12 अक्टूबर 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण चतुर्थ स्कन्ध - तेरहवां अध्याय..(पोस्ट०६)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
चतुर्थ स्कन्ध –तेरहवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)

ध्रुववंश का वर्णन, राजा अङ्ग का चरित्र

तं विचक्ष्य खलं पुत्रं शासनैः विविधैर्नृपः ।
यदा न शासितुं कल्पो भृशं आसीत् सुदुर्मनाः ॥ ४२ ॥
प्रायेणाभ्यर्चितो देवो येऽप्रजा गृहमेधिनः ।
कदपत्यभृतं दुःखं ये न विन्दन्ति दुर्भरम् ॥ ४३ ॥
यतः पापीयसी कीर्तिः अधर्मश्च महान् नृणाम् ।
यतो विरोधः सर्वेषां यत आधिरनन्तकः ॥ ४४ ॥
कस्तं प्रजापदेशं वै मोहबन्धनमात्मनः ।
पण्डितो बहु मन्येत यदर्थाः क्लेशदा गृहाः ॥ ४५ ॥
कदपत्यं वरं मन्ये सदपत्याच्छुचां पदात् ।
निर्विद्येत गृहान्मर्त्यो यत्क्लेशनिवहा गृहाः ॥ ४६ ॥
एवं स निर्विण्णमना नृपो गृहात्
     निशीथ उत्थाय महोदयोदयात् ।
अलब्धनिद्रोऽनुपलक्षितो नृभिः
     हित्वा गतो वेनसुवं प्रसुप्ताम् ॥ ४७ ॥
विज्ञाय निर्विद्य गतं पतिं प्रजाः
     पुरोहितामात्यसुहृद्ग्णादयः ।
विचिक्युरुर्व्यामतिशोककातरा
     यथा निगूढं पुरुषं कुयोगिनः ॥ ४८ ॥
अलक्षयन्तः पदवीं प्रजापतेः
     हतोद्यमाः प्रत्युपसृत्य ते पुरीम् ।
ऋषीन् समेतान् अभिवन्द्य साश्रवो
     न्यवेदयन् पौरव भर्तृविप्लवम् ॥ ४९ ॥

वेन की ऐसी दुष्ट प्रकृति देखकर महाराज अङ्गने उसे तरह-तरहसे सुधारनेकी चेष्टा की; परन्तु वे उसे सुमार्गपर लानेमें समर्थ न हुए। इससे उन्हें बड़ा ही दु:ख हुआ ॥ ४२ ॥ (वे मन-ही-मन कहने लगे—) ‘जिन गृहस्थोंके पुत्र नहीं हैं, उन्होंने अवश्य ही पूर्वजन्ममें श्रीहरिकी आराधना की होगी; इसीसे उन्हें कुपूतकी करतूतोंसे होनेवाले असह्य क्लेश नहीं सहने पड़ते ॥ ४३ ॥ जिसकी करनीसे माता-पिताका सारा सुयश मिट्टीमें मिल जाय, उन्हें अधर्मका भागी होना पड़े, सबसे विरोध हो जाय, कभी न छूटनेवाली चिन्ता मोल लेनी पड़े और घर भी दु:खदायी हो जाय—ऐसी नाममात्रकी सन्तानके लिये कौन समझदार पुरुष ललचावेगा ? वह तो आत्माके लिये एक प्रकारका मोहमय बन्धन ही है ॥ ४४-४५ ॥ मैं तो सपूतकी अपेक्षा कुपूतको ही अच्छा समझता हूँ; क्योंकि सपूतको छोडऩेमें बड़ा क्लेश होता है। कुपूत घरको नरक बना देता है, इसलिये उससे सहज ही छुटकारा हो जाता है’ ॥ ४६ ॥
इस प्रकार सोचते-सोचते महाराज अङ्गको रातमें नींद नहीं आयी। उनका चित्त गृहस्थीसे विरक्त हो गया। वे आधी रातके समय बिछौनेसे उठे। इस समय वेनकी माता नींदमें बेसुध पड़ी थी। राजाने सबका मोह छोड़ दिया और उसी समय किसीको भी मालूम न हो, इस प्रकार चुपचाप उस महान् ऐश्वर्यसे भरे राजमहलसे निकलकर वनको चल दिये ॥ ४७ ॥ महाराज विरक्त होकर घरसे निकल गये हैं, यह जानकर सभी प्रजाजन, पुरोहित, मन्त्री और सुहृदगण आदि अत्यन्त शोकाकुल होकर पृथ्वीपर उनकी खोज करने लगे। ठीक वैसे ही जैसे योगका यथार्थ रहस्य न जाननेवाले पुरुष अपने हृदयमें छिपे हुए भगवान्‌को बाहर खोजते हैं ॥ ४८ ॥ जब उन्हें अपने स्वामीका कहीं पता न लगा, तब वे निराश होकर नगरमें लौट आये और वहाँ जो मुनिजन एकत्रित हुए थे, उन्हें यथावत् प्रणाम करके उन्होंने आँखोंमें आँसू भरकर महाराजके न मिलनेका वृत्तान्त सुनाया ॥ ४९ ॥

