॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय
स्कन्ध - आठवाँ
अध्याय..(पोस्ट०१)
ब्रह्माजीकी
उत्पत्ति
मैत्रेय
उवाच -
सत्सेवनीयो
बत पूरुवंशो
यल्लोकपालो भगवत्प्रधानः ।
बभूविथेहाजितकीर्तिमालां
पदे पदे नूतनयस्यभीक्ष्णम् ॥ १ ॥
सोऽहं
नृणां क्षुल्लसुखाय दुःखं
महद्गतानां विरमाय तस्य ।
प्रवर्तये
भागवतं पुराणं
यदाह साक्षात् भगवान् ऋषिभ्यः ॥ २ ॥
आसीनमुर्व्यां
भगवन्तमाद्यं
सङ्कर्षणं देवमकुण्ठसत्त्वम् ।
विवित्सवस्तत्त्वमतः
परस्य
कुमारमुख्या मुनयोऽन्वपृच्छन् ॥ ३ ॥
स्वमेव
धिष्ण्यं बहु मानयन्तं
यद् वासुदेवाभिधमामनन्ति ।
प्रत्यग्धृताक्षाम्बुजकोशमीषद्
उन्मीलयन्तं विबुधोदयाय ॥ ४ ॥
श्रीमैत्रेयजीने
कहा—विदुरजी ! आप भगवद्भक्तों में प्रधान लोकपाल यमराज ही हैं; आपके पूरुवंश में जन्म लेने के कारण वह वंश साधुपुरुषों के लिये भी सेव्य
हो गया है। धन्य हैं ! आप निरन्तर पद-पदपर श्रीहरिकी कीर्तिमयी मालाको नित्य नूतन
बना रहे हैं ॥ १ ॥ अब मैं, क्षुद्र विषय-सुख की कामना से
महान् दु:ख को मोल लेने वाले पुरुषों की दु:खनिवृत्ति के लिये, श्रीमद्भागवतपुराण प्रारम्भ करता हूँ—जिसे स्वयं
श्रीसङ्कर्षण भगवान् ने सनकादि ऋषियों को सुनाया था ॥ २ ॥
अखण्ड
ज्ञानसम्पन्न आदिदेव भगवान् सङ्कर्षण पाताललोक में विराजमान थे। सनत्कुमार आदि
ऋषियों ने परम पुरुषोत्तम ब्रह्म का तत्त्व जानने के लिये उनसे प्रश्न किया ॥ ३ ॥
उस समय शेषजी अपने आश्रयस्वरूप उन परमात्मा की मानसिक पूजा कर रहे थे। जिनका वेद वासुदेव
के नाम से निरूपण करते हैं। उनके कमलकोश-सरीखे नेत्र बन्द थे। प्रश्न करने पर
सनत्कुमारादि ज्ञानीजनों के आनन्द के लिये उन्होंने अधखुले नेत्रों से देखा ॥ ४ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
000000000
॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय
स्कन्ध - आठवाँ
अध्याय..(पोस्ट०२)
ब्रह्माजीकी
उत्पत्ति
स्वर्धुन्युदार्द्रैः
स्वजटाकलापैः
उपस्पृशन्तश्चरणोपधानम् ।
पद्मं
यदर्चन्त्यहिराजकन्याः
सप्रेम नानाबलिभिर्वरार्थाः ॥ ५ ॥
मुहुर्गृणन्तो
वचसानुराग
स्खलत्पदेनास्य कृतानि तज्ज्ञाः ।
किरीटसाहस्रमणिप्रवेक
प्रद्योतितोद्दामफणासहस्रम् ॥ ६ ॥
प्रोक्तं
किलैतद्भगवत्तमेन
निवृत्तिधर्माभिरताय तेन ।
सनत्कुमाराय
स चाह पृष्टः
साङ्ख्यायनायाङ्ग धृतव्रताय ॥ ७ ॥
साङ्ख्यायनः
पारमहंस्यमुख्यो
विवक्षमाणो भगवद्विभूतीः ।
जगाद
सोऽस्मद्गुरवेऽन्विताय
पराशरायाथ बृहस्पतेश्च ॥ ८ ॥
प्रोवाच
मह्यं स दयालुरुक्तो
मुनिः पुलस्त्येन पुराणमाद्यम् ।
सोऽहं
तवैतत्कथयामि वत्स
