❈ श्री हरिः शरणम् ❈
गीता में व्यक्तोपासना (पोस्ट 03)
( सम्पादक-कल्याण )
भगवान् ने अर्जुन से कहा--
मय्यावेश्य मनो ये मां नित्ययुक्ता उपासते ।
श्रद्धया परयोपेतास्ते मे युक्ततमा मताः॥
( गी० १२ । २ )
‘हे अर्जुन ! जो मुझ साकाररूप परमेश्वरमें मन लगाकर निश्चल परम श्रद्धासे युक्त हो निरन्तर मेरी ही उपासनामें लगे रहते हैं, मेरे मतसे वे ही परम उत्तम योगी हैं।’ उत्तर भी स्पष्ट है-भगवान् कहते हैं, मेरे द्वारा बतलायी हुई विधिके अनुसार मुझमें निरन्तर चित्त एकाग्र करके जो परम श्रद्धासे मेरी उपासना करते हैं, मेरे मतमें वे ही श्रेष्ठ हैं। यहाँ प्रथम श्लोकके ‘त्वां’ और इस श्लोकके ‘मां’ शब्द अव्यक्त-निराकारवाचक न होकर साकार वाचक ही हैं। क्योंकि अगले श्लोकोंमें अव्यक्तोपासनाका स्पष्ट वर्णन है, जो ‘तु’ शब्दसे इससे सर्वथा पृथक कर दिया गया है। इससे यही सिद्ध होता है कि भगवानके मतमें उनके साकाररूपके उपासक ही अतिश्रेष्ठ योगी हैं एवं एकादश अध्यायके अन्तिम श्लोकके अनुसार उनको भगवत्प्राप्ति होना निश्चित है, परन्तु इससे कोई यह न समझे कि अव्यक्तोपासना निम्न-श्रेणीकी है या उन्हें भगवत्प्राप्ति नहीं होती। इसी भ्रमकी गुंजायशको सर्वथा मिटा देनेके लिये भगवान् स्वयमेव कहते हैं।
ये त्वक्षरमनिर्देश्यमव्यक्तं पर्युपासते।
सर्वत्रगमचिन्त्यं च कूटस्थमचलं ध्रुवम्॥
संनियम्येन्द्रियग्रामं सर्वत्र समबुद्धयः।
ते प्राप्नुवन्ति मामेव सर्वभूतहिते रताः॥
( गीता १२ । ३-४ )
‘जो पुरुष समस्त इन्द्रियोंको वशमें करके सर्वत्र समबुद्धि-सम्पन्न हो जीवमात्रके हितमें रत रहते हुए अचिन्त्य ( मन-बुद्धिसे परे ) सर्वत्रग ( सर्वव्यापी ) अनिर्देश्य ( अकथनीय ) कूटस्थ ( नित्य एक रस ) ध्रुव ( नित्य ) अचल, अव्यक्त ( निराकार ) अक्षर ब्रह्मस्वरूपकी निरन्तर उपासना करते हैं, वे मुझको ही प्राप्त होते हैं।’
इस कथन से यह निश्चय हो गया कि दोनों ही उपासनाओंका फल एक है, तो फिर अव्यक्तोपासकसे व्यक्तोपासकको उत्तम क्यों बतलाया? क्या बिना ही कारण भगवान्ने ऐसी बात कह दी? क्या मन्दबुद्धि मुमुक्षुओंको सगुणोपासनाकी प्रवृत्ति को सिद्धिके लिये उन्हें युक्ततम बतला दिया या उन्हें उत्साही बनाये रखने के लिये व्यक्तोपासनाकी रोचक स्तुति कर दी अथवा अर्जुनको साकारका मन्द अधिकारी समझकर उसीके लिये व्यक्तोपासनाको श्रेष्ठ करार दे दिया ? भगवान् का क्या अभिप्राय था सो तो भगवान् ही जानें, परन्तु मेरा मन तो यही कहता है कि भगवान् ने जहाँ पर जो कुछ कहा है सो सभी यथार्थ है। उनके शब्दोंमें रोचक-भयानककी कल्पना करना कदापि उचित नहीं । भगवान् ने न तो किसीकी अयथार्थ स्तुति की है और न अयथार्थ किसी को कोसा ही है।
शेष आगामी पोस्ट में .................
