॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय
स्कन्ध - सातवाँ
अध्याय..(पोस्ट०१)
विदुरजीके
प्रश्र
श्रीशुक
उवाच -
एवं
ब्रुवाणं मैत्रेयं द्वैपायनसुतो बुधः ।
प्रीणयन्निव
भारत्या विदुरः प्रत्यभाषत ॥ १ ॥
विदुर
उवाच ।
ब्रह्मन्
कथं भगवतः चिन्मात्रस्याविकारिणः ।
लीलया
चापि युज्येरन् निर्गुणस्य गुणाः क्रियाः ॥ २ ॥
क्रीडायां
उद्यमोऽर्भस्य कामश्चिक्रीडिषान्यतः ।
स्वतस्तृप्तस्य
च कथं निवृत्तस्य सदान्यतः ॥ ३ ॥
अस्राक्षीत्
भगवान् विश्वं गुणमय्याऽऽत्ममायया ।
तया
संस्थापयत्येतद् भूयः प्रत्यपिधास्यति ॥ ४ ॥
देशतः
कालतो योऽसौ अवस्थातः स्वतोऽन्यतः ।
अविलुप्तावबोधात्मा
स युज्येताजया कथम् ॥ ५ ॥
भगवानेक
एवैष सर्वक्षेत्रेष्ववस्थितः ।
अमुष्य
दुर्भगत्वं वा क्लेशो वा कर्मभिः कुतः ॥ ६ ॥
एतस्मिन्मे
मनो विद्वन् खिद्यतेऽज्ञानसङ्कटे ।
तन्नः
पराणुद विभो कश्मलं मानसं महत् ॥ ७ ॥
श्रीशुकदेवजी
कहते हैं—मैत्रेयजी का यह भाषण सुनकर बुद्धिमान् व्यासनन्दन विदुरजी ने उन्हें अपनी
वाणी से प्रसन्न करते हुए कहा ॥ १ ॥
विदुरजी
ने पूछा—ब्रह्मन् ! भगवान् तो शुद्ध बोधस्वरूप, निर्विकार
और निर्गुण हैं; उनके साथ लीला से भी गुण और क्रिया का
सम्बन्ध कैसे हो सकता है ? ॥ २ ॥ बालक में तो कामना और
दूसरों के साथ खेलने की इच्छा रहती है, इसी से वह खेलने के
लिये प्रयत्न करता है; किन्तु भगवान् तो स्वत: नित्यतृप्त—पूर्णकाम और सर्वदा असङ्ग हैं, वे क्रीडा के लिये भी
क्यों सङ्कल्प करेंगे ॥ ३ ॥ भगवान् ने अपनी गुणमयी माया से जगत् की रचना की है,
उसीसे वे इसका पालन करते हैं और फिर उसी से संहार भी करेंगे ॥ ४ ॥
जिनके ज्ञान का देश, काल अथवा अवस्था से, अपने-आप या किसी दूसरे निमित्त से भी कभी लोप नहीं होता, उनका मायाके साथ किस प्रकार संयोग हो सकता है ॥ ५ ॥ एकमात्र ये भगवान् ही
समस्त क्षेत्रों में उनके साक्षीरूप से
स्थित हैं, फिर इन्हें दुर्भाग्य या किसी प्रकारके कर्मजनित
क्लेशकी प्राप्ति कैसे हो सकती है ॥ ६ ॥ भगवन् ! इस अज्ञानसङ्कट में पडक़र मेरा मन
बड़ा खिन्न हो रहा है, आप मेरे मनके इस महान् मोह को कृपा
करके दूर कीजिये ॥ ७ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
0000000000
॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय
स्कन्ध - सातवाँ
अध्याय..(पोस्ट०२)
विदुरजीके
प्रश्र
श्रीशुक
उवाच –
स
इत्थं चोदितः क्षत्त्रा तत्त्वजिज्ञासुना मुनिः ।
प्रत्याह
