।। जय श्रीहरिः ।।
भगवान् विष्णु .....(पोस्ट.०४)
उपासकोंकी प्रकृति, श्रद्धा-विश्वास, रुचि आदिको लेकर वे एक ही परमात्मा विष्णु, सूर्य, शिव, गणेश और शक्ति‒इन पाँच रूपोंको धारण करते हैं‒
‘सौराश्च शैवा गाणेशा वैष्णवाः शक्तिपूजकाः ।
मामेव प्राप्नुवन्तीह वर्षापः सागरं यथा ॥
एकोऽहं पञ्चधा जातः क्रीडया नामभिः किल ।
देवदत्तो यथा कश्चित् पुत्राद्याह्वाननामभिः ॥‘
.....................(पद्मपुराण, उत्तर॰ ९० । ६३-६४)
मामेव प्राप्नुवन्तीह वर्षापः सागरं यथा ॥
एकोऽहं पञ्चधा जातः क्रीडया नामभिः किल ।
देवदत्तो यथा कश्चित् पुत्राद्याह्वाननामभिः ॥‘
.....................(पद्मपुराण, उत्तर॰ ९० । ६३-६४)
‘जैसे वर्षाका जल सब ओरसे समुद्रमें ही जाता है, ऐसे ही विष्णु, सूर्य, शिव, गणेश और शक्तिके उपासक मेरेको ही प्राप्त होते हैं । जैसे एक ही देवदत्त नामक व्यक्ति पुत्र, पिता आदि अनेक नामोंसे पुकारा जाता है, ऐसे ही लीलाके लिये मैं एक ही पाँच रूपोंमें प्रकट होकर अनेक नामोंसे पुकारा जाता हूँ ।’
भगवान्के इन पाँचों रूपोंको लेकर पाँच सम्प्रदाय चले हैं‒वैष्णव, सौर, शैव, गाणपत और शाक्त । साधक किसी भी सम्प्रदायका हो, उसका ऐसा दृढ़ निश्चय रहना चाहिये कि भगवान्के जितने भी रूप हैं, वे सब तत्त्वसे एक ही हैं । रूप दूसरा है, पर तत्त्व दूसरा नहीं है । अगर वह ऐसा दृढ़ निश्चय न कर सके तो वह अपने इष्ट रूपको सर्वोपरि मानकर दूसरे रूपोंको उसका अनुयायी माने । जैसे, उसका इष्ट विष्णु है तो वह ऐसा माने कि सूर्य, शिव आदि सभी देवता विष्णुके उपासक हैं, अनुयायी हैं । ऐसा भी निश्चय न बैठे तो सम्पूर्ण देश, काल, क्रिया, वस्तु, व्यक्ति, घटना, परिस्थिति, अवस्था आदिमें एक ही परमात्मतत्त्व सत्ता-रूपसे विद्यमान है‒ऐसा मानकर बाहर-भीतरसे चुप (चिन्तनरहित) हो जाय ।
अगर विष्णु का ध्यान करते समय शिव, गणेश आदि याद आ जायें तो ‘मेरे इष्ट ही अपनी मरजी से शिव आदि के रूपमें आये हैं’‒ऐसा मानकर साधक को प्रसन्न होना चाहिये । अगर संसार याद आ जाय तो भी साधक उसको भगवान्का ही रूप समझे [*] ।
सम्प्रदायों में परस्पर जो राग-द्वेष, खटपट देखी जाती है, उसका कारण बेसमझी है । एक अनुयायी होता है और एक पक्षपाती (जय बोलनेवाला) होता है । अनुयायी तो अपने सम्प्रदायके सिद्धान्तों का पालन करता है पर पक्षपाती सिद्धान्तों के पालनका खयाल नहीं करता । खटपट पक्षपाती के द्वारा ही होती है, अनुयायी के द्वारा नहीं ।
जब तक ‘अहम्’ रहता है, तभी तक दार्शनिक भेद तथा अपने-अपने सम्प्रदाय का पक्षपात रहता है । ‘अहम्’ का सर्वथा अभाव होने पर दार्शनिक और साम्प्रदायिक भेद नहीं रहता, प्रत्युत एक तत्त्व रहता है । जहाँ तत्त्व है, वहाँ भेद नहीं है और जहाँ भेद है, वहाँ तत्त्व नहीं है । ऐसा वह तत्त्व ही महाविष्णु, सदाशिव, महाशक्ति, परात्पर परब्रह्म राम तथा कृष्ण आदि नामोंसे कहा जाता है और वही समस्त साधकों का साध्य-तत्त्व है ।
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[*] खं वायुमग्रिं सलिलं महीं च ज्योतींषि सत्त्वानि दिशो द्रुमादीन् ।
सरित्समुद्रांश्च हरेः शरीरं यत् किञ्च भूतं प्रणमेदनन्यः ॥
(श्रीमद्भा॰ ११ । २ । ४१)
[*] खं वायुमग्रिं सलिलं महीं च ज्योतींषि सत्त्वानि दिशो द्रुमादीन् ।
सरित्समुद्रांश्च हरेः शरीरं यत् किञ्च भूतं प्रणमेदनन्यः ॥
(श्रीमद्भा॰ ११ । २ । ४१)
अर्थात् आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी, ग्रह-नक्षत्र, प्राणी, दिशाएँ, वृक्ष-वनस्पति, नदी, समुद्र‒सब-के-सब भगवान्के ही शरीर हैं अर्थात् सभी रूपोंमें स्वयं भगवान् प्रकट हैं‒ऐसा समझकर जो भी भक्तके सामने आ जाता है, उसको वह अनन्य-भावसे प्रणाम करता है ।
नारायण ! नारायण !! नारायण !!!
‒---- गीता प्रेस,गोरखपुर से प्रकाशित ‘कल्याण-पथ’ पुस्तक से
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