श्रद्धालवे नित्यमनुव्रताय ॥ ९ ॥
सनत्कुमार
आदि ऋषियों ने मन्दाकिनी के जल से भीगे अपने जटासमूह से उनके (आदिदेव भगवान्
सङ्कर्षण के) चरणों की चौकी के रूप में स्थित कमल का स्पर्श किया, जिसकी नागराजकुमारियाँ अभिलषित वर की प्राप्ति के लिये प्रेमपूर्वक अनेकों
उपहार-सामग्रियों से पूजा करती हैं ॥ ५ ॥
सनत्कुमारादि
उनकी लीलाके मर्मज्ञ हैं। उन्होंने बार-बार प्रेम-गद्गद वाणी से उनकी लीला का गान
किया। उस समय शेषभगवान् के उठे हुए सहस्रों फण किरीटों की सहस्र-सहस्र श्रेष्ठ
मणियों की छिटकती हुई रश्मियों से जगमगा रहे थे ॥ ६ ॥ भगवान् सङ्कर्षण ने
निवृत्तिपरायण सनत्कुमार जी को यह भागवत सुनाया था—ऐसा प्रसिद्ध
है। सनत्कुमार जी ने फिर इसे परम व्रतशील सांख्यायन मुनि को, उनके प्रश्न करनेपर सुनाया ॥ ७ ॥ परमहंसों में प्रधान श्रीसांख्यायन जी को
जब भगवान् की विभूतियों का वर्णन करने की इच्छा हुई, तब
उन्होंने इसे अपने अनुगत शिष्य, हमारे गुरु श्रीपराशरजी को
और बृहस्पतिजी को सुनाया ॥ ८ ॥ इसके पश्चात् परम दयालु पराशरजी ने पुलस्त्य मुनि के
कहने से वह आदिपुराण मुझसे कहा। वत्स ! श्रद्धालु और सदा अनुगत देखकर अब वही पुराण
मैं तुम्हें सुनाता हूँ ॥ ९ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
000000000
॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय
स्कन्ध - आठवाँ
अध्याय..(पोस्ट०३)
ब्रह्माजीकी
उत्पत्ति
उदाप्लुतं
विश्वमिदं तदासीत्
यन्निद्रयामीलितदृङ् न्यमीलयत् ।
अहीन्द्रतल्पेऽधिशयान
एकः
कृतक्षणः स्वात्मरतौ निरीहः ॥ १० ॥
सोऽन्तः
शरीरेऽर्पितभूतसूक्ष्मः
कालात्मिकां शक्तिमुदीरयाणः ।
उवास
तस्मिन् सलिले पदे स्वे
यथानलो दारुणि रुद्धवीर्यः ॥ ११ ॥
चतुर्युगानां
च सहस्रमप्सु
स्वपन् स्वयोदीरितया स्वशक्त्या ।
कालाख्ययाऽऽसादितकर्मतन्त्रो
लोकानपीतान्ददृशे स्वदेहे ॥ १२ ॥
तस्यार्थसूक्ष्माभिनिविष्टदृष्टेः
अन्तर्गतोऽर्थो रजसा तनीयान् ।
गुणेन
कालानुगतेन विद्धः
सूष्यंस्तदाभिद्यत नाभिदेशात् ॥ १३ ॥
(श्रीमैत्रेयजी
कहते हैं) सृष्टिके पूर्व यह सम्पूर्ण विश्व जलमें डूबा हुआ था। उस समय एकमात्र
श्रीनारायणदेव शेष- शय्यापर पौढ़े हुए थे। वे अपनी ज्ञानशक्तिको अक्षुण्ण रखते हुए
ही,
योगनिद्राका आश्रय ले, अपने नेत्र मूँदे हुए
थे। सृष्टिकर्मसे अवकाश लेकर आत्मानन्दमें मग्न थे। उनमें किसी भी क्रियाका उन्मेष
नहीं था ॥ १० ॥ जिस प्रकार अग्नि अपनी दाहिका आदि शक्तियोंको छिपाये हुए काष्ठमें व्याप्त
रहता है, उसी प्रकार श्रीभगवान् ने सम्पूर्ण प्राणियों के
