❈ श्री हरिः शरणम् ❈
गीता में व्यक्तोपासना (पोस्ट 05)
( सम्पादक-कल्याण )
सरलता-कठिनता तो उपासनाकी है, इससे उपासकमें उत्तम मध्यमका भेद क्यों होने लगा? व्यक्तोपासक केवल उत्तम ही नहीं, योगवित्तम है, योग जाननेवालोंमें श्रेष्ठ है। उपासनाकी सुगमताके कारण आरामकी इच्छासे कठिन मार्गको त्यागकर सरलका ग्रहण करनेवाला श्रेष्ठ योगवेत्ता कैसे हो गया। अवश्य ही इसमें कोई रहस्य छिपा होना चाहिये और वह यह है--
अव्यक्तोपासक उपासनाके फलस्वरूप अन्तमें भगवान्को प्राप्त होता है, इसमें कोई सन्देह नहीं। परन्तु व्यक्तोपासकके तो त्रिभुवन-मोहन साकार-रूप-धारी भगवान् आरम्भसे ही साथ रहते हैं। अव्यक्तोपासक अपनी ‘अहं ब्रह्मास्मि’ की ज्ञान-नौकापर सवार होकर यदि मार्ग में अहंकार, मान, लोकैषणा आदि विघ्नोंसे बचकर अगे बढ़ जाता है, तो अन्तमें संसार-सागरके पार पहुँच जाता है। परन्तु व्यक्तोपासक तो पहलेसे ही भगवान्की कृपारूपी नौकापर सवार होता है और भगवान् स्वयं उसे खेकर पार करते हैं। नौकापर सवार होते ही उसे केवट कृष्णका साथ मिल जाता है। पार पहुँचनेके बाद तो दोनोंके आनन्दकी स्थिति समान है ही, परन्तु यह तो मार्गमें भी पल-पलमें परम कारुणिक मोहनकी माधुरी मूरति के देवदुर्लभ दर्शन कर पुलकित होता है, इसे उनकी मधुर वाणी, विश्व-विमोहिनी वंशीकी ध्वनि सुननेको एवं उनकी सुन्दर और शक्तिमयी क्रियाएँ देखनेको मिलती है। यह निश्चिन्त बैठा हुआ उनके स्वरूप और उनकी लीलाका मजा लूटता है। इसके सिवा एक महत्त्वकी बात और होती है। भगवान् किस मार्गसे क्योंकर नौका चलाते हैं, वह इस बातको भी ध्यानपूर्वक देखता है, जिससे वह भी परमधामके इस सुगम मार्गको और भव-तारण-कलाको सीख जाता है। ऐसे तारण-कलामें निपुण विश्वासपात्र भक्तको यदि भगवान् कृपापूर्वक अपने परम धामका अधिकारी स्वीकार कर और जगत्के लोगोंको तारनेका अधिकार देकर, अपने कार्यमें सहायक बनने या अपनी लोक-कल्याणकारिणी लीलामें सम्मिलित रखनेके लिये नौका देकर वापस संसारमें भेज देते हैं तो वह मुक्त हुआ भी भगवान्की ही भाँति जगत् के यथार्थ हितका कार्य करता है और एक चतुर विश्वासपात्र सेवक की भाँति भगवान् के लीलाकार्य में भी साथ रहता है। ऐसे ही स्थिति के महापुरुष कारक बनकर जगत्में आविर्भूत हुआ करते हैं।
शेष आगामी पोस्ट में .................
…....००५.०५.मार्गशीर्ष कृष्ण ११ सं०१९८७; नवम्बर १९३०.कल्याण (पृ०७५८)
गीता में व्यक्तोपासना (पोस्ट 05)
( सम्पादक-कल्याण )
सरलता-कठिनता तो उपासनाकी है, इससे उपासकमें उत्तम मध्यमका भेद क्यों होने लगा? व्यक्तोपासक केवल उत्तम ही नहीं, योगवित्तम है, योग जाननेवालोंमें श्रेष्ठ है। उपासनाकी सुगमताके कारण आरामकी इच्छासे कठिन मार्गको त्यागकर सरलका ग्रहण करनेवाला श्रेष्ठ योगवेत्ता कैसे हो गया। अवश्य ही इसमें कोई रहस्य छिपा होना चाहिये और वह यह है--
अव्यक्तोपासक उपासनाके फलस्वरूप अन्तमें भगवान्को प्राप्त होता है, इसमें कोई सन्देह नहीं। परन्तु व्यक्तोपासकके तो त्रिभुवन-मोहन साकार-रूप-धारी भगवान् आरम्भसे ही साथ रहते हैं। अव्यक्तोपासक अपनी ‘अहं ब्रह्मास्मि’ की ज्ञान-नौकापर सवार होकर यदि मार्ग में अहंकार, मान, लोकैषणा आदि विघ्नोंसे बचकर अगे बढ़ जाता है, तो अन्तमें संसार-सागरके पार पहुँच जाता है। परन्तु व्यक्तोपासक तो पहलेसे ही भगवान्की कृपारूपी नौकापर सवार होता है और भगवान् स्वयं उसे खेकर पार करते हैं। नौकापर सवार होते ही उसे केवट कृष्णका साथ मिल जाता है। पार पहुँचनेके बाद तो दोनोंके आनन्दकी स्थिति समान है ही, परन्तु यह तो मार्गमें भी पल-पलमें परम कारुणिक मोहनकी माधुरी मूरति के देवदुर्लभ दर्शन कर पुलकित होता है, इसे उनकी मधुर वाणी, विश्व-विमोहिनी वंशीकी ध्वनि सुननेको एवं उनकी सुन्दर और शक्तिमयी क्रियाएँ देखनेको मिलती है। यह निश्चिन्त बैठा हुआ उनके स्वरूप और उनकी लीलाका मजा लूटता है। इसके सिवा एक महत्त्वकी बात और होती है। भगवान् किस मार्गसे क्योंकर नौका चलाते हैं, वह इस बातको भी ध्यानपूर्वक देखता है, जिससे वह भी परमधामके इस सुगम मार्गको और भव-तारण-कलाको सीख जाता है। ऐसे तारण-कलामें निपुण विश्वासपात्र भक्तको यदि भगवान् कृपापूर्वक अपने परम धामका अधिकारी स्वीकार कर और जगत्के लोगोंको तारनेका अधिकार देकर, अपने कार्यमें सहायक बनने या अपनी लोक-कल्याणकारिणी लीलामें सम्मिलित रखनेके लिये नौका देकर वापस संसारमें भेज देते हैं तो वह मुक्त हुआ भी भगवान्की ही भाँति जगत् के यथार्थ हितका कार्य करता है और एक चतुर विश्वासपात्र सेवक की भाँति भगवान् के लीलाकार्य में भी साथ रहता है। ऐसे ही स्थिति के महापुरुष कारक बनकर जगत्में आविर्भूत हुआ करते हैं।
शेष आगामी पोस्ट में .................
…....००५.०५.मार्गशीर्ष कृष्ण ११ सं०१९८७; नवम्बर १९३०.कल्याण (पृ०७५८)
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