शुक्रवार, 15 दिसंबर 2017

कलिजुग केवल हरि गुन गाहा।




जय सियाराम जय सियाराम जय सियाराम जय जय सियाराम

“कलिजुग केवल हरि गुन गाहा। गावत नर पावहिं भव थाहा ।।“

सम्पूर्ण राम चरितमानस में आद्यन्त भक्ति का गम्भीर समुद्र लहराता हुआ दिखता है | इस महाकाव्य में यद्यपि स्थल स्थल पर योग-यज्ञ, ज्ञान-वैराग्य आदि का विस्तृत विवेचन किया गया है, पर वह सब भक्ति की पृष्ठभूमि के रूप में ही हुआ है |

राम चरितमानस के प्रत्येक पात्र के आराध्य भगवान् श्रीराम हैं – वे चाहे भरत हों या शबरी,विभीषण हों या हनुमान, सुतीक्ष्ण हों या केवट | भगवान् श्रीराम के चरणों में इनकी अविचल भक्ति देखते ही बनती है | गोस्वामी तुलसीदास ने अपनी समन्वय-भावना को पुष्ट करने के लिए कहने को तो कह दिया कि –
“भगतिहि ग्यानहि नहिं कछु भेदा | उभय हरहिं भव सम्भव खेदा ||”
पर जहां अलग अलग ज्ञान और भक्ति का प्रसंग आया, वहाँ स्पष्ट रूप से उन्होंने ज्ञान मार्ग की दुस्तरता का उल्लेख करते हुए कहा –
“ग्यान पंथ कृपान कै धारा |”
(ज्ञान का मार्ग दोधारी तलवार की धार के समान है) —और ठीक इसके विपरीत भक्ति की सुगमता का उल्लेख करते हुए कहा—
“मोह न नारि नारि कें रूपा | पन्नगारि यह रीति अनूपा |”
भक्ति स्त्री है और माया भी स्त्री है | यद्यपि माया का रूप अत्यंत मनमोहक है, पर स्त्री, स्त्री के रूप पर मोहित नहीं होती | अर्थात् ज्ञान पर माया का जाल बिछ सकता है, पर भक्ति पर माया का जाल कभी भी नहीं चढ सकता | ज्ञानमार्गी सरलतया माया के जाल में फंस सकता है , पर भक्त कदापि नहीं |
(कल्याण- भाग ८८,संख्या ७)


कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

श्रीमद्भागवतमहापुराण चतुर्थ स्कन्ध - आठवां अध्याय..(पोस्ट०१)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  चतुर्थ स्कन्ध – आठवाँ अध्याय..(पोस्ट०१) ध्रुवका वन-गमन मैत्रेय उवाच - सनकाद्या नारदश्च ऋभुर्...