||श्री परमात्मने नम: ||
विवेक चूडामणि (पोस्ट.३१)
प्राण के धर्म
उच्छ्वासनिःश्वासविजृम्भणक ्षुत्
प्रस्पन्दनाद्युत्क्रमणादिक ाः क्रियाः ।
प्राणादिकर्माणि वदन्ति तज्ज्ञाः
प्राणस्य धर्मावशनापिपासे ॥ १०४ ॥
(श्वास,प्रश्वास, जम्हाई,छींक,काँपना और उछलना आदि क्रियाओं को तत्त्वज्ञ प्राणादि का धर्म बतलाते हैं तथा क्षुधा-पिपासा भी प्राण ही के धर्म हैं)
अहंकार
अन्तः करणमेतेषु चक्षुरादिषु वर्ष्मणि ।
अहमित्यभिमानेन तिष्ठत्याभासतेजसा ॥ १०५ ॥
(शरीर के अंदर इन चक्षु आदि इन्द्रियों (इन्द्रिय के गोलकों) –में चिदाभास के तेज से व्याप्त हुआ अंत:करण “मैं-पन” का अभिमान करता हुआ स्थिर रहता है)
अहङ्कारः स विज्ञेयः कर्ता भोक्ताभिमान्ययम् ।
सत्त्वादिगुणयोगेन चावस्थात्रयमश्नुते ॥ १०६ ॥
(इसीको अहंकार जानना चाहिए | यही करता,भोक्ता तथा मैं-पन का अभिमान करने वाला है और यही सत्त्व आदि गुणों के योग से तीनों अवस्थाओं को प्राप्त होता है)
विषयाणामानुकूल्ये सुखी दुःखी विपर्यये ।
सुखं दुःखं च तद्धर्मः सदानन्दस्य नात्मनः ॥ १०७ ॥
(विषयों की अनुकूलता से यह सुखी और प्रतिकूलता से दु:खी होता है | सुख और दु:ख इस अहंकार के ही धर्म हैं, नित्यानन्दस्वरूप आत्मा के नहीं)
नारायण ! नारायण !!
शेष आगामी पोस्ट में
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित “विवेक चूडामणि”..हिन्दी अनुवाद सहित(कोड-133) पुस्तकसे
विवेक चूडामणि (पोस्ट.३१)
प्राण के धर्म
उच्छ्वासनिःश्वासविजृम्भणक
प्रस्पन्दनाद्युत्क्रमणादिक
प्राणादिकर्माणि वदन्ति तज्ज्ञाः
प्राणस्य धर्मावशनापिपासे ॥ १०४ ॥
(श्वास,प्रश्वास, जम्हाई,छींक,काँपना और उछलना आदि क्रियाओं को तत्त्वज्ञ प्राणादि का धर्म बतलाते हैं तथा क्षुधा-पिपासा भी प्राण ही के धर्म हैं)
अहंकार
अन्तः करणमेतेषु चक्षुरादिषु वर्ष्मणि ।
अहमित्यभिमानेन तिष्ठत्याभासतेजसा ॥ १०५ ॥
(शरीर के अंदर इन चक्षु आदि इन्द्रियों (इन्द्रिय के गोलकों) –में चिदाभास के तेज से व्याप्त हुआ अंत:करण “मैं-पन” का अभिमान करता हुआ स्थिर रहता है)
अहङ्कारः स विज्ञेयः कर्ता भोक्ताभिमान्ययम् ।
सत्त्वादिगुणयोगेन चावस्थात्रयमश्नुते ॥ १०६ ॥
(इसीको अहंकार जानना चाहिए | यही करता,भोक्ता तथा मैं-पन का अभिमान करने वाला है और यही सत्त्व आदि गुणों के योग से तीनों अवस्थाओं को प्राप्त होता है)
विषयाणामानुकूल्ये सुखी दुःखी विपर्यये ।
सुखं दुःखं च तद्धर्मः सदानन्दस्य नात्मनः ॥ १०७ ॥
(विषयों की अनुकूलता से यह सुखी और प्रतिकूलता से दु:खी होता है | सुख और दु:ख इस अहंकार के ही धर्म हैं, नित्यानन्दस्वरूप आत्मा के नहीं)
नारायण ! नारायण !!
शेष आगामी पोस्ट में
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित “विवेक चूडामणि”..हिन्दी अनुवाद सहित(कोड-133) पुस्तकसे
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