ॐ श्रीमन्नारायणाय नम:
जीवसम्बन्धी प्रश्नोत्तर (पोस्ट 18)
(लेखक: श्री जयदयालजी गोयन्दका)
(लेखक: श्री जयदयालजी गोयन्दका)
आवागमन से छूटने का उपाय
जब तक परमात्मा की भक्ति उपासना निष्काम कर्मयोग आदि साधनोंद्वारा
यथार्थ ज्ञान उत्पन्न होकर उसकी अग्नि से अनन्त कर्मराशि सम्पूर्णतः भस्म नहीं हो
जाती, तबतक उन्हें भोगने के लिये जीव को परवश होकर
शुभाशुभ कर्मों के संस्कार, मूल प्रकृति और अन्तःकरण तथा
इन्द्रियों को साथ लिये लगातार बारम्बार जाना आना पड़ता है। जाने और आने में यही
वस्तुएं साथ जाती आती हैं। जीव के पूर्वजन्मकृत शुभाशुभ कर्म ही इसके गर्भ में
आनेके हेतु हैं और अनेक जन्मार्जित संचित कर्मों के अंश विशेष निर्मित प्रारब्ध का
भोग करना ही इसके जन्म का कारण है।
कर्म या तो भोग से नाश होते हैं या प्रायश्चित्त निष्काम कर्म
उपासनादि साधनोंसे नष्ट होते हैं ।
इनका सर्वतोभाव से नाश परमात्मा की प्राप्ति से होता है । जो निष्काम भावसे सदा सर्वदा परमात्मा का स्मरण करते हुए मन-बुद्धि परमात्मा को अर्पण करके समस्त कार्य परमात्मा के लिये ही करते हैं, उनकी अन्त समयकी वासना परमात्माकी प्राप्ति होती है। भगवान् कहते हैं--
इनका सर्वतोभाव से नाश परमात्मा की प्राप्ति से होता है । जो निष्काम भावसे सदा सर्वदा परमात्मा का स्मरण करते हुए मन-बुद्धि परमात्मा को अर्पण करके समस्त कार्य परमात्मा के लिये ही करते हैं, उनकी अन्त समयकी वासना परमात्माकी प्राप्ति होती है। भगवान् कहते हैं--
तस्मात् सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च।
मय्यर्पितमनोबुद्धिर्मामेवैष्यस्यसंशयम्॥
........( गीता ८ । ७ )
मय्यर्पितमनोबुद्धिर्मामेवैष्यस्यसंशयम्॥
........( गीता ८ । ७ )
‘अतएव हे अर्जुन! तू सब समय निरन्तर मेरा स्मरण कर
और युद्ध भी कर, इसप्रकार मुझमें अर्पण किये हुए मन बुद्धिसे
युक्त हुआ तू निस्सन्देह मुझको ही प्राप्त होगा।’
इस स्थितिमें तत्त्वज्ञानकी प्राप्ति होनेके कारण अज्ञानसहित
पुरुषके सभी कर्म नाश हो जाते हैं। इनसे उसका आवागमन सदाके लिये मिट जाता है। यही
मुक्ति है, इसीका नाम परमपदकी प्राप्ति है, यही जीवका चरम लक्ष्य है। इस मुक्तिके दो भेद हैं-एक सद्योमुक्ति और दूसरी
क्रममुक्ति। इनमें क्रममुक्तिका वर्णन तो देवयान-मार्गके प्रकरणमें ऊपर आ चुका है।
सद्योमुक्ति दो प्रकारकी होती है-जीवनमुक्ति और विदेहमुक्ति।
शेष आगामी पोस्ट में ..........
................००३. ०८. फाल्गुन कृ०११ सं०१९८५.
कल्याण (पृ०७९३)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें