❈ श्री हरिः शरणम् ❈
गीता में व्यक्तोपासना (पोस्ट 08)
( सम्पादक-कल्याण )
वास्तव में वे धन्य हैं जिनके लिये निराकार ईश्वर साकार बनकर प्रकट होते हैं, क्योंकि वे निराकार-साकार दोनों स्वरूपोंके तत्त्वको जानते हैं, इसीसे निराकाररूपसे अपने रामको सबमें रमा हुआ जानकर भी अव्यक्तरूपसे अपने कृष्णको सबमें व्याप्त समझकर भी धनुर्धारी मर्यादापुरुषोत्तम दशरथी राम-रूपमें और चित्तको आकर्षण करनेवाले मुरलीमनोहर श्रीकृष्णरूपमें उनकी उपासना करते हैं और उनकी लीला देख-देखकर परम आनन्दमें मग्न रहते हैं।
गोसाईजी महाराजने इसीलिये कहा है—
‘निर्गुनरूप सुलभ अति सगुन न जाने कोय।’
अतएव जो ‘सगुण’ सहित निर्गुणको जानते हैं, वे ही भगवान्के मतमें ‘योगवित्तम’ हैं!
अब यह देखना है कि गीता के व्यक्त भगवान् का क्या स्वरूप है, उनके उपासक की कैसी स्थिति और कैसे आचरण हैं और इस उपासनाकी प्रधान पद्धति क्या है? क्रमसे तीनोंपर विचार कीजिये--
गीतोक्त साकार उपास्यदेव एकदेशीय या सीमाबद्ध भगवान् नहीं हैं। वे निराकार भी हैं और साकार भी हैं। जो साकारोपासक अपने भगवान् की सीमा बाँधते हैं, वे अपने ही भगवान् को छोटा बनाते हैं। गीता के साकार भगवान् किसी एक मूर्ति, नाम या धाम विशेष में ही सीमित नहीं हैं। वे सत्, चेतन, आनन्दघन, विज्ञानानन्दमय, पूर्ण, सनातन, अनादि, अनन्त, अज, अव्यय, शान्त, सर्वव्यापी होते हुए भी सर्वशक्तिमान्, सर्वान्तर्यामी, सृष्टिकर्त्ता, परम दयालु, परम सुहृद्, परम उदार, परम प्रेमी, परम मनोहर, परम रसिक, परम प्रभु और परम शूर-शिरोमणि हैं। वे जन्म लेते हुए दीखनेपर भी अजन्मा हैं। वे साकार व्यक्तरूपमें रहनेपर भी निराकार हैं और निराकार होकर भी साकार हैं। वे एक या एक ही साथ अनेक स्थानों में व्यक्तरूप से अवतीर्ण होकर भी अपने अव्यक्तरूप से, अपनी अनन्त सत्ता से सर्वत्र सर्वदा और सर्वथा स्थित हैं।
शेष आगामी पोस्ट में .................
…....००५.०५.मार्गशीर्ष कृष्ण ११ सं०१९८७; नवम्बर १९३०.कल्याण (पृ०७५८)
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