सोमवार, 4 फ़रवरी 2019

गीता में व्यक्तोपासना (पोस्ट 06)



श्री हरिः शरणम्

गीता में व्यक्तोपासना (पोस्ट 06)

( सम्पादक-कल्याण )

अव्यक्तोपासक परम धाममें पहुँचकर मुक्त हो वहीं रह जाते हैं। वे परमात्मामें घुल-मिलकर एक हो जाते हैं। वे वहाँसे वापस लौट ही नहीं सकते। इससे न तो उन्हें परमधाम जानेके मार्गमें साकार भगवान्‌के संग, उनके दर्शन, उनके साथ वार्तालाप और उनकी लीला देखनेका आनन्द मिलता है और न वे परमधामके पट्टेदार होकर सगुण भगवान्‌की लीलामें सम्मिलित हो उन्हींकी भाँति निपुण नाविक बनकर वापस ही आते हैं। यतो वाचो निवर्तन्ते अप्राप्य मनसा सहके अनुसार उनके बुद्धि आदि करण जो उनको दिव्यधाममें छोड़कर वहाँसे वापस लौटते हैं, वे भी साधारण मनुष्योंके सामने अव्यक्तोपासना-पथके उन्हीं नाना प्रकारके क्लेशोंके दृश्य रखकर परम धामकी प्राप्तिको ऐसी कष्टसाध्य और दुःख-लब्ध बता देते हैं कि लोग सहम जाते हैं। उनका वैसे दृश्य सामने रखना ठीक ही है, क्योंकि उन्होंने अव्यक्तोपासनाके कण्टकाकीर्ण मार्ग में वही देखे हैं । उन्हें प्रेममय श्यामसुन्दर के सलोने मुखड़े का तो कभी दर्शन हुआ ही नहीं, तब वे उस दिव्य रस का स्वाद लोगों को कैसे बतलाते ? इसके विपरीत व्यक्तोपासक अपनी मुक्ति को भगवान्‌ के खजाने में धरोहर के रूपमें रखकर उनकी मंगलमयी आज्ञा से पुनः संसार में आते हैं और भगवत्प्रेम के परम आनन्द-रस-समुद्रमें निमग्न हुए, देहाभिमानी होनेपर भी भगवान्‌ के मंगलमय मनोहर साकाररूप में एकान्तरूप से मनको एकाग्र करके उन्हींके लिये सर्व कर्म करनेवाले असंख्य लोगोंको दृढ़ और सुखपूर्ण नौकाओंपर चढ़ा-चढ़ा-कर संसारसे पार उतार देते हैं। यहाँ कोई यह कहे कि जैसे निराकारोपासक साकारके दर्शन और उनकी लीलाके आनन्दसे वञ्चित रहते हैं, वैसे ही साकार के उपासक ब्रह्मानन्दसे वञ्चित रहते होंगे।उन्हें परमात्मा का तत्त्वज्ञान नहीं होता होगा, परन्तु यह बात नहीं है।

निरे निराकारोपासक अपने बलसे जिस तत्त्वज्ञान को प्राप्त करते हैं, भगवान्‌ के प्रेमी साकारोपासकों को वही तत्त्वज्ञान भगवत्कृपासे मिल जाता है। भक्तराज ध्रुवजी का इतिहास प्रसिद्ध है। ध्रुव व्यक्तोपासक थे। पद्म-पलाश-लोचननारायण को आँखों से देखना चाहते थे। उनके प्रेमके प्रभावसे परमात्मा श्रीनारायण प्रकट हुए और अपना दिव्य शंख कपोलोंसे स्पर्श कराकर उन्हें उसी क्षण परम तत्त्वज्ञ बना दिया। इससे सिद्ध हुआ कि व्यक्तोपासक को अव्यक्तोपासकों का ध्येय तत्त्वज्ञान तो भगवत्कृपा से मिल ही जाता है।

शेष आगामी पोस्ट में .................

…....००५.०५.मार्गशीर्ष कृष्ण ११ सं०१९८७; नवम्बर १९३०.कल्याण (पृ०७५८)




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