रविवार, 9 दिसंबर 2018

गीता में व्यक्तोपासना (पोस्ट 09)

❈ श्री हरिः शरणम् ❈

गीता में व्यक्तोपासना (पोस्ट 09)

( सम्पादक-कल्याण ) 

मन्दिर में, मन्दिर की मूर्ति में, उसकी दीवारमें, पूजामें, पूजाकी सामग्रीमें और पुजारीमें बाहर-भीतर सभी जगह वे ( भगवान् ) वर्तमान हैं। वे सगुण साकाररूपमें भक्तोंके साथ लीला करते हैं और निर्गुण निराकाररूप से बर्फ में जल की भाँति सर्वत्र व्याप्त हैं-‘मया ततमिदं सर्व जगदव्यक्त मूर्तिना।’ उन परम दयालु प्रभुको हम किसी भी रूप और किसी भी नामसे देख और पुकार सकते हैं। इस रहस्यको समझते हुए हम ब्रह्म, परमात्मा, आनन्द, विष्णु, ब्रह्मा, शिव, राम, कृष्ण, शक्ति, सूर्य, गणेश, अरिहन्त, बुद्ध, अल्लाह, गॉड, जिहोवा आदि किसी भी नाम-रूपसे उनकी उपासना कर सकते हैं। उपासनाके फलस्वरूप जब उनकी कृपासे उनके यथार्थ स्वरूपका ज्ञान होगा तब सारे संशय आप ही मिट जायँगे। इस रहस्यसे वञ्चित होनेके कारण ही मनुष्य मोहवश भगवान्‌की सीमा-निदश करने लगता है। भगवान्‌ स्वयं कहते हैं-

अजोऽपिसन्नव्ययात्मा भूतानामीश्वरोपि सन्‌।
प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय सम्भवाम्यात्ममायया॥
................( गीता ४ । ६ )

अव्यक्तं व्यक्तिमापन्नं मन्यते मामबुद्धयः।
परं भावमजानन्तो ममाव्ययमनुत्तमम्‌॥
..................( गी० ७ । २४ )

अवजानन्ति मां मूढा मानुषीं तनुमाश्रितम्‌।
परं भावमजानन्तो मम भूतमहेश्वरम्‌॥
..................( गी० ९ । ११ )

‘मैं अव्ययात्मा, अजन्मा और सर्व भूतप्राणियोंका ईश्वर रहता हुआ ही अपनी प्रकृतिको अधीन करके ( प्रकृतिके अधीन होकर नहीं ) योगमायासे- लीलासे साकाररूपमें प्रकट होता हूँ।’ ‘अज, अविनाशी रहता हुआ ही मैं अपनी लीलासे प्रकट होता हूँ। मेरे इस परमोत्तम अविनाशी परम रहस्यमय भावको-तत्त्वसे न जाननेके कारण ही बुद्धिहीन मनुष्य मुझ मन-इन्द्रियोंसे परे सच्चिदानन्द परमात्माको साधारण मनुष्यकी भाँति व्यक्तभावको प्राप्त हुआ मानते हैं।’ ‘ऐसे परम भावसे अपरिचित मूढ़ लोग ‘मुझ-रूप-धारी’ सर्वभूतमहेश्वर परमात्माको यथार्थतः नहीं पहचानते।’

इससे यह सिद्ध हुआ कि गीताके सगुण साकार-व्यक्त भगवान्‌, निराकार-अव्यक्त अज और अविनाशी रहते हुए ही साकार मनुष्यादि रूपमें प्रकट हो, लोकोद्धारके लिये विविध लीला किया करते हैं। संक्षेपमें ही यही गीतोक्त व्यक्त उपास्य भगवान्‌का स्वरूप है।

शेष आगामी पोस्ट में .................

…....००५.०५.मार्गशीर्ष कृष्ण ११ सं०१९८७; नवम्बर १९३०.कल्याण (पृ०७५८)


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