शनिवार, 15 नवंबर 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण चतुर्थ स्कन्ध - छब्बीसवां अध्याय..(पोस्ट०२)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
चतुर्थ स्कन्ध – छब्बीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

राजा पुरञ्जनका शिकार खेलने वनमें जाना और रानीका कुपित होना

तत्र निर्भिन्नगात्राणां चित्रवाजैः शिलीमुखैः ।
विप्लवोऽभूद् दुःखितानां दुःसहः करुणात्मनाम् ॥ ९ ॥
शशान् वराहान् महिषान् गवयान् रुरुशल्यकान् ।
मेध्यानन्यांश्च विविधान् विनिघ्नन् श्रममध्यगात् ॥ १० ॥
ततः क्षुत्तृट्परिश्रान्तो निवृत्तो गृहमेयिवान् ।
कृतस्नानोचिताहारः संविवेश गतक्लमः ॥ ११ ॥
आत्मानमर्हयां चक्रे धूपालेपस्रगादिभिः ।
साध्वलङ्‌कृतसर्वाङ्‌गो महिष्यां आदधे मनः ॥ १२ ॥
तृप्तो हृष्टः सुदृप्तश्च कन्दर्पाकृष्टमानसः ।
न व्यचष्ट वरारोहां गृहिणीं गृहमेधिनीम् ॥ १३ ॥
अन्तःपुरस्त्रियोऽपृच्छद् विमना इव वेदिषत् ।
अपि वः कुशलं रामाः सेश्वरीणां यथा पुरा ॥ १४ ॥
न तथैतर्हि रोचन्ते गृहेषु गृहसम्पदः ।
यदि न स्याद्गृनहे माता पत्नी  वा पतिदेवता ।
व्यङ्‌गे रथ इव प्राज्ञः को नामासीत दीनवत् ॥ १५ ॥ 
क्व वर्तते सा ललना मज्जन्तं व्यसनार्णवे ।
या मामुद्धरते प्रज्ञां दीपयन्ती पदे पदे ॥ १६ ॥

रामा ऊचुः -
नरनाथ न जानीमः त्वत्प्रिया यद्व्यवस्यति ।
भूतले निरवस्तारे शयानां पश्य शत्रुहन् ॥ १७ ॥

पुरञ्जनके तरह-तरहके पंखोंवाले बाणोंसे छिन्न-भिन्न होकर अनेकों जीव बड़े कष्टके साथ प्राण त्यागने लगे। उसका वह निर्दयतापूर्ण जीव-संहार देखकर सभी दयालु पुरुष बहुत दुखी हुए। वे इसे सह नहीं सके ॥ ९ ॥ इस प्रकार वहाँ खरगोश, सूअर, भैंसे, नीलगाय, कृष्णमृग, साही तथा और भी बहुत-से मेध्य पशुओंका वध करते-करते राजा पुरञ्जन बहुत थक गया ॥ १० ॥ जब वह भूख-प्याससे अत्यन्त शिथिल हो वनसे लौटकर राजमहलमें आया। वहाँ उसने यथायोग्य रीतिसे स्नान और भोजनसे निवृत्त हो, कुछ विश्राम करके थकान दूर की ॥ ११ ॥ फिर गन्ध, चन्दन और माला आदिसे सुसज्जित हो सब अङ्गोंमें सुन्दर-सुन्दर आभूषण पहने। तब उसे अपनी प्रियाकी याद आयी ॥ १२ ॥ वह भोजनादिसे तृप्त, हृदयमें आनन्दित, मदसे उन्मत्त और कामसे व्यथित होकर अपनी सुन्दरी भार्याको ढूँढऩे लगा; किन्तु उसे वह कहीं भी दिखायी न दी ॥ १३ ॥
प्राचीनबर्हि ! तब उसने चित्तमें कुछ उदास होकर अन्त:पुरकी स्त्रियोंसे पूछा, ‘सुन्दरियो ! अपनी स्वामिनीके सहित तुम सब पहलेकी ही तरह कुशलसे हो न ? ॥ १४ ॥ क्या कारण है आज इस घरकी सम्पत्ति पहले-जैसी सुहावनी नहीं जान पड़ती ? घरमें माता अथवा पतिपरायणा भार्या न हो, तो वह घर बिना पहियेके रथके समान हो जाता है; फिर उसमें कौन बुद्धिमान् दीन पुरुषोंके समान रहना पसंद करेगा ॥ १५ ॥ अत: बताओ, वह सुन्दरी कहाँ है, जो दु:ख-समुद्रमें डूबने पर मेरी विवेक-बुद्धि को पद-पद पर जाग्रत् करके मुझे उस सङ्कट से उबार लेती है ?’॥१६ ॥
स्त्रियोंने कहा—नरनाथ ! मालूम नहीं आज आपकी प्रिया ने क्या ठानी है। शत्रुदमन ! देखिये, वे बिना बिछौनेके पृथ्वीपर ही पड़ी हुई हैं ॥ १७ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


1 टिप्पणी:

  1. 🌺💟🥀जय श्री हरि: !!🙏
    ॐ श्री परमात्मने नमः
    श्रीराधेकृष्णाभ्याम् नमः

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