…....००५.०५.मार्गशीर्ष कृष्ण ११ सं०१९८७; नवम्बर १९३०.कल्याण (पृ०७५८)
गीता में व्यक्तोपासना (पोस्ट 03)
( सम्पादक-कल्याण )
भगवान् ने अर्जुन से कहा--
मय्यावेश्य मनो ये मां नित्ययुक्ता उपासते ।
श्रद्धया परयोपेतास्ते मे युक्ततमा मताः॥
( गी० १२ । २ )
‘हे अर्जुन ! जो मुझ साकाररूप परमेश्वरमें मन लगाकर निश्चल परम श्रद्धासे युक्त हो निरन्तर मेरी ही उपासनामें लगे रहते हैं, मेरे मतसे वे ही परम उत्तम योगी हैं।’ उत्तर भी स्पष्ट है-भगवान् कहते हैं, मेरे द्वारा बतलायी हुई विधिके अनुसार मुझमें निरन्तर चित्त एकाग्र करके जो परम श्रद्धासे मेरी उपासना करते हैं, मेरे मतमें वे ही श्रेष्ठ हैं। यहाँ प्रथम श्लोकके ‘त्वां’ और इस श्लोकके ‘मां’ शब्द अव्यक्त-निराकारवाचक न होकर साकार वाचक ही हैं। क्योंकि अगले श्लोकोंमें अव्यक्तोपासनाका स्पष्ट वर्णन है, जो ‘तु’ शब्दसे इससे सर्वथा पृथक कर दिया गया है। इससे यही सिद्ध होता है कि भगवानके मतमें उनके साकाररूपके उपासक ही अतिश्रेष्ठ योगी हैं एवं एकादश अध्यायके अन्तिम श्लोकके अनुसार उनको भगवत्प्राप्ति होना निश्चित है, परन्तु इससे कोई यह न समझे कि अव्यक्तोपासना निम्न-श्रेणीकी है या उन्हें भगवत्प्राप्ति नहीं होती। इसी भ्रमकी गुंजायशको सर्वथा मिटा देनेके लिये भगवान् स्वयमेव कहते हैं।
ये त्वक्षरमनिर्देश्यमव्यक्तं पर्युपासते।
सर्वत्रगमचिन्त्यं च कूटस्थमचलं ध्रुवम्॥
संनियम्येन्द्रियग्रामं सर्वत्र समबुद्धयः।
ते प्राप्नुवन्ति मामेव सर्वभूतहिते रताः॥
( गीता १२ । ३-४ )
‘जो पुरुष समस्त इन्द्रियोंको वशमें करके सर्वत्र समबुद्धि-सम्पन्न हो जीवमात्रके हितमें रत रहते हुए अचिन्त्य ( मन-बुद्धिसे परे ) सर्वत्रग ( सर्वव्यापी ) अनिर्देश्य ( अकथनीय ) कूटस्थ ( नित्य एक रस ) ध्रुव ( नित्य ) अचल, अव्यक्त ( निराकार ) अक्षर ब्रह्मस्वरूपकी निरन्तर उपासना करते हैं, वे मुझको ही प्राप्त होते हैं।’
इस कथन से यह निश्चय हो गया कि दोनों ही उपासनाओंका फल एक है, तो फिर अव्यक्तोपासकसे व्यक्तोपासकको उत्तम क्यों बतलाया? क्या बिना ही कारण भगवान्ने ऐसी बात कह दी? क्या मन्दबुद्धि मुमुक्षुओंको सगुणोपासनाकी प्रवृत्ति को सिद्धिके लिये उन्हें युक्ततम बतला दिया या उन्हें उत्साही बनाये रखने के लिये व्यक्तोपासनाकी रोचक स्तुति कर दी अथवा अर्जुनको साकारका मन्द अधिकारी समझकर उसीके लिये व्यक्तोपासनाको श्रेष्ठ करार दे दिया ? भगवान् का क्या अभिप्राय था सो तो भगवान् ही जानें, परन्तु मेरा मन तो यही कहता है कि भगवान् ने जहाँ पर जो कुछ कहा है सो सभी यथार्थ है। उनके शब्दोंमें रोचक-भयानककी कल्पना करना कदापि उचित नहीं । भगवान् ने न तो किसीकी अयथार्थ स्तुति की है और न अयथार्थ किसी को कोसा ही है।
शेष आगामी पोस्ट में .................
…....००५.०५.मार्गशीर्ष कृष्ण ११ सं०१९८७; नवम्बर १९३०.कल्याण (पृ०७५८)
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