|| ॐ श्री परमात्मने नम: ||
पाप का बाप..(01)
एक प्रसिद्ध कहानी है‒एक पण्डितजी काशी से पढ़कर आये । ब्याह हुआ,स्त्री आयी । कई दिन हो गये । एक दिन स्त्री ने प्रश्न पूछा कि ‘पण्डित जी महाराज ! यह तो बताओ कि पाप का बाप कौन है ?’ पण्डित जी पोथी देखते रहे, पर पता नहीं लगा, उत्तर नहीं दे सके । अब बड़ी शर्म आयी कि स्त्री पूछती है पाप का बाप कौन है ? हमने इतनी पढ़ाई की, पर पता नहीं लगा । वे वापस काशी जाने लगे ।
मार्गमें ही एक वेश्या रहती थी । उसने सुन रखा था कि पण्डितजी काशी पढ़कर आये हैं । उसने पूछा‒‘कहाँ जा रहे हैं महाराज ?’ तो बोले‒‘मैं काशी जा रहा हूँ ।’ काशी क्यों जा रहे हैं ? आप तो पढ़कर आये हैं ? तो बोले‒‘क्या करूँ ? मेरे घरमें स्त्रीने यह प्रश्र पूछ लिया कि पाप का बाप कौन है ? मेरे को उत्तर देना आया नहीं । अब पढ़ाई करके देखूँगा कि पापका बाप कौन है ?’ वह वेश्या बोली‒‘आप वहाँ क्यों जाते हो ? यह तो मैं यहीं बता सकती हूँ आपको ।’
बहुत अच्छी बात । इतनी दूर जाना ही नहीं पड़ेगा । ‘आप घरपर पधारो । आपको पाप का बाप मैं बताऊँगी ।’ अमावस्या के एक दिन पहले पण्डित जी महाराज को अपने घर बुलाया । सौ रुपया सामने भेंट दे दिये और कहा कि ‘महाराज ! आप मेरे यहाँ कल भोजन करो ।’ पण्डित जी ने कह दिया‒‘क्या हर्ज है,कर लेंगे !’
पण्डितजी के लिये रसोई बनानेका सब सामान तैयार कर दिया । अब पण्डितजी महाराज पधार गये और रसोई बनाने लगे तो वह बोली‒‘देखो, पक्की रसोई तो आप पाते ही हो, कच्ची रसोई हरेक के हाथकी नहीं पाते । पक्की रसोई मैं बना दूँ, आप पा लेना’ ! ऐसा कह कर सौ रुपये पास में और रख दिये । उन्होंने देखा कि पक्की रसोई हम दूसरोंके हाथ की लेते ही हैं, कोई हर्ज नहीं, ऐसा करके स्वीकार कर लिया । अब रसोई बनाकर पण्डितजी को परोस दिया । सौ रुपये और पण्डित जी महाराज के आगे रख दिये और नमस्कार करके बोली‒‘महाराज ! जब मेरे हाथ से बनी रसोई आप पा रहें हैं तो मैं अपने हाथ से ग्रास दे दूँ । हाथ तो वे ही हैं, जिनसे रसोई बनायी है, ऐसी कृपा करो ।’ पण्डित जी तैयार हो गये उसकी बात पर । उसने ग्रास को मुँह के सामने किया और उन्होंने ज्यों ही ग्रास लेनेके लिये मुँह खोला कि उठाकर मारी थप्पड़ जोरसे, और वह बोली‒‘अभी तक आपको ज्ञान नहीं हुआ ? खबरदार ! जो मेरे घर का अन्न खाया तो ! आप जैसे पण्डित का मैं धर्म-भ्रष्ट करना नहीं चाहती । यह तो मैंने पाप का बाप कौन है, इसका ज्ञान कराया है ।’ रुपये ज्यों-ज्यों आगे रखते गये पण्डित जी ढीले होते गये ।
इससे सिद्ध क्या हुआ ? पापका बाप कौन हुआ ? रुपयोंका लोभ !
‘त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मनः’ (गीता १६ । २१) ।
काम, क्रोध और लोभ‒ये नरकके खास दरवाजे हैं ।
राम ! राम !! राम !!!
(शेष आगामी पोस्ट में )
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की “मानस में नाम-वन्दना” पुस्तकसे
सुन्दर ! जय सीताराम |
जवाब देंहटाएंजय सीताराम
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