❈ श्री हरिः शरणम् ❈
गीता में व्यक्तोपासना (पोस्ट 01)
( सम्पादक-कल्याण )
श्रीमद्भगवद्गीता साक्षात् सच्चिदानन्दघन परमात्मा प्रभु श्रीकृष्ण की दिव्य वाणी है। जगत् में इसकी जोड़ी का कोई भी शास्त्र नहीं । सभी श्रेणी के लोग इससे अपने-अपने अधिकारानुसार भगवत्प्राप्ति के सुगम साधन प्राप्त कर सकते हैं। इसमें सभी मुख्य-मुख्य साधनों का विशद वर्णन है, परन्तु कोई भी एक-दूसरेका विरोधी नहीं है, सभी परस्पर सहायक हैं। ऐसा सामञ्जस्यपूर्ण ग्रन्थ केवल गीता ही है । कर्म, भक्ति और ज्ञान इन तीन प्रधान सिद्धान्तों की जैसी उदार, पूर्ण, निर्मल, उज्ज्वल, सरल एवं अन्तर और बाह्य लक्षणों से युक्त हृदयस्पर्शी सुन्दर व्यावहारिक व्याख्या इस ग्रन्थमें मिलती है, वैसी अन्यत्र कहीं नहीं । प्रत्येक मनुष्य अपनी रुचिके अनुसार किसी एक मार्गपर आरूढ़ होकर अनायास ही अपने चरम लक्ष्य तक पहुँच सकता है।
"श्रीमद्भगवद्गीता को हम ‘निष्काम कर्मयोगयुक्त, भक्तिप्रधान और ज्ञानपूर्ण अध्यात्मशास्त्र कह सकते हैं ।" यह सभी प्रकार के मार्गों में संरक्षक, सहायक, मार्गदर्शक, प्रकाशदाता और पवित्र पाथेय का प्रत्यक्ष व्यावहारिक काम दे सकता है । गीता के प्रत्येक साधन में कुछ ऐसे दोषनाशक प्रयोग बतलाये गये हैं जिनका उपयोग करने से दोष समूल नष्ट होकर साधन सर्वथा शुद्ध और उपादेय बन जाता है । इसीलिये गीता का कर्म, गीता का ज्ञान, गीता का ध्यान और गीता की भक्ति सभी सर्वथा पापशून्य, दोषरहित, पवित्र और पूर्ण हैं । किसी में तनिक भी पोलकी गुंजायश नहीं। आज गीतोक्त व्यक्तोपासनाके विषयमें कुछ देखना है।
गीता के बारहवें अध्याय का नाम भक्तियोग है, इसमें कुल बीस श्लोक हैं । पहले श्लोक में भक्तवर अर्जुनका प्रश्न है और शेष उन्नीस श्लोकों में भगवान् उसका उत्तर देते हैं। इनमें प्रथम ११ श्लोकों में तो भगवान् के व्यक्त ( साकार ) और अव्यक्त ( निराकार ) स्वरूप के उपासकों की उत्तमता का निर्णय किया गया है एवं भगवत्प्राप्ति के कुछ उपाय बतलाये गये हैं । अगले आठ श्लोकों में परमात्मा के परम प्रिय भक्तों के स्वाभाविक लक्षणों का वर्णन है ।
शेष आगामी पोस्ट में .................
…....००५.०५.मार्गशीर्ष कृष्ण ११ सं०१९८७; नवम्बर १९३०.कल्याण (पृ०७५८)
गीता में व्यक्तोपासना (पोस्ट 01)
( सम्पादक-कल्याण )
श्रीमद्भगवद्गीता साक्षात् सच्चिदानन्दघन परमात्मा प्रभु श्रीकृष्ण की दिव्य वाणी है। जगत् में इसकी जोड़ी का कोई भी शास्त्र नहीं । सभी श्रेणी के लोग इससे अपने-अपने अधिकारानुसार भगवत्प्राप्ति के सुगम साधन प्राप्त कर सकते हैं। इसमें सभी मुख्य-मुख्य साधनों का विशद वर्णन है, परन्तु कोई भी एक-दूसरेका विरोधी नहीं है, सभी परस्पर सहायक हैं। ऐसा सामञ्जस्यपूर्ण ग्रन्थ केवल गीता ही है । कर्म, भक्ति और ज्ञान इन तीन प्रधान सिद्धान्तों की जैसी उदार, पूर्ण, निर्मल, उज्ज्वल, सरल एवं अन्तर और बाह्य लक्षणों से युक्त हृदयस्पर्शी सुन्दर व्यावहारिक व्याख्या इस ग्रन्थमें मिलती है, वैसी अन्यत्र कहीं नहीं । प्रत्येक मनुष्य अपनी रुचिके अनुसार किसी एक मार्गपर आरूढ़ होकर अनायास ही अपने चरम लक्ष्य तक पहुँच सकता है।
"श्रीमद्भगवद्गीता को हम ‘निष्काम कर्मयोगयुक्त, भक्तिप्रधान और ज्ञानपूर्ण अध्यात्मशास्त्र कह सकते हैं ।" यह सभी प्रकार के मार्गों में संरक्षक, सहायक, मार्गदर्शक, प्रकाशदाता और पवित्र पाथेय का प्रत्यक्ष व्यावहारिक काम दे सकता है । गीता के प्रत्येक साधन में कुछ ऐसे दोषनाशक प्रयोग बतलाये गये हैं जिनका उपयोग करने से दोष समूल नष्ट होकर साधन सर्वथा शुद्ध और उपादेय बन जाता है । इसीलिये गीता का कर्म, गीता का ज्ञान, गीता का ध्यान और गीता की भक्ति सभी सर्वथा पापशून्य, दोषरहित, पवित्र और पूर्ण हैं । किसी में तनिक भी पोलकी गुंजायश नहीं। आज गीतोक्त व्यक्तोपासनाके विषयमें कुछ देखना है।
गीता के बारहवें अध्याय का नाम भक्तियोग है, इसमें कुल बीस श्लोक हैं । पहले श्लोक में भक्तवर अर्जुनका प्रश्न है और शेष उन्नीस श्लोकों में भगवान् उसका उत्तर देते हैं। इनमें प्रथम ११ श्लोकों में तो भगवान् के व्यक्त ( साकार ) और अव्यक्त ( निराकार ) स्वरूप के उपासकों की उत्तमता का निर्णय किया गया है एवं भगवत्प्राप्ति के कुछ उपाय बतलाये गये हैं । अगले आठ श्लोकों में परमात्मा के परम प्रिय भक्तों के स्वाभाविक लक्षणों का वर्णन है ।
शेष आगामी पोस्ट में .................
…....००५.०५.मार्गशीर्ष कृष्ण ११ सं०१९८७; नवम्बर १९३०.कल्याण (पृ०७५८)
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