मो
सम दीन न दीन हित तुम्ह समान रघुबीर।
अस
बिचारि रघुबंस मनि हरहु बिषम भव भीर।।
कामिहि
नारि पिआरि जिमि लोभिहि प्रिय जिमि दाम।
तिमि
रघुनाथ निरंतर प्रिय लागहु मोहि राम।।
भावार्थ:
हे श्रीरघुवीर ! मेरे समान कोई दीन नहीं है और आपके समान कोई दीनों का हित करनेवाला
नहीं है। ऐसा विचार कर हे रघुवंशमणि ! मेरे जन्म-मरण के भयानक दुःख को हरण कर
लीजिये ।।जैसे कामीको स्त्री प्रिय लगती है और लोभी को जैसे धन प्यारा लगता है, वैसे ही हे रघुनाथजी ! हे राम जी ! आप निरन्तर मुझे प्रिय लगिये।।
जय सियाराम
जवाब देंहटाएंजय महाकाल
जवाब देंहटाएं