||श्री परमात्मने नम: ||
विवेक चूडामणि (पोस्ट.४०)
आत्म निरूपण
अथ ते सम्प्रवक्ष्यामि स्वरूपं परमात्मनः ।
यद्विज्ञाय नरो बन्धान्मुक्तः कैवल्यमश्नुते ॥ १२६ ॥
(अब मैं तुझे परमात्मा का स्वरूप बताता हूँ जिसे जानकार मनुष्य बन्धन से छूटकर कैवल्यपद प्राप्त करता है)
अस्ति कश्चित् स्वयं नित्यमहंप्रत्ययलम्बनः ।
अवस्थात्रयसाक्षी सन्पञ्चकोशविलक्षणः ॥ १२७ ॥
(अहं-प्रत्यय की आधार कोई स्वयं नित्य पदार्थ है, जो तीनों अवस्थाओं का साक्षी होकर भी पञ्चकोशातीत है)
यो विजनाति सकलं जाग्रत्स्वप्नसुषुप्तिषु ।
बुद्धितद्वृत्तिसद्भावनमभाव महमित्ययम् ॥ १२८ ॥
(जो जाग्रत्, स्वप्न और सुषुप्ति तीनों अवस्थाओं में बुद्धि और उसकी वृत्तियों के होने और न होने को ‘अहंभाव’ से स्थित हुआ जानता है)
यः पश्यति स्वयं सर्वं यं न पश्यति कश्चन ।
यश्चेतयति बद्ध्यादिं न तु यं चेतयत्ययम् ॥ १२९ ॥
(जो स्वयं सबको देखता है किन्तु जिसको कोई नहीं देख सकता, जो बुद्धि आदि को प्रकाशित करता है, किन्तु जिसको बुद्धि आदि प्रकाशित नहीं कर सकते)
येन विश्वमिदं व्यापतं यन्न व्याप्नोति किञ्चन ।
आभारूपमिदं सर्वं यं भान्तमनुभात्ययम् ॥ १३० ॥
(जिसने सम्पूर्ण विश्व को व्याप्त किया हुआ है, किन्तु जिस को कोई व्याप्त नहीं कर सकता तथा जिसके भासने पर यह आभासरूप सारा जगत भासित हो रहा है)
यस्य सन्निधिमात्रेण देहेन्द्रियमनोधियः ।
विषयेषु स्वकीयेषु वर्तन्ते प्रेरिता इव ॥ १३१ ॥
( जिसकी सन्निधिमात्र से देह, इन्द्रिय, मन और बुद्धि प्रेरित हुए- से अपने अपने विषयों में बर्तते हैं )
अहङ्कारादिदेहान्ता विषयाश्च सुखादयः ।
वेद्यन्ते घटवद्येन नित्यबोधस्वरूपिणा ॥ १३२ ॥
(अहंकार से लेकर देहपर्यन्त और सुख आदि समस्त विषय जिस नित्यज्ञानस्वरूप के द्वारा घट के समान जाने जाते हैं)
एषोऽन्तरात्मा पुरुषः पुराणो
निरन्तराखण्डसुखानुभूतिः ।
सदैकरूपः प्रतिबोधमात्रो
येनेषिता वागसवश्चरन्ति ॥ १३३ ॥
(यही नित्य अखण्डानन्दानुभवरूप अंतरात्मा पुराणपुरुष है, जो सदा एकरूप और बोधमात्र है तथा जिसकी प्रेरणा से वागादि इन्द्रियाँ और प्राणादि चलते हैं )
नारायण ! नारायण !!
शेष आगामी पोस्ट में
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित “विवेक चूडामणि”..हिन्दी अनुवाद सहित(कोड-133) पुस्तकसे
विवेक चूडामणि (पोस्ट.४०)
आत्म निरूपण
अथ ते सम्प्रवक्ष्यामि स्वरूपं परमात्मनः ।
यद्विज्ञाय नरो बन्धान्मुक्तः कैवल्यमश्नुते ॥ १२६ ॥
(अब मैं तुझे परमात्मा का स्वरूप बताता हूँ जिसे जानकार मनुष्य बन्धन से छूटकर कैवल्यपद प्राप्त करता है)
अस्ति कश्चित् स्वयं नित्यमहंप्रत्ययलम्बनः ।
अवस्थात्रयसाक्षी सन्पञ्चकोशविलक्षणः ॥ १२७ ॥
(अहं-प्रत्यय की आधार कोई स्वयं नित्य पदार्थ है, जो तीनों अवस्थाओं का साक्षी होकर भी पञ्चकोशातीत है)
यो विजनाति सकलं जाग्रत्स्वप्नसुषुप्तिषु ।
बुद्धितद्वृत्तिसद्भावनमभाव
(जो जाग्रत्, स्वप्न और सुषुप्ति तीनों अवस्थाओं में बुद्धि और उसकी वृत्तियों के होने और न होने को ‘अहंभाव’ से स्थित हुआ जानता है)
यः पश्यति स्वयं सर्वं यं न पश्यति कश्चन ।
यश्चेतयति बद्ध्यादिं न तु यं चेतयत्ययम् ॥ १२९ ॥
(जो स्वयं सबको देखता है किन्तु जिसको कोई नहीं देख सकता, जो बुद्धि आदि को प्रकाशित करता है, किन्तु जिसको बुद्धि आदि प्रकाशित नहीं कर सकते)
येन विश्वमिदं व्यापतं यन्न व्याप्नोति किञ्चन ।
आभारूपमिदं सर्वं यं भान्तमनुभात्ययम् ॥ १३० ॥
(जिसने सम्पूर्ण विश्व को व्याप्त किया हुआ है, किन्तु जिस को कोई व्याप्त नहीं कर सकता तथा जिसके भासने पर यह आभासरूप सारा जगत भासित हो रहा है)
यस्य सन्निधिमात्रेण देहेन्द्रियमनोधियः ।
विषयेषु स्वकीयेषु वर्तन्ते प्रेरिता इव ॥ १३१ ॥
( जिसकी सन्निधिमात्र से देह, इन्द्रिय, मन और बुद्धि प्रेरित हुए- से अपने अपने विषयों में बर्तते हैं )
अहङ्कारादिदेहान्ता विषयाश्च सुखादयः ।
वेद्यन्ते घटवद्येन नित्यबोधस्वरूपिणा ॥ १३२ ॥
(अहंकार से लेकर देहपर्यन्त और सुख आदि समस्त विषय जिस नित्यज्ञानस्वरूप के द्वारा घट के समान जाने जाते हैं)
एषोऽन्तरात्मा पुरुषः पुराणो
निरन्तराखण्डसुखानुभूतिः ।
सदैकरूपः प्रतिबोधमात्रो
येनेषिता वागसवश्चरन्ति ॥ १३३ ॥
(यही नित्य अखण्डानन्दानुभवरूप अंतरात्मा पुराणपुरुष है, जो सदा एकरूप और बोधमात्र है तथा जिसकी प्रेरणा से वागादि इन्द्रियाँ और प्राणादि चलते हैं )
नारायण ! नारायण !!
शेष आगामी पोस्ट में
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित “विवेक चूडामणि”..हिन्दी अनुवाद सहित(कोड-133) पुस्तकसे
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