सूक्ष्म शरीरों को अपने शरीर में लीन करके अपने आधारभूत उस जलमें शयन किया,
उन्हें सृष्टिकाल आनेपर पुन: जगानेके लिये केवल कालशक्तिको जाग्रत्
रखा ॥ ११ ॥ इस प्रकार अपनी स्वरूपभूता चिच्छक्तिके साथ एक सहस्र चतुर्युगपर्यन्त
जलमें शयन करनेके अनन्तर जब उन्हींके द्वारा नियुक्त उनकी कालशक्तिने उन्हें
जीवोंके कर्मोंकी प्रवृत्तिके लिये प्रेरित किया, तब
उन्होंने अपने शरीरमें लीन हुए अनन्त लोक देखे ॥ १२ ॥ जिस समय भगवान् की दृष्टि
अपने में निहित लिङ्ग शरीरादि सूक्ष्मतत्त्व पर पड़ी, तब वह कालाश्रित रजोगुण से क्षुभित होकर सृष्टिरचना के निमित्त उनके
नाभिदेश से बाहर निकला ॥ १३ ॥
शेष
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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
000000000
॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय
स्कन्ध - आठवाँ
अध्याय..(पोस्ट०४)
ब्रह्माजीकी
उत्पत्ति
स
पद्मकोशः सहसोदतिष्ठत्
कालेन कर्मप्रतिबोधनेन ।
स्वरोचिषा
तत्सलिलं विशालं
विद्योतयन्नर्क इवात्मयोनिः ॥ १४ ॥
तल्लोकपद्मं
स उ एव विष्णुः
प्रावीविशत्सर्वगुणावभासम् ।
तस्मिन्
स्वयं वेदमयो विधाता
स्वयंभुवं यं स्म वदन्ति सोऽभूत् ॥ १५ ॥
तस्यां
स चाम्भोरुहकर्णिकायां
अवस्थितो लोकमपश्यमानः ।
परिक्रमन्
व्योम्नि विवृत्तनेत्रः
चत्वारि लेभेऽनुदिशं मुखानि ॥ १६ ॥
तस्माद्युगान्तश्वसनावघूर्ण
जलोर्मिचक्रात् सलिलाद्विरूढम् ।
उपाश्रितः
कञ्जमु लोकतत्त्वं
नात्मानमद्धाविददादिदेवः ॥ १७ ॥
कर्मशक्ति
को जाग्रत् करने वाले काल के द्वारा विष्णु भगवान् की नाभि से प्रकट हुआ वह
सूक्ष्मतत्त्व कमलकोश के रूप में सहसा ऊपर उठा और उसने सूर्य के समान अपने तेज से
उस अपार जलराशि को देदीप्यमान कर दिया ॥ १४ ॥ सम्पूर्ण गुणोंको प्रकाशित करनेवाले
उस सर्वलोकमय कमल में वे विष्णुभगवान् ही अन्तर्यामीरूपसे प्रविष्ट हो गये। तब
उसमेंसे बिना पढ़ाये ही स्वयं सम्पूर्ण वेदोंको जाननेवाले साक्षात् वेदमूर्ति
श्रीब्रह्माजी प्रकट हुए,
जिन्हें लोग स्वयम्भू कहते हैं ॥ १५ ॥ उस कमलकी कर्णिका (गद्दी) में
बैठे हुए ब्रह्माजीको जब कोई लोक दिखायी नहीं दिया, तब वे
आँखें फाडक़र आकाशमें चारों ओर गर्दन घुमाकर देखने लगे, इससे
उनके चारों दिशाओंमें चार मुख हो गये ॥ १६ ॥ उस समय प्रलयकालीन पवनके थपेड़ोंसे
उछलती हुई जलकी तरङ्गमालाओं के कारण उस जलराशिसे ऊपर उठे हुए कमलपर विराजमान
आदिदेव ब्रह्माजी को अपना तथा उस लोकतत्त्वरूप कमलका कुछ भी रहस्य न जान पड़ा ॥ १७
॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय
स्कन्ध - आठवाँ
