||ॐ श्री परमात्मने नम:||
एक संत की वसीयत (पोस्ट.४)
(श्रद्धेय स्वामी श्रीरामसुखदास जी महाराज की वसीयत)
(श्रद्धेय स्वामी श्रीरामसुखदास जी महाराज की वसीयत)
5. जिस स्थान पर इस शरीर का अन्तिम संस्कार किया जाए, वहां स्मृति के रूप में कुछ भी नहीं बनाना चाहिए, यहां तक कि उस स्थान पर केवल पत्थर आदि को रखने का भी मैं निषेध करता हूं। अन्तिम संस्कार से पूर्व वह स्थल जैसा उपेक्षित रहा है, इस शरीर के अन्तिम संस्कार के बाद भी वह स्थल वैसा ही उपेक्षित रहना चाहिए। अन्तिम संस्कार के बाद अस्थि आदि सम्पूर्ण अवशिष्ट सामग्री को गंगाजी में प्रवाहित कर देना चाहिए।
मेरी स्मृति के रूप में कहीं भी गोशाला, पाठशाला, चिकित्सालय आदि सेवार्थ संस्थाएं नहीं बनानी चाहिए। अपने जीवनकाल में भी मैंने अपने लिए कभी कहीं किसी मकान आदि का निर्माण नहीं कराया है और इसके लिए किसी को प्रेरणा भी नहीं दी है। यदि कोई व्यक्ति कहीं भी किसी मकान आदि को मेरे द्वारा अथवा मेरी प्रेरणा से निर्मित बताये तो उसको सर्वथा मिथ्या समझना चाहिए।
6. इस शरीर के शान्त होने के बाद सत्रहवीं, मेला या महोत्सव आदि बिल्कुल नहीं करना चाहिए और उन दिनों में किसी प्रकार की कोई मिठाई आदि भी नहीं प्रयोग करनी चाहिए। साधु-संत जिस प्रकार अब तक मेरे सामने भिक्षा लाते रहे हैं, उसी प्रकार लाते रहने चाहिए। अगर संतों के लिए सद्गृहस्थ अपने-आप भिक्षा लाते हैं तो उसी भिक्षा को स्वीकार करना चाहिए जिसमें कोई मीठी चीज न हो। अगर कोई साधु या सद्गृहस्थ बाहर से आ जायँ तो उनकी भोजन-व्यवस्था में मिठाई बिल्कुल नहीं बनानी चाहिए प्रत्युत् उनके लिए भी साधारण भोजन ही बनाना चाहिए |
7. इस शरीर के शान्त होने पर शोक अथवा शोक-सभा आदि नहीं करनी चाहिए, प्रत्युत सत्रह दिन तक सत्संग, भजन-कीर्तन, भगवन्नाम-जप, गीतापाठ, श्रीरामचरितमानसपाठ, संतवाणी-पाठ, भागवत-पाठ आदि आध्यात्मिक कृत्य ही होते रहने चाहिए। सनातन हिन्दू संस्कृति में इन दिनों के ये ही मुख्य कृत्य माने गए हैं।
8. इस शरीर के शांत होने के बाद सत्रहवीं आदि किसी भी अवसर पर यदि कोई सज्जन रुपया-पैसा, कपड़ा आदि भेंट करना चाहे तो नहीं लेना चाहिए अर्थात् किसी से भी किसी प्रकार की कोई भेंट बिल्कुल नहीं लेनी चाहिए। यदि कोई कहे कि हम तो मंदिर में भेंट चढाते हैं इसको फालतू बात मानकर इसका विरोध करना चाहिए | बाहर से कोई व्यक्ति किसी भी प्रकार की कोई भेंट किसी भी माध्यम से भेजे तो उसको सर्वथा अस्वीकार कर देना चाहिए | किसी से भी भेंट न लेने के साथ-साथ यह सावधानी भी रखनी चाहिए कि किसी को कोई भेंट, चद्दर, किराया आदि नहीं दिया जाए | जब सत्रहवीं का भी निषेध है तो फिर बरसी (वार्षिक तिथि) आदि का भी निषेध समझना चाहिए।
9. इस शरीर के शान्त होने के बाद इस (शरीर) से सम्बन्धित घटनाओं की जीवनी, स्मारिका, संस्मरण आदि किसी भी रूप में प्रकाशित नहीं किए जाने चाहिए।
अन्त में मैं अपने परिचित सभी संतों एवं सद्गृहस्थों से विनम्र निवेदन करता हूं कि जिन बातों का मैंने निषेध किया है, उनको किसी भी स्थिति में नहीं किया जाना चाहिए। इस शरीर के शान्त होने पर इन निर्देशों के विपरीत आचरण करके तथा किसी प्रकार का विवाद, विरोध, मतभेद, झगड़ा, वितण्डावाद आदि अवाञ्छनीय स्थिति उत्पन्न करके अपने को अपराध एवं पाप का भागी नहीं बनाना चाहिए प्रत्युत अत्यन्त धैर्य, प्रेम, सरलता एवं पारस्परिक विश्वास, निश्छल व्यवहार के साथ पूर्वोक्त निर्देशों का पालन करते हुए भगवन्नाम-कीर्तनपूर्वक अन्तिम संस्कार कर देना चाहिए। जब और जहां भी ऐसा संयोग हो, इस शरीर के सम्बंध में दिए गए निर्देशों का पालन वहां उपस्थित प्रत्येक सम्बंधित व्यक्ति को करना चाहिए।
मेरे जीवनकाल में मेरे द्वारा शरीर से, वाणी से, मन से, जाने-अनजाने में किसी को किसी प्रकार का कष्ट पहुंचा हो तो मैं उन सभी से विनम्र हृदय से करबद्ध क्षमा मांगता हूं। आशा है, सभी उदारतापूर्वक मुझको क्षमा प्रदान करेंगे।
------स्वामी रामसुखदास जी |
नारायण ! नारायण !!
‒---- गीता प्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित ‘एक संत की वसीयत’ पुस्तक से (पुस्तक कोड.1633)
‒---- गीता प्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित ‘एक संत की वसीयत’ पुस्तक से (पुस्तक कोड.1633)
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