॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
चतुर्थ स्कन्ध – छब्बीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)
राजा पुरञ्जनका शिकार खेलने वनमें जाना और रानीका कुपित होना
नारद उवाच -
पुरञ्जनः स्वमहिषीं निरीक्ष्य अवधुतां भुवि ।
तत्सङ्गोन्मथितज्ञानो वैक्लव्यं परमं ययौ ॥ १८ ॥
सान्त्वयन् श्कक्ष्णया वाचा हृदयेन विदूयता ।
प्रेयस्याः स्नेहसंरम्भ लिङ्गमात्मनि नाभ्यगात् ॥ १९ ॥
अनुनिन्येऽथ शनकैः वीरोऽनुनयकोविदः ।
पस्पर्श पादयुगलं आह चोत्सङ्गलालिताम् ॥ २० ॥
पुरञ्जन उवाच -
नूनं त्वकृतपुण्यास्ते भृत्या येष्वीश्वराः शुभे ।
कृतागःस्वात्मसात्कृत्वा शिक्षादण्डं न युञ्जते ॥ २१ ॥
परमोऽनुग्रहो दण्डो भृत्येषु प्रभुणार्पितः ।
बालो न वेद तत्तन्वि बन्धुकृत्यममर्षणः ॥ २२ ॥
सा त्वं मुखं सुदति सुभ्र्वनुरागभार
व्रीडाविलम्बविलसद् हसितावलोकम् ।
नीलालकालिभिरुपस्कृतमुन्नसं नः
स्वानां प्रदर्शय मनस्विनि वल्गुवाक्यम् ॥ २३ ॥
तस्मिन्दधे दममहं तव वीरपत्नि
योऽन्यत्र भूसुरकुलात्कृतकिल्बिषस्तम् ।
पश्ये न वीतभयमुन्मुदितं त्रिलोक्यां
अन्यत्र वै मुररिपोरितरत्र दासात् ॥ २४ ॥
वक्त्रं न ते वितिलकं मलिनं विहर्षं
संरम्भभीममविमृष्टमपेतरागम् ।
पश्ये स्तनावपि शुचोपहतौ सुजातौ
बिम्बाधरं विगतकुङ्कुमपङ्करागम् ॥ २५ ॥
तन्मे प्रसीद सुहृदः कृतकिल्बिषस्य
स्वैरं गतस्य मृगयां व्यसनातुरस्य ।
का देवरं वशगतं कुसुमास्त्रवेग
विस्रस्तपौंस्नमुशती न भजेत कृत्ये ॥ २६ ॥
श्रीनारदजी कहते हैं—राजन् ! उस स्त्रीके सङ्गसे राजा पुरञ्जनका विवेक नष्ट हो चुका था; इसलिये अपनी रानी को पृथ्वीपर अस्त-व्यस्त अवस्थामें पड़ी देखकर वह अत्यन्त व्याकुल हो गया ॥ १८ ॥ उसने दु:खित हृदयसे उसे मधुर वचनोंद्वारा बहुत कुछ समझाया, किन्तु उसे अपनी प्रेयसीके अंदर अपने प्रति प्रणय-कोपका कोई चिह्न नहीं दिखायी दिया ॥ १९ ॥ वह मनानेमें भी बहुत कुशल था, इसलिये अब पुरञ्जनने उसे धीरे-धीरे मनाना आरम्भ किया। उसने पहले उसके चरण छूए और फिर गोदमें बिठाकर बड़े प्यारसे कहने लगा ॥ २० ॥
पुरञ्जन बोला—सुन्दरि ! वे सेवक तो निश्चय ही बड़े अभागे हैं, जिनके अपराध करनेपर स्वामी उन्हें अपना समझकर शिक्षाके लिये उचित दण्ड नहीं देते ॥ २१ ॥ सेवकको दिया हुआ स्वामीका दण्ड तो उसपर बड़ा अनुग्रह ही होता है । जो मूर्ख हैं, उन्हींको क्रोधके कारण अपने हितकारी स्वामीके किये हुए उस उपकारका पता नहीं चलता ॥ २२ ॥ सुन्दर दन्तावली और मनोहर भौंहोंसे शोभा पानेवाली मनस्विनि ! अब यह क्रोध दूर करो और एक बार मुझे अपना समझकर प्रणय-भार तथा लज्जासे झुका हुआ एवं मधुर मुसकानमयी चितवनसे सुशोभित अपना मनोहर मुखड़ा दिखाओ। अहो ! भ्रमरपंक्तिके समान नीली अलकावली, उन्नत नासिका और सुमधुर वाणीके कारण तुम्हारा वह मुखारविन्द कैसा मनोमोहक जान पड़ता है ॥ २३ ॥ वीरपत्नि ! यदि किसी दूसरेने तुम्हारा कोई अपराध किया हो तो उसे बताओ; यदि वह अपराधी ब्राह्मणकुलका नहीं है, तो मैं उसे अभी दण्ड देता हूँ। मुझे तो भगवान्के भक्तोंको छोडक़र त्रिलोकीमें अथवा उससे बाहर ऐसा कोई नहीं दिखायी देता जो तुम्हारा अपराध करके निर्भय और आनन्दपूर्वक रह सके ॥ २४ ॥ प्रिये ! मैंने आजतक तुम्हारा मुख कभी तिलकहीन, उदास, मुरझाया हुआ, क्रोधके कारण डरावना, कान्तिहीन और स्नेहशून्य नहीं देखा; और न कभी तुम्हारे सुन्दर स्तनोंको ही शोकाश्रुओंसे भीगा तथा बिम्बाफलसदृश अधरोंको स्निग्ध केसरकी लालीसे रहित देखा है ॥ २५ ॥ मैं व्यसनवश तुमसे बिना पूछे शिकार खेलने चला गया, इसलिये अवश्य अपराधी हूँ। फिर भी अपना समझकर तुम मुझपर प्रसन्न हो जाओ; कामदेवके विषम बाणोंसे अधीर होकर जो सर्वदा अपने अधीन रहता है, उस अपने प्रिय पतिको उचित कार्यके लिये भला कौन कामिनी स्वीकार नहीं करती ॥ २६ ॥
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
💐💐💐जय श्रीकृष्ण 🙏
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नारायण नारायण नारायण नारायण