अध्याय..(पोस्ट०५)
ब्रह्माजीकी
उत्पत्ति
क
एष योऽसौ अहमब्जपृष्ठ
एतत्कुतो वाब्जमनन्यदप्सु ।
अस्ति
ह्यधस्तादिह किञ्चनैतद्
अधिष्ठितं यत्र सता नु भाव्यम् ॥ १८ ॥
स
इत्थमुद्वीक्ष्य तदब्जनाल
नाडीभिरन्तर्जलमाविवेश ।
नार्वाग्गतस्तत्
खरनालनाल
नाभिं विचिन्वन् तदविन्दताजः ॥ १९ ॥
तमस्यपारे
विदुरात्मसर्गं
विचिन्वतोऽभूत् सुमहांस्त्रिणेमिः ।
यो
देहभाजां भयमीरयाणः
परिक्षिणोत्यायुरजस्य हेतिः ॥ २० ॥
ततो
निवृत्तोऽप्रतिलब्धकामः
स्वधिष्ण्यमासाद्य पुनः स देवः ।
शनैर्जितश्वासनिवृत्तचित्तो
न्यषीददारूढसमाधियोगः ॥ २१ ॥
वे
(आदिदेव ब्रह्माजी) सोचने लगे, ‘इस कमलकी कर्णिका पर बैठा हुआ
मैं कौन हूँ ? यह कमल भी बिना किसी अन्य आधार के जल में कहाँ
से उत्पन्न हो गया ? इसके नीचे अवश्य कोई ऐसी वस्तु होनी
चाहिये, जिसके आधारपर यह स्थित है’ ॥
१८ ॥ ऐसा सोचकर वे उस कमलकी नालके सूक्ष्म छिद्रोंमें होकर उस जलमें घुसे। किन्तु
उस नालके आधारको खोजते-खोजते नाभिदेशके समीप पहुँच जानेपर भी वे उसे पा न सके ॥ १९
॥ विदुरजी ! उस अपार अन्धकारमें अपने उत्पत्ति-स्थानको खोजते-खोजते ब्रह्माजीको
बहुत काल बीत गया। यह काल ही भगवान् का चक्र है, जो
प्राणियोंको भयभीत (करता हुआ उनकी आयुको क्षीण) करता रहता है ॥ २० ॥ अन्त में
विफलमनोरथ हो वे वहाँसे लौट आये और पुन: अपने आधारभूत कमलपर बैठकर धीरे-धीरे
प्राणवायुको जीतकर चित्तको नि:सङ्कल्प किया और समाधिमें स्थित हो गये ॥ २१ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
0000000
॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय
स्कन्ध - आठवाँ
अध्याय..(पोस्ट०६)
ब्रह्माजीकी
उत्पत्ति
कालेन
सोऽजः पुरुषायुषाभि
प्रवृत्तयोगेन विरूढबोधः ।
स्वयं
तदन्तर्हृदयेऽवभातं
अपश्यतापश्यत यन्न पूर्वम् ॥ २२ ॥
मृणालगौरायतशेषभोग
पर्यङ्क एकं पुरुषं शयानम् ।
फणातपत्रायुतमूर्धरत्न
द्युभिर्हतध्वान्तयुगान्ततोये ॥ २३ ॥
प्रेक्षां
क्षिपन्तं हरितोपलाद्रेः
सन्ध्याभ्रनीवेरु रुरुक्ममूर्ध्नः ।
रत्नोदधारौषधिसौमनस्य
वनस्रजो वेणुभुजाङ्घ्रिपाङ्घ्रेः ॥ २४ ॥
आयामतो
विस्तरतः स्वमान
देहेन लोकत्रयसङ्ग्रहेण ।
विचित्रदिव्याभरणांशुकानां
कृतश्रियापाश्रितवेषदेहम् ॥ २५ ॥
इस
प्रकार पुरुषकी पूर्ण आयुके बराबर कालतक (अर्थात् दिव्य सौ वर्षतक) अच्छी तरह
योगाभ्यास करनेपर ब्रह्माजीको ज्ञान प्राप्त हुआ; तब उन्होंने
अपने उस अधिष्ठानको, जिसे वे पहले खोजनेपर भी नहीं देख पाये
थे, अपने ही अन्त:करणमें प्रकाशित होते देखा ॥ २२ ॥ उन्होंने
देखा कि उस प्रलयकालीन जलमें शेषजीके कमलनालसदृश गौर और विशाल विग्रहकी शय्यापर
