||| ॐ श्री परमात्मने नम: ||
प्रह्लाद पर संत-कृपा..(02)
“प्रेम बदौं प्रहलादहि को जिन पाहनतें परमेश्वरु काढ़े ॥“
प्रेम तो प्रह्लाद जी का है, जिन्होंने पत्थरमें से रामजी को निकाल लिया । जिस पत्थरमें से कोई-सा रस नहीं निकलता, ऐसे पत्थरमें से रसराज श्रीठाकुरजी को निकाल लिया । ‘पाहनतें परमेश्वरु काढ़े’ थम्भे में से भगवान् प्रकट हो गये । थम्भे अपने यहाँ भी बहुत-से खड़े हैं । थम्भा तो है ही, पर प्रह्लाद नहीं है । राक्षस के घर के थम्भों से ये अशुद्ध थोड़े ही हैं ? अपवित्र थोड़े ही हैं, पर जरूरत प्रह्लाद की है‒
‘प्रकर्षेण आह्लादः यस्य स प्रह्लादः ।’ …इधर तो मार पड़ रही है, पर भीतर खुशी हो रही है, प्रसन्नता हो रही है । भगवान् की कृपा देख-देखकर हर समय आनन्द हो रहा है । ऐसे हम भी प्रह्लाद हो जायँ ।
‘प्रकर्षेण आह्लादः यस्य स प्रह्लादः ।’ …इधर तो मार पड़ रही है, पर भीतर खुशी हो रही है, प्रसन्नता हो रही है । भगवान् की कृपा देख-देखकर हर समय आनन्द हो रहा है । ऐसे हम भी प्रह्लाद हो जायँ ।
आपत्ति आवे, चाहे सम्पत्ति आवे, हर समय भगवान् की कृपा समझें । भगवान् की कृपा है ही, हम मानें तो है, न मानें तो है, जानें तो है, न जानें तो है । पर नहीं जानेंगे, नहीं मानेंगे तो दुःख पायेंगे । भीतरसे प्रभु कृपा करते ही रहते हैं ।बच्चा चाहे रोवे, चाहे हँसे, माँ की कृपा तो बनी ही रहती है, वह पालन करती ही है । बिना कारण जब छोटा बच्चा ज्यादा हँसता है तो माँ के चिन्ता हो जाती है कि बिना कारण हँसता है तो कुछ-न-कुछ आफत आयेगी । ऐसे आप संसार की खुशी ज्यादा लेते हो तो रामजी के विचार आता है कि यह ज्यादा हँसता है तो कोई आफत आयेगी । यह अपशकुन है ।
नाम रूप गति अकथ कहानी ।
समुझत सुखद न परति बखानी ॥
समुझत सुखद न परति बखानी ॥
………..(मानस, बालकाण्ड, दोहा २१ । ७)
नाम और रूप (नामी) की जो गति है, इसका जो वर्णन है, ज्ञान है, इसकी जो विशेष कहानी है, वह समझने में महान् सुख देनेवाली है; परंतु इसका विवेचन करना बड़ा कठिन है । जैसे नाम की विलक्षणता है, ऐसे ही रूप की भी विलक्षणता है । अब दोनों में कौन बड़ा है, कौन छोटा है‒यह कहना कैसे हो सकता है ! भगवान् का नाम याद करो, चाहे भगवान् के स्वरूप को याद करो, दोनों विलक्षण हैं । भगवान् के नाम अनन्त हैं, भगवान् के रूप अनन्त हैं, भगवान्की महिमा अनन्त है और भगवान् के गुण अनन्त हैं । इनकी विलक्षणता का वाणी क्या वर्णन कर सकती है ! ‘यतो वाचो निवर्तन्ते अप्राप्य मनसा सह ।’, ‘मन समेत जेहि जान न बानी’ मन भी वहाँ कल्पना नहीं कर सकता । बुद्धि भी वहाँ कुण्ठित हो जाती है तो वर्णन क्या होगा ?
राम ! राम !! राम !!!
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की “मानस में नाम-वन्दना” पुस्तकसे
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