भगवच्चित्तः स्मयन्निव गतस्मयः ॥ ८ ॥
मैत्रेय
उवाच –
सेयं
भगवतो माया यन्नयेन विरुध्यते ।
ईश्वरस्य
विमुक्तस्य कार्पण्यमुत बन्धनम् ॥ ९ ॥
यदर्थेन
विनामुष्य पुंस आत्मविपर्ययः ।
प्रतीयत
उपद्रष्टुः स्वशिरश्छेदनादिकः ॥ १० ॥
यथा
जले चन्द्रमसः कम्पादिस्तत्कृतो गुणः ।
दृश्यतेऽसन्नपि
द्रष्टुः आत्मनोऽनात्मनो गुणः ॥ ११ ॥
स
वै निवृत्तिधर्मेण वासुदेवानुकम्पया ।
भगवद्भक्तियोगेन
तिरोधत्ते शनैरिह ॥ १२ ॥
श्रीशुकदेवजी
कहते हैं—तत्त्वजिज्ञासु विदुरजी की यह प्रेरणा प्राप्तकर अहंकारहीन श्रीमैत्रेयजी ने
भगवान् का स्मरण करते हुए मुसकराते हुए कहा ॥ ८ ॥
श्रीमैत्रेयजीने
कहा—जो आत्मा सब का स्वामी और सर्वथा मुक्तस्वरूप है, वही
दीनता और बन्धन को प्राप्त हो—यह बात युक्तिविरुद्ध अवश्य है;
किन्तु वस्तुत: यही तो भगवान् की माया है ॥ ९ ॥ जिस प्रकार स्वप्न
देखने वाले पुरुष को अपना सिर कटना आदि व्यापार न होने पर भी अज्ञान के कारण
सत्यवत् भासते हैं, उसी प्रकार इस जीव को बन्धनादि न होते
हुए भी अज्ञानवश भास रहे हैं ॥ १० ॥ यदि यह कहा जाय कि फिर ईश्वर में इनकी प्रतीति
क्यों नहीं होती, तो इसका उत्तर यह है कि जिस प्रकार जलमें
होनेवाली कम्प आदि क्रिया जलमें दीखनेवाले चन्द्रमाके प्रतिबिम्बमें न होनेपर भी
भासती है, आकाशस्थ चन्द्रमामें नहीं, उसी
प्रकार देहाभिमानी जीवमें ही देहके मिथ्या धर्मोंकी प्रतीति होती है, परमात्मामें नहीं ॥ ११ ॥
निष्कामभावसे
धर्मोंका आचरण करनेपर भगवत्कृपासे प्राप्त हुए भक्ति-योगके द्वारा यह प्रतीति
धीरे-धीरे निवृत्त हो जाती है ॥ १२ ॥
शेष
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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
00000000000
॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय
स्कन्ध - सातवाँ
अध्याय..(पोस्ट०३)
विदुरजीके
प्रश्र
यदेन्द्रियोपरामोऽथ
द्रष्ट्रात्मनि परे हरौ ।
विलीयन्ते
तदा क्लेशाः संसुप्तस्येव कृत्स्नशः ॥ १३ ॥
अशेषसङ्क्लेशशमं
विधत्ते
गुणानुवादश्रवणं मुरारेः ।
किं
वा पुनस्तच्चरणारविन्द
परागसेवारतिरात्मलब्धा ॥ १४ ॥
विदुर
उवाच -
सञ्छिन्नः
संशयो मह्यं तव सूक्तासिना विभो ।
उभयत्रापि
भगवन् मनो मे सम्प्रधावति ॥ १५ ॥
साध्वेतद्
व्याहृतं विद्वन् आत्ममायायनं हरेः ।
आभात्यपार्थं
निर्मूलं विश्वमूलं न यद्बहिः ॥ १६ ॥
जिस
समय समस्त इन्द्रियाँ विषयों से हटकर साक्षी परमात्मा श्रीहरि में निश्चलभावसे
स्थित हो जाती हैं,
