❈ श्री हरिः शरणम् ❈
गीता में व्यक्तोपासना (पोस्ट 04)
( सम्पादक-कल्याण )
यहाँ भगवान् ने जो साकारोपासक की श्रेष्ठता बतलायी है उसका कारण भी भगवान् ने अगले तीन श्लोकोंमें स्पष्ट कर दिया है-
क्लेशोऽधिकतरस्तेषामव्यक्तासक्तचेतसाम्।
अव्यक्ता हि गतिर्दुखं देहवद्भिरवाप्यते॥
..........( गी० १२ । ५ )
‘जिनका मन तो अव्यक्तकी ओर आसक्त है, परन्तु जिनके हृदयमें देहाभिमान बना हुआ है, ऐसे लोगोंके लिये अव्यक्त ब्रह्मकी उपासनामें चित्त टिकाना विशेष क्लेशसाध्य है। वास्तवमें निराकारकी गति दुःखपूर्वक ही प्राप्त होती है।’ भगवान्के साकार-व्यक्तस्वरूपको एक आधार रहता है, जिसका सहारा लेकर ही कोई साधन-मार्गपर आरूढ़ हो सकता है, परन्तु निराकारका साधक तो बिना केवटकी नावकी भाँति निराधार अपने ही बलपर चलता है। अपार संसार-सागरमें विषय-वासनाकी भीषण तरंगोंसे तरीको बचाना, भोगोंके प्रचण्ड तूफानसे नावकी रक्षा करना और बिना किसी मददगारके लक्ष्यपर स्थिर रहते हुए आप ही डाँड़ चलाते जाना बड़ा ही कठिन कार्य है। परन्तु इसके विपरीत-
ये तु सर्वाणि कर्माणि मयि संन्यस्य मत्पराः।
अनन्येनैव योगेन मां ध्यायन्त उपासते॥
तेषामहं समुद्धर्ता मृत्युसंसारसागरात्।
भवामि नचिरात्पार्थ मय्यावेशितचेतसाम्॥
...............( गी० १२ । ६-७ )
‘जो लोग मेरे ( भगवान्के ) परायण होकर, मुझको ही अपनी परमगति, परम आश्रय, परम शक्ति, परम लक्ष्य मानते हुए सम्पूर्ण कर्म मुझमें अर्पण करके मुझ साकार ईश्वरकी अनन्य योगसे निरन्तर उपासना करते हैं, उन मुझमें चित्त लगानेवाले भक्तोंको मृत्युशील संसार-सागरसे बहुत ही शीघ्र सुखपूर्वक मैं पार कर देता हूँ।’ उनको न तो अनन्त अम्बुधि की क्षुब्ध उत्ताल तरंगोंका भय है और न भीषण झञ्झावातके आघातसे नौकाके ध्वंस होने या डूबनेका ही डर है। वे तो बस, मेरी कृपासे आच्छादित सुन्दर सुसज्जित दृढ़ ‘बजरे’में बैठकर केवल सर्वात्मभावसे मेरी ओर निर्निमेष-दृष्टिसे ताकते रहें, मेरी लीलाएँ देख-देखकर प्रफुल्लित होते रहें, मेरी वंशीध्वनि सुन-सुनकर आनन्द में डूबते रहें। उनकी नावका खेवनहार केवट बनकर मैं उन्हें ‘नचिरात्’ इसी जन्म में अपने हाथों डाँड़ चलाकर संसार-सागरके उस पार परम धाममें पहुँचा दूँगा। जो भाग्यवान् भक्त भगवान् के इन वचनोंपर विश्वास कर समस्त शक्तियों के आधार, सम्पूर्ण ज्ञान के भण्डार, अखिल ऐश्वर्य के आकर, सौन्दर्य, प्रभुत्व, बल और प्रेमके अनन्त निधि उस परमात्माको अपनी जीवन-नौका का खेवनहार बना लेता है, जो अपनी बाँह उसे पकड़ा देता है, उनके अनायास ही पार उतरनेमें कोई खटका कैसे रह सकता है? उसको न तो नावके टकराने, टूटने और डूबनेका भय है, न चलाने का कष्ट है और न पार पहुँचने में ही तनिक-सा सन्देह है। पार तो अव्यक्तोपासक भी पहुँचता है, परन्तु उसका मार्ग कठिन है। इसप्रकार दोनोंका फल एक ही होनेके कारण सुगमता की वजह से यदि भगवान् के अव्यक्तोपासक की अपेक्षा व्यक्तोपासक को श्रेष्ठ या योगवित्तम बतलाया तो उनका ऐसा कहना सर्वथा उचित ही है, परन्तु बात इतनी ही नहीं है।
शेष आगामी पोस्ट में .................
