||श्री परमात्मने नम: ||
विवेक चूडामणि (पोस्ट.४१)
आत्म निरूपण
अत्रैव सत्त्वात्मनि धीगुहाया-
मव्याकृताकाश उरुप्रकाशः ।
आकाश उच्चै रविवत्प्रकाशते
स्वतेजसा विश्वमिदं प्रकाशयन् ॥ १३४ ॥
(इस सत्त्वात्मा अर्थात् बुद्धिरूप गुहा में स्थित अव्यक्ताकाश के भीतर एक परमप्रकाशमय आकाश सूर्य के समान अपने तेज से इस सम्पूर्ण जगत् को देदीप्यमान करता हुआ बड़ी तीव्रता से प्रकाशमान हो रहा है)
ज्ञाता मनोऽहङ्कृतिविक्रियाणां
देहेन्द्रियप्राणकृतक्रियाण ाम् ।
अयोऽग्निवत्ताननुवर्तमानो
न वेष्टते नो विकरोति किञ्चन ॥ १३५ ॥
(वह मन और अहंकाररूप विचारों का तथा देह,इन्द्रिय और प्राणों की क्रियाओं का ज्ञाता है | तथा तपाए हुए लोहपिण्ड के समान उनका अनुवर्तन करता हुआ भी न कुछ चेष्टा करता है और न विकार को ही प्राप्त होता है)
न जायते नो म्रियते न वर्धते
न क्षीयते नो विकरोति नित्यः ।
विलीयमानेऽपि वपुष्यमुष्मिन्
न लीयते कुम्भ इवाम्बरं स्वयम् ॥ १३६ ॥
(वह न जन्मता है, न मरता है, न बढता है, न घटता है और न विकार को प्राप्त होता है | वह नित्य है और शरीर के लीन होने पर भी घट के टूटने पर घटाकाश के समान लीन नहीं होता)
प्रकृतिविकृतिभिन्नः शुद्धबोधस्वभावः
सदसदिदमशेषं भासयन्निर्विशेषः ।
विलसति परमात्मा जाग्रदादिष्ववस्था-
स्वहमहमिति साक्षात् साक्षिरूपेण बुद्घेः ॥ १३७ ॥
(प्रकृति और उसके विकारों से भिन्न, शुद्ध ज्ञानस्वरूप , वह निर्विशेष परमात्मा सत्-असत् सबको प्रकाशित करता हुआ जाग्रत् आदि अवस्थाओं में अहंभाव से स्फुरित होता हुआ बुद्धि के साक्षीरूप से साक्षात् विराजमान है)
नियमितमनसामुं त्वं स्वमात्मानमत्म-
न्ययमहमिति साक्षाद्विद्धि बुद्धिप्रसादत् ।
जनिमरणतरङ्गापारसंसारसिन्धु ं
प्रतर भव कृर्तार्थो ब्रह्मरूपेण संस्थः ॥ १३८ ॥
(तू इस आत्मा को संयतचित्त होकर बुद्धि के प्रसन्न होने पर ‘यह मैं हूँ’—ऐसा अपने अंत:करण में साक्षात् अनुभव कर | और [इसप्रकार] जन्म-मरणरूपी तरंगों वाले इस अपार संसार-सागर को पार कर तथा ब्रह्मरूप से स्थित होकर कृतार्थ हो जा)
नारायण ! नारायण !!
शेष आगामी पोस्ट में
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित “विवेक चूडामणि”..हिन्दी अनुवाद सहित(कोड-133) पुस्तकसे
विवेक चूडामणि (पोस्ट.४१)
आत्म निरूपण
अत्रैव सत्त्वात्मनि धीगुहाया-
मव्याकृताकाश उरुप्रकाशः ।
आकाश उच्चै रविवत्प्रकाशते
स्वतेजसा विश्वमिदं प्रकाशयन् ॥ १३४ ॥
(इस सत्त्वात्मा अर्थात् बुद्धिरूप गुहा में स्थित अव्यक्ताकाश के भीतर एक परमप्रकाशमय आकाश सूर्य के समान अपने तेज से इस सम्पूर्ण जगत् को देदीप्यमान करता हुआ बड़ी तीव्रता से प्रकाशमान हो रहा है)
ज्ञाता मनोऽहङ्कृतिविक्रियाणां
देहेन्द्रियप्राणकृतक्रियाण
अयोऽग्निवत्ताननुवर्तमानो
न वेष्टते नो विकरोति किञ्चन ॥ १३५ ॥
(वह मन और अहंकाररूप विचारों का तथा देह,इन्द्रिय और प्राणों की क्रियाओं का ज्ञाता है | तथा तपाए हुए लोहपिण्ड के समान उनका अनुवर्तन करता हुआ भी न कुछ चेष्टा करता है और न विकार को ही प्राप्त होता है)
न जायते नो म्रियते न वर्धते
न क्षीयते नो विकरोति नित्यः ।
विलीयमानेऽपि वपुष्यमुष्मिन्
न लीयते कुम्भ इवाम्बरं स्वयम् ॥ १३६ ॥
(वह न जन्मता है, न मरता है, न बढता है, न घटता है और न विकार को प्राप्त होता है | वह नित्य है और शरीर के लीन होने पर भी घट के टूटने पर घटाकाश के समान लीन नहीं होता)
प्रकृतिविकृतिभिन्नः शुद्धबोधस्वभावः
सदसदिदमशेषं भासयन्निर्विशेषः ।
विलसति परमात्मा जाग्रदादिष्ववस्था-
स्वहमहमिति साक्षात् साक्षिरूपेण बुद्घेः ॥ १३७ ॥
(प्रकृति और उसके विकारों से भिन्न, शुद्ध ज्ञानस्वरूप , वह निर्विशेष परमात्मा सत्-असत् सबको प्रकाशित करता हुआ जाग्रत् आदि अवस्थाओं में अहंभाव से स्फुरित होता हुआ बुद्धि के साक्षीरूप से साक्षात् विराजमान है)
नियमितमनसामुं त्वं स्वमात्मानमत्म-
न्ययमहमिति साक्षाद्विद्धि बुद्धिप्रसादत् ।
जनिमरणतरङ्गापारसंसारसिन्धु
प्रतर भव कृर्तार्थो ब्रह्मरूपेण संस्थः ॥ १३८ ॥
(तू इस आत्मा को संयतचित्त होकर बुद्धि के प्रसन्न होने पर ‘यह मैं हूँ’—ऐसा अपने अंत:करण में साक्षात् अनुभव कर | और [इसप्रकार] जन्म-मरणरूपी तरंगों वाले इस अपार संसार-सागर को पार कर तथा ब्रह्मरूप से स्थित होकर कृतार्थ हो जा)
नारायण ! नारायण !!
शेष आगामी पोस्ट में
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित “विवेक चूडामणि”..हिन्दी अनुवाद सहित(कोड-133) पुस्तकसे
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