उस समय गाढ़ निद्रा में सोये हुए मनुष्य के समान जीव के
राग-द्वेषादि सारे क्लेश सर्वथा नष्ट हो जाते हैं ॥ १३ ॥ श्रीकृष्ण के गुणों का
वर्णन एवं श्रवण अशेष दु:खराशि को शान्त कर देता है; फिर यदि
हमारे हृदय में उनके चरणकमल की रज के सेवन का प्रेम जग पड़े, तब तो कहना ही क्या है ? ॥ १४ ॥
विदुरजीने
कहा—भगवन् ! आपके युक्तियुक्त वचनोंकी तलवारसे मेरे सन्देह छिन्न-भिन्न हो गये
हैं। अब मेरा चित्त भगवान् की स्वतन्त्रता और जीव की परतन्त्रता—दोनों ही विषयों में खूब प्रवेश कर रहा है ॥ १५ ॥ विद्वन् ! आपने यह बात
बहुत ठीक कही कि जीवको जो क्लेशादिकी प्रतीति हो रही है, उसका
आधार केवल भगवान् की माया ही है। वह क्लेश मिथ्या एवं निर्मूल ही है; क्योंकि इस विश्वका मूल कारण ही मायाके अतिरिक्त और कुछ नहीं है ॥ १६ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
00000000000
॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय
स्कन्ध - सातवाँ
अध्याय..(पोस्ट०४)
विदुरजीके
प्रश्र
यश्च
मूढतमो लोके यश्च बुद्धेः परं गतः ।
तावुभौ
सुखमेधेते क्लिश्यत्यन्तरितो जनः ॥ १७ ॥
अर्थाभावं
विनिश्चित्य प्रतीतस्यापि नात्मनः ।
तां
चापि युष्मच्चरण सेवयाहं पराणुदे ॥ १८ ॥
यत्सेवया
भगवतः कूटस्थस्य मधुद्विषः ।
रतिरासो
भवेत्तीव्रः पादयोर्व्यसनार्दनः ॥ १९ ॥
दुरापा
ह्यल्पतपसः सेवा वैकुण्ठवर्त्मसु ।
यत्रोपगीयते
नित्यं देवदेवो जनार्दनः ॥ २० ॥
इस
संसारमें दो ही प्रकार के लोग सुखी हैं—या तो जो अत्यन्त
मूढ़ (अज्ञानग्रस्त) हैं, या जो बुद्धि आदि से अतीत
श्रीभगवान् को प्राप्त कर चुके हैं। बीचकी श्रेणीके संशयापन्न लोग तो दु:ख ही
भोगते रहते हैं ॥ १७ ॥ भगवन् ! आपकी कृपा से मुझे यह निश्चय हो गया कि ये अनात्म
पदार्थ वस्तुत: हैं नहीं, केवल प्रतीत ही होते हैं । अब मैं
आपके चरणों की सेवा के प्रभाव से उस प्रतीति को भी हटा दूँगा ॥ १८ ॥ इन श्रीचरणों की
सेवा से नित्यसिद्ध भगवान् श्रीमधुसूदन के चरणकमलों में उत्कट प्रेम और आनन्दकी वृद्धि होती है, जो आवागमन की यन्त्रणाका नाश कर देती है ॥ १९ ॥ महात्मा लोग भगवत्प्राप्ति
के साक्षात् मार्ग ही होते हैं, उनके यहाँ सर्वदा देवदेव
श्रीहरि के गुणों का गान होता रहता है; अल्पपुण्य पुरुषको
उनकी सेवाका अवसर मिलना अत्यन्त कठिन है ॥ २० ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय
स्कन्ध - सातवाँ
अध्याय..(पोस्ट०५)
विदुरजीके
प्रश्र
सृष्ट्वाग्रे