…....००५.०५.मार्गशीर्ष कृष्ण ११ सं०१९८७; नवम्बर १९३०.कल्याण (पृ०७५८)
गीता में व्यक्तोपासना (पोस्ट 04)
( सम्पादक-कल्याण )
यहाँ भगवान् ने जो साकारोपासक की श्रेष्ठता बतलायी है उसका कारण भी भगवान् ने अगले तीन श्लोकोंमें स्पष्ट कर दिया है-
क्लेशोऽधिकतरस्तेषामव्यक्तासक्तचेतसाम्।
अव्यक्ता हि गतिर्दुखं देहवद्भिरवाप्यते॥
..........( गी० १२ । ५ )
‘जिनका मन तो अव्यक्तकी ओर आसक्त है, परन्तु जिनके हृदयमें देहाभिमान बना हुआ है, ऐसे लोगोंके लिये अव्यक्त ब्रह्मकी उपासनामें चित्त टिकाना विशेष क्लेशसाध्य है। वास्तवमें निराकारकी गति दुःखपूर्वक ही प्राप्त होती है।’ भगवान्के साकार-व्यक्तस्वरूपको एक आधार रहता है, जिसका सहारा लेकर ही कोई साधन-मार्गपर आरूढ़ हो सकता है, परन्तु निराकारका साधक तो बिना केवटकी नावकी भाँति निराधार अपने ही बलपर चलता है। अपार संसार-सागरमें विषय-वासनाकी भीषण तरंगोंसे तरीको बचाना, भोगोंके प्रचण्ड तूफानसे नावकी रक्षा करना और बिना किसी मददगारके लक्ष्यपर स्थिर रहते हुए आप ही डाँड़ चलाते जाना बड़ा ही कठिन कार्य है। परन्तु इसके विपरीत-
ये तु सर्वाणि कर्माणि मयि संन्यस्य मत्पराः।
अनन्येनैव योगेन मां ध्यायन्त उपासते॥
तेषामहं समुद्धर्ता मृत्युसंसारसागरात्।
भवामि नचिरात्पार्थ मय्यावेशितचेतसाम्॥
...............( गी० १२ । ६-७ )
‘जो लोग मेरे ( भगवान्के ) परायण होकर, मुझको ही अपनी परमगति, परम आश्रय, परम शक्ति, परम लक्ष्य मानते हुए सम्पूर्ण कर्म मुझमें अर्पण करके मुझ साकार ईश्वरकी अनन्य योगसे निरन्तर उपासना करते हैं, उन मुझमें चित्त लगानेवाले भक्तोंको मृत्युशील संसार-सागरसे बहुत ही शीघ्र सुखपूर्वक मैं पार कर देता हूँ।’ उनको न तो अनन्त अम्बुधि की क्षुब्ध उत्ताल तरंगोंका भय है और न भीषण झञ्झावातके आघातसे नौकाके ध्वंस होने या डूबनेका ही डर है। वे तो बस, मेरी कृपासे आच्छादित सुन्दर सुसज्जित दृढ़ ‘बजरे’में बैठकर केवल सर्वात्मभावसे मेरी ओर निर्निमेष-दृष्टिसे ताकते रहें, मेरी लीलाएँ देख-देखकर प्रफुल्लित होते रहें, मेरी वंशीध्वनि सुन-सुनकर आनन्द में डूबते रहें। उनकी नावका खेवनहार केवट बनकर मैं उन्हें ‘नचिरात्’ इसी जन्म में अपने हाथों डाँड़ चलाकर संसार-सागरके उस पार परम धाममें पहुँचा दूँगा। जो भाग्यवान् भक्त भगवान् के इन वचनोंपर विश्वास कर समस्त शक्तियों के आधार, सम्पूर्ण ज्ञान के भण्डार, अखिल ऐश्वर्य के आकर, सौन्दर्य, प्रभुत्व, बल और प्रेमके अनन्त निधि उस परमात्माको अपनी जीवन-नौका का खेवनहार बना लेता है, जो अपनी बाँह उसे पकड़ा देता है, उनके अनायास ही पार उतरनेमें कोई खटका कैसे रह सकता है? उसको न तो नावके टकराने, टूटने और डूबनेका भय है, न चलाने का कष्ट है और न पार पहुँचने में ही तनिक-सा सन्देह है। पार तो अव्यक्तोपासक भी पहुँचता है, परन्तु उसका मार्ग कठिन है। इसप्रकार दोनोंका फल एक ही होनेके कारण सुगमता की वजह से यदि भगवान् के अव्यक्तोपासक की अपेक्षा व्यक्तोपासक को श्रेष्ठ या योगवित्तम बतलाया तो उनका ऐसा कहना सर्वथा उचित ही है, परन्तु बात इतनी ही नहीं है।
शेष आगामी पोस्ट में .................
…....००५.०५.मार्गशीर्ष कृष्ण ११ सं०१९८७; नवम्बर १९३०.कल्याण (पृ०७५८)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें