॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय स्कन्ध - उनतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)
भक्ति का मर्म और काल की महिमा
मद्गु णश्रुतिमात्रेण मयि सर्वगुहाशये ।
मनोगतिः अविच्छिन्ना यथा गङ्गाम्भसोऽम्बुधौ ॥ ११ ॥
लक्षणं भक्तियोगस्य निर्गुणस्य ह्युदाहृतम् ।
अहैतुक्यव्यवहिता या भक्तिः पुरुषोत्तमे ॥ १२ ॥
सालोक्यसार्ष्टिसामीप्य सारूप्यैकत्वमप्युत ।
दीयमानं न गृह्णन्ति विना मत्सेवनं जनाः ॥ १३ ॥
स एव भक्तियोगाख्य आत्यन्तिक उदाहृतः ।
येनातिव्रज्य त्रिगुणं मद्भा वायोपपद्यते ॥ १४ ॥
जिस प्रकार गङ्गाका प्रवाह अखण्डरूप से समुद्र की ओर बहता रहता है, उसी प्रकार मेरे गुणों के श्रवणमात्र से मनकी गति का तैलधारावत् अविच्छिन्नरूप से मुझ सर्वान्तर्यामीके प्रति हो जाना तथा मुझ पुरुषोत्तम में निष्काम और अनन्य प्रेम होना—यह निर्गुण भक्तियोग का लक्षण कहा गया है ॥ ११-१२ ॥ ऐसे निष्काम भक्त, दिये जाने पर भी, मेरी सेवा को छोडक़र सालोक्य१, सार्ष्टि,२ सामीप्य,३ सारूप्य४ और सायुज्य५ मोक्षतक नहीं लेते [*]— ॥ १३ ॥ भगवत्-सेवाके लिये मुक्ति का तिरस्कार करनेवाला यह भक्तियोग ही परम पुरुषार्थ अथवा साध्य कहा गया है । इसके द्वारा पुरुष तीनों गुणों को लाँघकर मेरे भाव को—मेरे प्रेमरूप अप्राकृत स्वरूप को प्राप्त हो जाता है ॥ १४ ॥
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[*] १. भगवान् के नित्यधाम में निवास, २. भगवान् के समान ऐश्वर्यभोग, ३. भगवान् की नित्य समीपता, ४. भगवान् का-सा रूप और ५. भगवान् के विग्रह में समा जाना, उनसे एक हो जाना या ब्रह्मरूप प्राप्त कर लेना।
शेष आगामी पोस्ट में --
🌹💖🥀 जय श्री हरि :!!🙏
जवाब देंहटाएंॐ श्रीपरमात्मने नमः
श्रीकृष्ण गोविंद हरे मुरारे
हे नाथ नारायण वासुदेव: !!
द्वारकानाथ हैं अब शरण तुम्हारी 🙏