महदादीनि सविकाराणि अनुक्रमात् ।
तेभ्यो
विराजं उद्धृत्य तमनु प्राविशद्विभुः ॥ २१ ॥
यमाहुराद्यं
पुरुषं सहस्राङ्घ्र्यूरुबाहुकम् ।
यत्र
विश्व इमे लोकाः सविकाशं समासते ॥ २२ ॥
यस्मिन्
दशविधः प्राणः सेन्द्रियार्थेन्द्रियः त्रिवृत् ।
त्वयेरितो
यतो वर्णाः तद्विभूतीर्वदस्व नः ॥ २३ ॥
यत्र
पुत्रैश्च पौत्रैश्च नप्तृभिः सह गोत्रजैः ।
प्रजा
विचित्राकृतय आसन्याभिरिदं ततम् ॥ २४ ॥
प्रजापतीनां
स पतिः चकॢपे कान् प्रजापतीन् ।
सर्गांश्चैवानुसर्गांश्च
मनून् मन्वन्तराधिपान् ॥ २५ ॥
(विदुरजी
कहते हैं) भगवन् ! आपने कहा कि सृष्टि के प्रारम्भ में भगवान् ने क्रमश: महदादि
तत्त्व और उनके विकारों को रचकर फिर उनके अंशों से विराट्को उत्पन्न किया और इसके पश्चात् वे स्वयं उसमें
प्रविष्ट हो गये ॥ २१ ॥ उन विराट्के हजारों पैर, जाँघें और
बाँहें हैं; उन्हींको वेद आदिपुरुष कहते हैं; उन्हीं में ये सब लोक विस्तृतरूप से स्थित हैं ॥ २२ ॥ उन्हीं में इन्द्रिय,
विषय और इन्द्रियाभिमानी देवताओंके सहित दस प्रकार के प्राणों का—जो इन्द्रियबल, मनोबल और शारीरिक बलरूप से तीन
प्रकार के हैं— आपने वर्णन किया है और उन्हीं से ब्राह्मणादि
वर्ण भी उत्पन्न हुए हैं। अब आप मुझे उनकी ब्रह्मादि विभूतियोंका वर्णन सुनाइये—जिनसे पुत्र, पौत्र, नाती और
कुटुम्बियोंके सहित तरह-तरहकी प्रजा उत्पन्न हुई और उससे यह सारा ब्रह्माण्ड भर
गया ॥ २३-२४ ॥ वह विराट् ब्रह्मादि प्रजापतियोंका भी प्रभु है। उसने किन-किन
प्रजापतियोंको उत्पन्न किया तथा सर्ग, अनुसर्ग और
मन्वन्तरोंके अधिपति मनुओंकी भी किस क्रमसे रचना की ? ॥ २५ ॥
शेष
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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
00000000000
॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय
स्कन्ध - सातवाँ
अध्याय..(पोस्ट०६)
विदुरजीके
प्रश्र
एतेषामपि
वंशांश्च वंशानुचरितानि च ।
उपर्यधश्च
ये लोका भूमेर्मित्रात्मजासते ॥ २६ ॥
तेषां
संस्थां प्रमाणं च भूर्लोकस्य च वर्णय ।
तिर्यङ्मानुषदेवानां
सरीसृप पतत्त्रिणाम् ।
वद
नः सर्गसंव्यूहं गार्भस्वेदद्विजोद्भिदाम् ॥ २७॥
गुणावतारैर्विश्वस्य
सर्गस्थित्यप्ययाश्रयम् ।
सृजतः
श्रीनिवासस्य व्याचक्ष्वोदारविक्रमम् ॥ २८ ॥
वर्णाश्रमविभागांश्च
रूपशीलस्वभावतः ।
ऋषीणां
जन्मकर्माणि वेदस्य च विकर्षणम् ॥ २९ ॥
यज्ञस्य
च वितानानि योगस्य च पथः प्रभो ।
नैष्कर्म्यस्य
च साङ्ख्यस्य तंत्रं वा भगवत्स्मृतम् ॥ ३० ॥
