रविवार, 3 दिसंबर 2017

पाप का बाप..(02)


| ॐ श्री परमात्मने नम: ||
पाप का बाप..(02)
“पर उपदेस कुसल बहुतेरे ।
जे आचरहिं ते नर न घनेरे ॥“
..………..(मानस, लंकाकाण्ड, दोहा ७८ । २)
दूसरों को उपदेश देनेमें तो लोग कुशल होते हैं, परंतु उपदेश के अनुसार ही खुद आचरण करने वाले बहुत ही कम लोग होते हैं ।
मनुष्य खयाल नहीं करता कि क्या करना चाहिये और क्या नहीं करना चाहिये । औरों को समझाते हुए पण्डित बन जाते हैं । अपना काम जब सामने आता है, तब पण्डिताई भूल जाते हैं, वह याद नहीं रहती ।
“परोपदेशवेलायां शिष्टाः सर्वे भवन्ति हि ।
विस्मरन्तीह शिष्टत्वं स्वकार्ये समुपस्थिते ॥“
दूसरों को उपदेश देते समय जो पण्डिताई होती है, वही अगर अपने काम पड़े, उस समय आ जाय तो आदमी निहाल हो जाय । जानने की कमी नहीं है,काम में लाने की कमी है । हमें एक सज्जन ने बड़ी शिक्षाकी बात कही कि आप व्याख्यान देते हुए साथ-साथ खुद भी सुना करो । इसका अर्थ यह हुआ कि मैं जो बातें कह रहा हूँ तो मेरे आचरण में कहाँ कमी आती है ? कहाँ-कहाँ गलती होती है? जो आदमी अपना कल्याण चाहे तो वह दूसरों को सुननेके लिये व्याख्यान न दे । अपने सुननेके लिये व्याख्यान दे । लोग सुनने के लिये सामने आते हैं, उस समय कई बातें पैदा होती हैं । अकेले बैठे इतनी पैदा नहीं होतीं । इसलिये उन बातोंको स्वयं भी सुनें । केवल औरों की तरफ ज्ञानका प्रवाह होता है, यह गलती होती है ।
“पण्डिताई पाले पड़ी ओ पूरबलो पाप ।
ओराँ ने परमोदताँ खाली रह गया आप ॥
पण्डित केरी पोथियाँ ज्यूँ तीतरको ज्ञान ।
ओराँ सगुन बतावहि आपा फंद न जान ॥
करनी बिन कथनी कथे अज्ञानी दिन रात ।
कूकर ज्यूँ भुसता फिरे सुनी सुनाई बात ॥“
हमें एक ने बताया‒‘कूकर ज्यूँ भुसता फिरे’‒इसका अर्थ यह हुआ कि एक कुत्ता यहाँ किसी को देखकर भुसेगा तो दूसरे मोहल्लेके कुत्ते भी देखा-देखी भुसने लग जायेंगे । एक-एक को सुनकर सब कुत्ते भुसने लग जायेंगे । अब उनको पूछा जाय कि किस को भुसते हो ? यह तो पता नहीं । दूसरा भुसता है न, इसलिये बिना देखे ही भुसना शुरू कर दिया । ऐसे ही दूसरा कहता है तो अपने भी कहना शुरू कर दिया । अरे, वह क्यों कहता है ? क्या शिक्षा देता है ? उसका क्या विचार है ? सुनी-सुनायी बात कहना शुरू कर देनेसे बोध नहीं होता । इसलिये मनुष्य को अपनी जानकारी अपने आचरणमें लानी चाहिये ।
राम ! राम !! राम !!!
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की “मानस में नाम-वन्दना” पुस्तकसे


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