गुरुवार, 28 फ़रवरी 2019

जय सियाराम !


मो सम दीन न दीन हित तुम्ह समान रघुबीर।
अस बिचारि रघुबंस मनि हरहु बिषम भव भीर।।
कामिहि नारि पिआरि जिमि लोभिहि प्रिय जिमि दाम।
तिमि रघुनाथ निरंतर प्रिय लागहु मोहि राम।।

भावार्थ: हे श्रीरघुवीर ! मेरे समान कोई दीन नहीं है और आपके समान कोई दीनों का हित करनेवाला नहीं है। ऐसा विचार कर हे रघुवंशमणि ! मेरे जन्म-मरण के भयानक दुःख को हरण कर लीजिये ।।जैसे कामीको स्त्री प्रिय लगती है और लोभी को जैसे धन प्यारा लगता है, वैसे ही हे रघुनाथजी ! हे राम जी ! आप निरन्तर मुझे प्रिय लगिये।।



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