पाषण्डपथवैषम्यं
प्रतिलोमनिवेशनम् ।
जीवस्य
गतयो याश्च यावतीर्गुणकर्मजाः ॥ ३१ ॥
(विदुरजी
कहरहे हैं) मैत्रेयजी ! उन मनुओं के वंश और वंशधर राजाओं के चरित्रों का, पृथ्वी के ऊपर और नीचे के लोकों तथा भूर्लोक के विस्तार और स्थिति का भी
वर्णन कीजिये तथा यह भी बताइये कि तिर्यक्, मनुष्य, देवता, सरीसृप (सर्पादि रेंगनेवाले जन्तु) और पक्षी
तथा जरायुज, स्वेदज, अण्डज और उद्भिज्ज—ये चार प्रकारके प्राणी किस प्रकार उत्पन्न हुए ॥ २६-२७ ॥ श्रीहरिने
सृष्टि करते समय जगत् की उत्पत्ति, स्थिति और संहारके लिये
अपने गुणावतार ब्रह्मा, विष्णु और महादेवरूपसे जो कल्याणकारी
लीलाएँ कीं, उनका भी वर्णन कीजिये ॥ २८ ॥ वेष, आचरण और स्वभावके अनुसार वर्णाश्रमका विभाग, ऋषियोंके
जन्म- कर्मादि, वेदोंका विभाग, यज्ञोंका
विस्तार, योगका मार्ग, ज्ञानमार्ग और
उसका साधन सांख्यमार्ग तथा भगवान्के कहे हुए नारदपाञ्चरात्र आदि तन्त्रशास्त्र,
विभिन्न पाखण्डमार्गों के प्रचार से होनेवाली विषमता, नीचवर्ण के पुरुष से उच्चवर्ण की स्त्रीमें होनेवाली सन्तानों के प्रकार तथा भिन्न-भिन्न
गुण और कर्मोंके कारण जीव की जैसी और
जितनी गतियाँ, होती हैं, वे सब हमें
सुनाइये ॥ २९—३१ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
००००००००००
॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय
स्कन्ध - सातवाँ
अध्याय..(पोस्ट०७)
विदुरजीके
प्रश्र
धर्मार्थकाममोक्षाणां
निमित्तान्यविरोधतः ।
वार्ताया
दण्डनीतेश्च श्रुतस्य च विधिं पृथक् ॥ ३२ ॥
श्राद्धस्य
च विधिं ब्रह्मन् पितॄणां सर्गमेव च ।
ग्रहनक्षत्रताराणां
कालावयवसंस्थितिम् ॥ ३३ ॥
दानस्य
तपसो वापि यच्चेष्टापूर्तयोः फलम् ।
प्रवासस्थस्य
यो धर्मो यश्च पुंस उतापदि ॥ ३४ ॥
येन
वा भगवान् तुस्तुष्येद् धर्मयोनिर्जनार्दनः ।
सम्प्रसीदति
वा येषां एतत् आख्याहि मेऽनघ ॥ ३५ ॥
अनुव्रतानां
शिष्याणां पुत्राणां च द्विजोत्तम ।
अनापृष्टमपि
ब्रूयुः गुरवो दीनवत्सलाः ॥ ३६ ॥
तत्त्वानां
भगवन् तेषां कतिधा प्रतिसङ्क्रमः ।
तत्रेमं
क उपासीरन् क उ स्विदनुशेरते ॥ ३७ ॥
ब्रह्मन्
! धर्म,
अर्थ, काम और मोक्षकी प्राप्तिके परस्पर
अविरोधी साधनोंका, वाणिज्य, दण्डनीति
और शास्त्रश्रवणकी विधियोंका, श्राद्धकी विधिका, पितृगणोंकी सृष्टिका तथा कालचक्रमें ग्रह, नक्षत्र
और तारागणकी स्थितिका भी अलग-अलग वर्णन कीजिये ॥ ३२-३३ ॥ दान, तप तथा इष्ट और पूर्त कर्मों का
क्या फल है ?
