|| जय श्रीहरिः ||
गीतोक्त सदाचार..(पोस्ट..०२)
भगवान् घोषणा करते हैं‒
“अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक् ।
साधुरेव स मन्तव्यः सम्यग्व्यवसितो हि सः ॥“
(गीता ९ । ३०)
साधुरेव स मन्तव्यः सम्यग्व्यवसितो हि सः ॥“
(गीता ९ । ३०)
‘अगर कोई दुराचारी-से-दुराचारी भी अनन्यभावसे मेरा भजन करता है तो उसको साधु ही मानना चाहिये । कारण कि उसने निश्चय बहुत अच्छी तरह कर लिया है ।’
तात्पर्य है कि बाहर से साधु न दीखने पर भी उसको साधु ही मानना चाहिये; क्योंकि उसने यह पक्का निश्चय कर लिया है कि अब मेरे को केवल भजन ही करना है । स्वयं का निश्चय होने के कारण वह किसी प्रकार के प्रलोभन से अथवा विपत्ति आने पर भी अपने ध्येय से विचलित नहीं किया जा सकता ।
साधक तभी अपने ध्येय-लक्ष्यसे विचलित होता है, जब वह असत्‒संसार और शरीरको ‘है’ अर्थात् सदा रहनेवाला मान लेता है । असत्की स्वतन्त्र सत्ता न होनेपर भी भूलसे मनुष्यने उसे सत् मान लिया और भोग-संग्रहकी ओर आकृष्ट हो गया । अतः असत्‒संसार, शरीर, परिवार, रुपये-पैसे, जमीन, मान, बड़ाईसे विमुख होकर (इन्हें अपना मानकर इनसे सुख न लेकर और सुख लेनेकी इच्छा न रखकर) इनका यथायोग्य सदुपयोग करना है तथा सत्-तत्त्व (परमात्मा) को ही अपना मानना है । श्रीमद्भगवद्गीताके अनुसार असत् (संसार) की सत्ता नहीं है और सत्-तत्त्व (परमात्मा) का अभाव नहीं है‒
“नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः ।“
.......... (२ । १६)
.......... (२ । १६)
जिस वास्तविक तत्त्वका कभी अभाव अथवा नाश नहीं होता, उसका अनुभव हम सबको हो सकता है । हमारा ध्यान उस तत्त्वकी ओर न होनेसे ही वह अप्राप्त-सा हो रहा है । उस सत्-तत्त्वका विवेचन गीतामें भगवान्ने पाँच प्रकारसे किया है ।
(१) सद्भावे (१७ । २६)
(२) साधुभावे च सदित्येतत् प्रयुज्यते । (१७ । २६)
(३) प्रशस्ते कर्मणि तथा सच्छब्दः पार्थ युज्यते ॥
(१७ । २६)
(४) यज्ञे तपसि दाने च स्थितिः सदिति चोच्यते ।
(१७ । २७)
(५) कर्म चैव तदर्थीयं सदित्येवाभिधीयते ॥
(१७ । २७)
(२) साधुभावे च सदित्येतत् प्रयुज्यते । (१७ । २६)
(३) प्रशस्ते कर्मणि तथा सच्छब्दः पार्थ युज्यते ॥
(१७ । २६)
(४) यज्ञे तपसि दाने च स्थितिः सदिति चोच्यते ।
(१७ । २७)
(५) कर्म चैव तदर्थीयं सदित्येवाभिधीयते ॥
(१७ । २७)
(शेष आगामी पोस्ट में )
‒---- गीता प्रेस,गोरखपुर से प्रकाशित ‘कल्याण-पथ’ पुस्तक से
‒---- गीता प्रेस,गोरखपुर से प्रकाशित ‘कल्याण-पथ’ पुस्तक से
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