पुरुषोत्तम भगवान् अकेले ही लेटे हुए हैं। शेषजीके दस हजार फण छत्रके समान फैले
हुए हैं। उनके मस्तकोंपर किरीट शोभायमान हैं, उनमें जो
मणियाँ जड़ी हुई हैं, उनकी कान्तिसे चारों ओर का अन्धकार दूर
हो गया है ॥ २३ ॥ वे अपने श्याम शरीर की आभा से मरकतमणि के पर्वत की शोभा को
लज्जित कर रहे हैं। उनकी कमर का पीतपट पर्वत के प्रान्त देश में छाये हुए सायंकाल के
पीले-पीले चमकीले मेघों की आभा को मलिन कर रहा है, सिर पर
सुशोभित सुवर्णमुकुट सुवर्णमय शिखरों का मान मर्दन कर रहा है। उनकी वनमाला पर्वत के
रत्न, जलप्रपात, ओषधि और पुष्पों की
शोभा को परास्त कर रही है तथा उनके भुजदण्ड वेणुदण्ड का और चरण वृक्षों का
तिरस्कार करते हैं ॥ २४ ॥ उनका वह श्रीविग्रह अपने परिमाण से लंबाई-चौड़ाई में
त्रिलोकी का संग्रह किये हुए है। वह अपनी शोभा से विचित्र एवं दिव्य वस्त्राभूषणों
की शोभा को सुशोभित करनेवाला होने पर भी पीताम्बर आदि अपनी वेष-भूषा से सुसज्जित
है ॥ २५ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
00000000000
॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय
स्कन्ध - आठवाँ
अध्याय..(पोस्ट०७)
ब्रह्माजीकी
उत्पत्ति
पुंसां
स्वकामाय विविक्तमार्गैः
अभ्यर्चतां कामदुघाङ्घ्रिपद्मम् ।
प्रदर्शयन्तं
कृपया नखेन्दु
मयूखभिन्नाङ्गुलिचारुपत्रम् ॥ २६ ॥
मुखेन
लोकार्तिहरस्मितेन
परिस्फुरत् कुण्डलमण्डितेन ।
शोणायितेनाधरबिम्बभासा
प्रत्यर्हयन्तं सुनसेन सुभ्र्वा ॥ २७ ॥
कदम्बकिञ्जल्कपिशङ्गवाससा
स्वलङ्कृतं मेखलया नितम्बे ।
हारेण
चानन्तधनेन वत्स
श्रीवत्सवक्षःस्थलवल्लभेन ॥ २८ ॥
परार्ध्यकेयूरमणिप्रवेक
पर्यस्तदोर्दण्डसहस्रशाखम् ।
अव्यक्तमूलं
भुवनाङ्घ्रिपेन्द्र
महीन्द्रभोगैरधिवीतवल्शम् ॥ २९ ॥
अपनी-अपनी
अभिलाषा की पूर्ति के लिये भिन्न-भिन्न मार्गों से पूजा करनेवाले भक्तजनों को (पुरुषोत्तम
भगवान्) कृपापूर्वक अपने भक्तवाञ्छाकल्पतरु चरणकमलोंका दर्शन दे रहे हैं, जिनके सुन्दर अंगुलिदल नखचन्द्र की चन्द्रिका से अलग-अलग स्पष्ट चमकते
रहते हैं ॥ २६ ॥ सुन्दर नासिका, अनुग्रहवर्षी भौंहें,
कानोंमें झिलमिलाते हुए कुण्डलोंकी शोभा, बिम्बाफलके
समान लाल-लाल अधरोंकी कान्ति एवं लोकार्तिहारी मुसकानसे युक्त मुखार- विन्दके
द्वारा वे अपने उपासकोंका सम्मान—अभिनन्दन कर रहे हैं ॥ २७ ॥
वत्स ! उनके नितम्बदेश में कदम्बकुसुम की केसर के समान पीतवस्त्र और सुवर्णमयी
मेखला सुशोभित है तथा वक्ष:स्थल में अमूल्य हार और सुनहरी रेखावाले श्रीवत्सचिह्न की
