शनिवार, 23 मार्च 2019

श्रीदुर्गासप्तशती -अथ प्राधानिकं रहस्यम् (पोस्ट ०६)


श्रीदुर्गादेव्यै नमो नम:

अथ श्रीदुर्गासप्तशती
अथ प्राधानिकं रहस्यम् (पोस्ट ०६)

महालक्ष्मीर्महाराज सर्वसत्त्‍‌वमयीश्वरी।
निराकारा च साकारा सैव नानाभिधानभृत्॥30
नामान्तरैर्निरूप्यैषा नामन नान्येन केनचित्॥ॐ॥31

महाराज! महालक्ष्मी ही सर्वसत्त्‍‌वमयी तथा सब सत्त्‍‌वों की अधीश्वरी हैं। वे ही निराकार और साकाररूप में रहकर नाना प्रकार के नाम धारण करती हैं॥30॥ सगुणवाचक सत्य, ज्ञान, चित्, महामाया आदि नामान्तरों से इन महालक्ष्मी का निरूपण करना चाहिये। केवल एक नाम (महालक्ष्मी मात्र) से अथवा अन्य प्रत्यक्ष आदि प्रमाण से उनका वर्णन नहीं हो सकता॥31

इति प्राधानिकं * रहस्यं संपूर्णम्
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* प्रथम रहस्य में परा शक्ति महालक्ष्मी के स्वरूप का प्रतिपादन किया गया है; महालक्ष्मी ही देवी की के समस्त विकृतियों (अवतारों)- की प्रधान प्रकृति हैं, अतएव इस प्रकरण को प्राकृतिक या प्राधानिक रहस्य कहते हैं। इसके अनुसार महालक्ष्मी ही सब प्रपञ्च तथा सम्पूर्ण अवतारों का आदि कारण हैं। तीनों गुणों की   साम्यावस्थारूपा प्रकृति भी उनसे भिन्न नहीं है। स्थूल-सूक्ष्म, दृश्य-अदृश्य अथवा व्यक्त-अव्यक्त-सब है। उन्हींके स्वरूप हैं। वे सर्वत्र व्यापक हैं। अस्ति, भाति, प्रिय, नाम और रूप-सब वे ही हैं। वे सच्चिदानन्दमयी  ॥ परमेश्वरी सूक्ष्मरूपसे सर्वत्र व्याप्त होती हुई भी भक्तोंपर अनुग्रह करनेके लिये परम दिव्य चिन्मय सगुणरूपसे  भी सदा विराजमान रहती हैं। उनके उस श्रीविग्रह की कान्ति तपाये हुए सुवर्णकी भाँति है। वे अपने चार हाथों में मातुलुङ्ग (बिजौरा), गदा, खेट (ढाल) और पानपात्र धारण करती हैं तथा मस्तकपर नाग, लिङ्ग और योनि धारण किये रहती हैं। भुवनेश्वरी-संहिता के अनुसार मातुलुङ्ग कर्मराशिका, गदा क्रियाशक्तिका, खेट ज्ञानशक्तिका और पानपात्र तुरीय वृत्ति (अपने सच्चिदानन्दमय स्वरूप में स्थिति)- का सूचक है। इसी प्रकार नाग से कालका, योनि से प्रकृति का और लिङ्ग से पुरुष का ग्रहण होता है। तात्पर्य यह कि प्रकृति, पुरुष और कालतीनों का अधिष्ठान परमेश्वरी महालक्ष्मी ही हैं। उक्त चतुर्भुजा महालक्ष्मीके किस हाथमें कौन-से  आयुध हैं, इसमें भी मतभेद है। रेणुका-माहात्म्यमें बताया गया है, दाहिनी ओरके नीचेके हाथमें पानपात्र और ऊपर के हाथ में गदा है। बायीं ओर के ऊपर के हाथ में खेट तथा नीचे के हाथ में श्रीफल है, परंतु वैकृतिक रहस्य में 'दक्षिणाधःकरक्रमात्' कहकर जो क्रम दिखाया गया है, उसके अनुसार दाहिनी ओर के निचले हाथमें मातुलुङ्ग, ऊपरवाले हाथमें गदा, बायीं ओर के ऊपरवाले हाथ में खेट तथा नीचे वाले हाथमें पानपात्र है। चतुर्भुजा महालक्ष्मी ने क्रमशः तमोगुण और सत्त्वगुणरूप उपाधि के द्वारा अपने दो रूप और प्रकट किये, जिनकी क्रमशः महाकाली और महासरस्वतीके नामसे प्रसिद्धि हुई। ये दोनों सप्तशतीके प्रथम चरित्र और उत्तर  चरित्रमें वर्णित महाकाली और महासरस्वती से भिन्न हैं; क्योंकि ये दोनों ही चतुर्भुजा हैं और उक्त चरित्रों में वर्णित महाकाली के दस तथा महासरस्वती के आठ भुजाएँ हैं। चतुर्भुजा महाकाली के हाथों में खड्ग,पानपात्र,मस्तक और ढाल हैं; इनका क्रम भी पूर्ववत् ही है। चतुर्भुजा सरस्वतीके हाथों में अक्षमाला, अङ्कुश, वीणा और
पुस्तक शोभा पाते हैं। इनका भी पहले-जैसा ही क्रम है। फिर इन तीनों देवियोंने स्त्री-पुरुषका एक-एक जोड़ा उत्पन्न किया। महाकालीसे शङ्कर और सरस्वती, महालक्ष्मीसे ब्रह्मा और लक्ष्मी तथा महासरस्वतीसे विष्णु और गौरीका प्रादुर्भाव हुआ। इनमें लक्ष्मी विष्णुको, गौरी शङ्करको तथा सरस्वती ब्रह्माजी को प्राप्त हुईं। पत्नीसहित ब्रह्मा ने सृष्टि, विष्णु ने पालन और रुद्र ने संहारका कार्य सँभाला।

इति प्राधानिकं  रहस्यं संपूर्णम्

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीदुर्गासप्तशती पुस्तक कोड 1281 से




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