इति श्रीमद्‌भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां चतुर्थस्कन्धे त्रयोदशोऽध्यायः ॥ १३ ॥

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श्रीमद्भागवतमहापुराण चतुर्थ स्कन्ध - तेरहवां अध्याय..(पोस्ट०५)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
चतुर्थ स्कन्ध –तेरहवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)

ध्रुववंश का वर्णन, राजा अङ्ग का चरित्र

तांस्तान् कामान् गरिर्दद्यान् यान् कामयते जनः ।
आराधितो यथैवैष तथा पुंसां फलोदयः ॥ ३४ ॥
इति व्यवसिता विप्राः तस्य राज्ञः प्रजातये ।
पुरोडाशं निरवपन् शिपिविष्टाय विष्णवे ॥ ३५ ॥
तस्मात्पुरुष उत्तस्थौ हेममाल्यमलाम्बरः ।
हिरण्मयेन पात्रेण सिद्धमादाय पायसम् ॥ ३६ ॥
स विप्रानुमतो राजा गृहीत्वाञ्जलिनौदनम् ।
अवघ्राय मुदा युक्तः प्रादात्पत्न्या। उदारधीः ॥ ३७ ॥
सा तत्पुंसवनं राज्ञी प्राश्य वै पत्युरादधे ।
गर्भं काल उपावृत्ते कुमारं सुषुवेऽप्रजा ॥ ३८ ॥
स बाल एव पुरुषो मातामहमनुव्रतः ।
अधर्मांशोद्‌भवं मृत्युं तेनाभवद् अधार्मिकः ॥ ३९ ॥
स शरासनमुद्यम्य मृगयुर्वनगोचरः ।
हन्त्यसाधुर्मृगान् दीनान् वेनोऽसावित्यरौज्जनः ॥ ४० ॥
आक्रीडे क्रीडतो बालान् वयस्यान् अतिदारुणः ।
प्रसह्य निरनुक्रोशः पशुमारममारयत् ॥ ४१ ॥

भक्त जिस-जिस वस्तुकी इच्छा करता है, श्रीहरि उसे वही-वही पदार्थ देते हैं। उनकी जिस प्रकार आराधना की जाती है उसी प्रकार उपासकको फल भी मिलता है ॥ ३४ ॥
इस प्रकार राजा अङ्गको पुत्रप्राप्ति करानेका निश्चय कर ऋत्विजोंने पशुमें यज्ञरूपसे रहनेवाले श्रीविष्णुभगवान्‌के पूजनके लिये पुरोडाश नामक चरु समर्पण किया ॥ ३५ ॥ अग्नि में आहुति डालते ही अग्निकुण्डसे सोनेके हार और शुभ्र वस्त्रोंसे विभूषित एक पुरुष प्रकट हुए; वे एक स्वर्णपात्रमें सिद्ध खीर लिये हुए थे ॥ ३६ ॥ उदारबुद्धि राजा अङ्ग ने याजकों की अनुमति से अपनी अञ्जलिमें वह खीर ले ली और उसे स्वयं सूँघकर प्रसन्नतापूर्वक अपनी पत्नीको दे दिया ॥ ३७ ॥ पुत्रहीना रानीने वह पुत्र प्रदायिनी खीर खाकर अपने पतिके सहवाससे गर्भ धारण किया। उससे यथासमय उसके एक पुत्र हुआ ॥ ३८ ॥ वह बालक बाल्यावस्थासे ही अधर्मके वंशमें उत्पन्न हुए अपने नाना मृत्युका अनुगामी था (सुनीथा मृत्युकी ही पुत्री थी); इसलिये वह भी अधार्मिक ही हुआ ॥ ३९ ॥
वह दुष्ट बालक धनुष-बाण चढ़ाकर वनमें जाता और व्याधके समान बेचारे भोलेभाले हरिणोंकी हत्या करता। उसे देखते ही पुरवासीलोग ‘वेन आया ! वेन आया !’ कहकर पुकार उठते ॥ ४० ॥ वह ऐसा क्रूर और निर्दयी था कि मैदानमें खेलते हुए अपनी बराबरीके बालकोंको पशुओंकी भाँति बलात् मार डालता ॥ ४१ ॥ 

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


श्रीमद्भागवतमहापुराण चतुर्थ स्कन्ध - पंद्रहवां अध्याय..(पोस्ट०३)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  चतुर्थ स्कन्ध – पंद्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट०३) महाराज पृथुका आविर्भाव और राज्याभिषेक पृथुरुवाच ...