अपूर्व शोभा हो रही है ॥ २८ ॥ वे अव्यक्तमूल चन्दनवृक्ष के समान हैं। महामूल्य
केयूर और उत्तम-उत्तम मणियोंसे सुशोभित उनके विशाल भुजदण्ड ही मानो उसकी सहस्रों शाखाएँ
हैं और चन्दन के वृक्षों में जैसे बड़े-बड़े साँप लिपटे रहते हैं, उसी प्रकार उनके कंधों को शेषजी के फणोंने लपेट रखा है ॥ २९ ॥
शेष
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वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय
स्कन्ध - आठवाँ
अध्याय..(पोस्ट०८)
ब्रह्माजीकी
उत्पत्ति
चराचरौको
भगवन् महीध्र
महीन्द्रबन्धुं सलिलोपगूढम् ।
किरीटसाहस्रहिरण्यश्रृङ्गं
आविर्भवत्कौस्तुभरत्नगर्भम् ॥ ३० ॥
निवीतमाम्नायमधुव्रतश्रिया
स्वकीर्तिमय्या वनमालया हरिम् ।
सूर्येन्दुवाय्वग्न्यगमं
त्रिधामभिः
परिक्रमत् प्राधनिकैर्दुरासदम् ॥ ३१ ॥
तर्ह्येव
तन्नाभिसरःसरोजं
आत्मानमम्भः श्वसनं वियच्च ।
ददर्श
देवो जगतो विधाता
नातः परं लोकविसर्गदृष्टिः ॥ ३२ ॥
स
कर्मबीजं रजसोपरक्तः
प्रजाः सिसृक्षन्नियदेव दृष्ट्वा ।
अस्तौद्
विसर्गाभिमुखस्तमीड्यं
अव्यक्तवर्त्मन्यभिवेशितात्मा ॥ ३३ ॥
वे
नागराज अनन्तके बन्धु श्रीनारायण ऐसे जान पड़ते हैं, मानो कोई
जलसे घिरे हुए पर्वतराज ही हों। पर्वतपर जैसे अनेकों जीव रहते हैं, उसी प्रकार वे सम्पूर्ण चराचरके आश्रय हैं; शेषजीके
फणोंपर जो सहस्रों मुकुट हैं वे ही मानो उस पर्वतके सुवर्णमण्डित शिखर हैं तथा
वक्ष:स्थलमें विराजमान कौस्तुभमणि उसके गर्भसे प्रकट हुआ रत्न है ॥ ३० ॥ प्रभुके गलेमें
वेदरूप भौंरोंसे गुञ्जायमान अपनी कीर्तिमयी वनमाला विराज रही है; सूर्य, चन्द्र, वायु और अग्नि
आदि देवताओं की भी आप तक पहुँच नहीं है तथा त्रिभुवन में बेरोक- टोक विचरण
करनेवाले सुदर्शनचक्रादि आयुध भी प्रभु के आसपास ही घूमते रहते हैं, उनके लिये भी आप अत्यन्त दुर्लभ हैं ॥ ३१ ॥
तब
विश्वरचना की इच्छावाले लोकविधाता ब्रह्माजीने भगवान्के नाभिसरोवरसे प्रकट हुआ वह
कमल,
जल, आकाश, वायु और अपना
शरीर—केवल ये पाँच ही पदार्थ देखे, इनके
सिवा और कुछ उन्हें दिखायी न दिया ॥ ३२ ॥ रजोगुणसे व्याप्त ब्रह्माजी प्रजाकी रचना
करना चाहते थे। जब उन्होंने सृष्टिके कारणरूप केवल ये पाँच ही पदार्थ देखे,
तब लोकरचनाके लिये उत्सुक होनेके कारण वे अचिन्त्यगति श्रीहरिमें
चित्त लगाकर उन परमपूजनीय प्रभुकी स्तुति करने लगे ॥३३॥
इति
श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
तृतीयस्कन्धे
अष्टमोऽध्यायः ॥ ८ ॥
हरिः
ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥
शेष
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