प्रवास और आपत्तिके समय मनुष्यका क्या धर्म होता है ? ॥ ३४ ॥ निष्पाप मैत्रेयजी ! धर्मके मूल कारण श्रीजनार्दन भगवान् किस
आचरणसे सन्तुष्ट होते हैं और किनपर अनुग्रह करते हैं, यह
वर्णन कीजिये ॥ ३५ ॥ द्विजवर ! दीनवत्सल गुरुजन अपने अनुगत शिष्यों और पुत्रोंको
बिना पूछे भी उनके हितकी बात बतला दिया करते हैं ॥ ३६ ॥ भगवन् ! उन महदादि
तत्त्वोंका प्रलय कितने प्रकारका है ? तथा जब भगवान्
योगनिद्रामें शयन करते हैं, तब उनमेंसे कौन-कौन तत्त्व उनकी
सेवा करते हैं और कौन उनमें लीन हो जाते हैं ? ॥ ३७ ॥
०००००००
॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय
स्कन्ध - सातवाँ
अध्याय..(पोस्ट०८)
विदुरजीके
प्रश्र
पुरुषस्य
च संस्थानं स्वरूपं वा परस्य च ।
ज्ञानं
च नैगमं यत्तद् गुरुशिष्यप्रयोजनम् ॥ ३८ ॥
निमित्तानि
च तस्येह प्रोक्तान्यनघसूरिभिः ।
स्वतो
ज्ञानं कुतः पुंसां भक्तिर्वैराग्यमेव वा ॥ ३९ ॥
एतान्मे
पृच्छतः प्रश्नान् हरेः कर्मविवित्सया ।
ब्रूहि
मेऽज्ञस्य मित्रत्वात् अजया नष्टचक्षुषः ॥ ४० ॥
सर्वे
वेदाश्च यज्ञाश्च तपो दानानि चानघ ।
जीवाभयप्रदानस्य
न कुर्वीरन् कलामपि ॥ ४१ ॥
श्रीशुक
उवाच –
स
इत्थं आपृष्टपुराणकल्पः
कुरुप्रधानेन मुनिप्रधानः ।
प्रवृद्धहर्षो
भगवत्कथायां
सञ्चोदितस्तं प्रहसन्निवाह ॥ ४२ ॥
जीवका
तत्त्व,
परमेश्वरका स्वरूप, उपनिषत्-प्रतिपादित ज्ञान
तथा गुरु और शिष्यका पारस्परिक प्रयोजन क्या है ? ॥ ३८ ॥
पवित्रात्मन् विद्वानोंने उस ज्ञानकी प्राप्तिके क्या-क्या उपाय बतलाये हैं ?
क्योंकि मनुष्योंको ज्ञान, भक्ति अथवा
वैराग्यकी प्राप्ति अपने-आप तो हो नहीं सकती ॥ ३९ ॥ ब्रह्मन् ! माया-मोहके कारण
मेरी विचार-दृष्टि नष्ट हो गयी है। मैं अज्ञ हूँ, आप मेरे
परम सुहृद् हैं; अत: श्रीहरिलीलाका ज्ञान प्राप्त करनेकी
इच्छासे मैंने जो प्रश्र किये हैं, उनका उत्तर मुझे दीजिये ॥
४० ॥ पुण्यमय मैत्रेयजी ! भगवत्तत्त्वके उपदेशद्वारा जीवको जन्म-मृत्युसे छुड़ाकर
उसे अभय कर देनेमें जो पुण्य होता है, समस्त वेदोंके अध्ययन,
यज्ञ, तपस्या और दानादिसे होनेवाला पुण्य उस
पुण्यके सोलहवें अंशके बराबर भी नहीं हो सकता ॥ ४१ ॥
श्रीशुकदेवजी
कहते हैं—राजन् ! जब कुरुश्रेष्ठ विदुरजी ने मुनिवर मैत्रेयजी से इस प्रकार
पुराणविषयक प्रश्र किये, तब भगवच्चर्चा के लिये प्रेरित किये
जानेके कारण वे बड़े प्रसन्न हुए और मुसकराकर उनसे कहने लगे ॥ ४२ ॥
इति
श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
तृतीयस्कन्धे
सप्तमोऽध्यायः ॥ ७ ॥
हरिः
ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
००००००००
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