रविवार, 3 दिसंबर 2017

भगवान्‌ विष्णु .....(पोस्ट.०१)


।। जय श्रीहरिः ।।
भगवान्‌ विष्णु .....(पोस्ट.०१)
परब्रह्म परमात्मा एक ही हैं । उनसे बढ़कर दूसरा कोई व्यापक, निर्विकार, सदा रहनेवाला तत्त्व नहीं है । गीतामें उस तत्त्वका ‘ज्ञेय’ नामसे वर्णन किया गया है (१३ । १२-१७) । जिसको जान सकते हैं, जो जानने योग्य है तथा जिसको अवश्य जानना चाहिये, उसको ‘ज्ञेय’ कहते हैं । उसको जान लेने पर मनुष्य ज्ञातज्ञातव्य होकर सदा के लिये जन्म-मरणसे रहित हो जाता है । उस अनादि और परब्रह्म परमात्मतत्त्वको सत् भी नहीं कह सकते और असत् भी नहीं कह सकते अर्थात् उसमें सत्-असत् शब्दों की पहुँच नहीं होती; क्योंकि वह शब्दातीत है ।
जैसे स्याही में सब जगह सब तरह की लिपियाँ विद्यमान रहती हैं और सोने में सब जगह सब तरह के गहने, मूर्तियाँ और उनके अवयव विद्यमान रहते हैं, ऐसे ही उस परमात्मतत्त्वमें सब जगह अनन्त वस्तुएँ, व्यक्ति और उनके अवयव विद्यमान रहते हैं । इसलिये वे सम्पूर्ण ब्रह्माण्डोंको अपने एक अंशसे व्याप्त करके स्थित हैं‒‘विष्टभ्याहमिदं कृत्स्नमेकांशेन स्थितो जगत्’ (गीता १० । ४२) । वे परमात्मा सम्पूर्ण इन्द्रियोंसे रहित होनेपर भी इन्द्रियोंके विषयोंको ग्रहण करते हैं, आसक्तिरहित होने पर भी सम्पूर्ण संसारका भरण-पोषण करते हैं और निर्गुण होनेपर भी गुणोंके भोक्ता बनते हैं । वे सम्पूर्ण प्राणियों के बाहर-भीतर परिपूर्ण हैं और उन प्राणियों के रूप में भी वे ही हैं‒‘वासुदेवः सर्वम्’ (गीता ७ । १९) । देश, काल और वस्तु‒तीनों ही दृष्टियों से वे परमात्मा दूर-से-दूर भी हैं और नजदीक-से-नजदीक भी हैं ।[*] अत्यन्त सूक्ष्म होने से वे इन्द्रियों और अन्तःकरण की पकड़ में नहीं आते ।
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[*] दूर से दूर देश में भी वे परमात्मा हैं और नजदीक-से-नजदीक देश में भी वे परमात्मा हैं | सबसे पहले भी वे परमात्मा थे, सबके बाद भी वे परमात्मा रहेंगे और अब वस्तुओं के रूप में भी वे परमात्मा हैं |
नारायण ! नारायण !! नारायण !!!
(शेष आगामी पोस्ट में)
‒---- गीता प्रेस,गोरखपुर से प्रकाशित ‘कल्याण-पथ’ पुस्तक से


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