शुक्रवार, 15 दिसंबर 2017

उद्धार का सुगम उपाय..(02)


|| ॐ श्री परमात्मने नम: ||
उद्धार का सुगम उपाय..(02)
हमारे भाई-बहनों में यह विचार उठता है कि हमारे को कोई विशेष साधन बताया जाय, और जब उनको कहते हैं कि ऐसे प्राणायाम करो, ऐसे बैठो, ऐसे आहार-विहार करो तो कह देंगे‒‘महाराज ! ऐसे तो हमारे से होता नहीं, हम तो साधारण आदमी हैं, हम गृहस्थी हैं, निभता नहीं है, क्या करें ? यह तो कठिन है ।’ फिर ‘राम-राम’ करो तो वे कहेंगे कि ‘राम-राम’ हरेक बालक भी करते हैं । ‘राम-राम’ में क्या है ? अब कौन-सा बढ़िया साधन बतावें ? अगर विधियाँ बतावें तो होती नहीं हमारे से, और ‘राम-राम तो हरेक बालक ही करता है । ‘राम-राम’ में क्या है ! यह जवाब मिलता है । अब आप ही बताओ उनको क्या कहा जाय !
परमात्म तत्त्वसे विमुख होने का यह एक तरह से बढ़िया तरीका है । भगवन्नाम के प्रकट हो जाने से नाम में शक्ति कम नहीं हुई है । नाम में अपार शक्ति है और ज्यों-की-त्यों मौजूद है । इसको संतों ने हम लोगों पर कृपा करके प्रकट कर दिया; परंतु लोगों को यह साधारण दीखता है । नाम-जप साधारण तभी तक दीखता है, जब तक इसका सहारा नहीं लेते हैं, इसके शरण नहीं होते हैं । शरण कैसे होवें ? विधि क्या है ?
शरण लेनेकी विधि नहीं होती है । शरण लेनेकी तो आवश्यकता होती है । जैसे, चोर-डाकू आ जाये मारने-पीटने लगें, ऐसी आफतमें आ जायँ तो पुकारते हैं कि नहीं, ‘मेरी रक्षा करो, मुझे बचाओ’ ऐसे चिल्लाते हैं । कोई लाठी लेकर कुत्ते के पीछे पड़ जाय और वहाँ भागने की कहीं जगह नहीं हो तो बेचारा कुत्ता लाठी लगने से पहले ही चिल्लाने लगता है । यह चिल्लाना क्या है ? वह पुकार करता है कि मेरी रक्षा होनी चाहिये । उसके पुकार की कोई विधि होती है क्या ? मुहूर्त होता है क्या ? ‘हरिया बंदीवान ज्यूँ करिये कूक पुकार’
शरणागति सुगम होती है, जब अपने पर आफत आती है और अपनेको कोई भी उपाय नहीं सूझता, तब हम भगवान्‌के शरण होते हैं । उस समय हम जितना भगवान्‌के आधीन होते हैं, उतना ही काम बहुत जल्दी बनता है । इसमें विधि की आवश्यकता नहीं है । बालक माँको पुकारता है तो क्या कोई विधि पूछता है, या मुहूर्त पूछता है कि इस समयमें रोना शुरू करूँ, यह सिद्ध होगा कि नहीं होगा अथवा ऐसा समय बाँधता है कि आधा घण्टा रोऊँ या दस मिनट रोऊँ; वह तो माँ नहीं मिले, तबतक रोता रहता है । इस माँके मिलनेमें सन्देह है । यह माँ मर गयी हो या कहीं दूर चली गयी हो तो कैसे आवेगी ? पर ठाकुरजी तो ‘सर्वतः श्रुतिमल्लोके’ सब जगह सुनते हैं । इसलिये ‘हे नाथ ! हे नाथ ! मैं आपकी शरण हूँ’‒ऐसे भगवान्‌के शरण हो जायँ, उनके आश्रित हो जायँ । इसमें अगर कोई बाधक है तो वह है अपनी बुद्धिका, अपने वर्णका, अपने आश्रमका, अपनी योग्यता-विद्या आदिका अभिमान । भीतरमें उनका सहारा रहता है कि मैं ऐसा काम कर सकता हूँ । जबतक यह बल, बुद्धि, योग्यता आदिको अपनी मानता रहता है, तबतक सच्ची शरण हो नहीं सकता । इसलिये इनके अभिमानसे रहित होकर चाहे कोई शरण हो जाय और जब कभी हो जाय, उसी वक्त उसका बेड़ा पार है ।
राम ! राम !! राम !!!
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की “मानस में नाम-वन्दना” पुस्तकसे


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