☼ श्रीदुर्गादेव्यै
नमो नम: ☼
अथ
श्रीदुर्गासप्तशती
अथ वैकृतिकं रहस्यम् (पोस्ट ०६)
अथ वैकृतिकं रहस्यम् (पोस्ट ०६)
एवं
य: पूजयेद्भक्त्या प्रत्यहं परमेश्वरीम्।
भुक्त्वा
भोगान् यथाकामं देवीसायुज्यमापनुयात्॥37॥
यो
न पूजयते नित्यं चण्डिकां भक्त वत्सलाम्।
भस्मीकृत्यास्य
पुण्यानि निर्दहेत्परमेश्वरी॥38॥
तस्मात्पूजय
भूपाल सर्वलोकमहेश्वरीम्।
यथोक्ते
न विधानेन चण्डिकां सुखमाप्स्यसि॥39॥
इति
वैकृतिकं रहस्यं सम्पूर्णम्
इस
प्रकार जो मनुष्य प्रतिदिन भक्ति पूर्वक परमेश्वरी का पूजन करता है, वह मनोवाञ्छित भोगों को भोगकर अन्त में देवी का सायुज्य प्राप्त करता है॥37॥ जो भक्तवत्सला चण्डी का प्रतिदिन पूजन नहीं
करता, भगवती परमेश्वरी उसके पुण्यों को जलाकर भस्म कर देती
हैं॥38॥
इसलिये
राजन्! तुम सर्वलोकमहेश्वरी चण्डिका का शास्त्रोक्त विधि से पूजन करो। उससे
तुम्हें सुख मिलेगा * ॥39॥
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पूर्वोक्त प्राकृतिक या प्राधानिक रहस्यमें कारणात्मक प्रकृतिभूता महालक्ष्मीके
स्वरूप तथा अवतारोंका वर्णन किया गया। इस
प्रकरणमें विशेषरूपसे प्रकृतिसहित विकृतियोंके ध्यान, पूजन, पूजनोपचार तथा पूजनकी महिमाका वर्णन हुआ है;
अतः इसे वैकृतिक रहस्य कहते हैं। इसमें पहले सप्तशतीके तीन चरित्रों
में वर्णित महाकाली, महालक्ष्मी तथा महासरस्वतीके ध्यानका
वर्णन है; यहाँ महाकाली दशभुजा, महालक्ष्मी
अष्टादशभुजा तथा महासरस्वती अष्टभुजा हैं। इनके आयुधोंका क्रम पहले बताये अनुसार
दाहिने भागके निचले हाथसे लेकर क्रमशः ऊपर
वाले हाथों में, फिर वामभागके ऊपरवाले हाथसे लेकर नीचेवाले
हाथ तक समझना चाहिये। जैसे महाकालीके दस हाथों में पाँच दाहिने और पाँच बायें हैं।
दाहिनेवाले हाथोंमें क्रमशः नीचेसे ऊपरतक खड्ग, बाण, गदा, शूल और चक्र हैं; तथा
बायें हाथोंमें ऊपरसे नीचेतक क्रमशः । शङ्ख, भुशुण्डि,
परिघ, धनुष और मस्तक हैं। इसी तरह अष्टादशभुजा
महालक्ष्मीके नौ दाहिने हाथों में नीचेकी ओर
से क्रमशः अक्षमाला,कमल, बाण,खड्ग,वज्र,गदा,चक्र,त्रिशूल और परशु हैं तथा बायें हाथों में के
ऊपर से नीचे तक शङ्ख, घण्टा, पाश,
शक्ति, दण्ड, ढाल,
धनुष, पानपात्र और कमण्डलु हैं। अष्टभुजा
महासरस्वती के भी चार दाहिने हाथों में पूर्वोक्त क्रमसे बाण, मुसल, शूल और चक्र हैं तथा बायें हाथों में शङ्ख,
घण्टा, हल और धनुष हैं। इन तीनोंके ध्यानके
विषयमें कही हुई अन्य सारी बातें स्पष्ट हैं। तत्पश्चात् इन सबकी उपासनाका क्रम
यों बतलाया गया है-बीचमें चतुर्भुजा महालक्ष्मी को स्थापित करके उनके दक्षिण भाग में
चतुर्भुजा महाकाली तथा वामभाग में चतुर्भुजा महासरस्वती की स्थापना करे। महाकाली के
पृष्ठभाग में रुद्र-गौरी, महालक्ष्मीके पृष्ठभाग में
ब्रह्मा-सरस्वती तथा महासरस्वतीके पृष्ठभागमें विष्णु-लक्ष्मीकी पूजा करे।। फिर चतुर्भुजा महालक्ष्मी के सामने मध्यभागमें
अष्टादशभुजाको स्थापित करे। इनका मुख चतुर्भुजा महालक्ष्मी की ओर होगा।
अष्टादशभुजा के दक्षिणभाग में अष्टभुजा महासरस्वती और वामभाग में दशानना महाकाली
रहेंगी। यदि केवल अष्टादशभुजा या दशानना अथवा अष्टभुजा का पूजन करना हो तो इनमें से
किसी एक अभीष्ट देवी को स्थापित करके उनके दक्षिणभाग में काल और वामभाग में मृत्युकी
स्थापना करनी चाहिये।
अष्टभुजाकी
पूजा में कुछ विशेषता है। यदि केवल अष्टभुजा की पूजा करनी हो तो उनके साथ उनकी
ब्राह्मी,
माहेश्वरी, कौमारी, वैष्णवी,
वाराही, नारसिंही, ऐन्द्री,
शिवदूती और चामुण्डा-इन नौ शक्तियों की भी पूजा करनी चाहिये। साथ ही दाहिने भाग में रुद्र और
वामभाग में विनायकका पूजन भी आवश्यक है। काल और मृत्युकी पूजा भी, जो पहले बतायी गयी है,होनी चाहिये। कुछ लोग
शैलपुत्री आदि नवदुर्गाओंको नौ शक्तियों में ग्रहण करते हैं, किन्तु यह ठीक नहीं है; क्योंकि उन्हें अष्टभुजाकी
शक्तिरूपसे कहीं नहीं बताया गया है। ये ब्राह्मी आदि शक्तियाँ ही महासरस्वतीके
अङ्गसे प्रकट हुई थीं; अतः वे ही उनकी नौ शक्तियाँ हैं।
अष्टादशभुजा देवीके सामने दक्षिणभागमें सिंह और वामभागमें महिषकी पूजा करे। कुछ
लोगों का कथन है कि जब अष्टादशभुजा देवीकी पूजा करनी हो, तब
उनके दक्षिणभागमें दशानना और वामभागमें अष्टभुजाकी भी पूजा करे। जब केवल दशाननाकी
पूजा करनी हो, तब उनके साथ दक्षिणभागमें कालकी और वामभागमें
मृत्यु की पूजा करे तथा जब केवल अष्टभुजाकी पूजा करनी हो, तब
उनके साथ पूर्वोक्त नौ शक्तियों और रुद्रविनायककी भी पूजा करनी चाहिये। यह
क्रम-विभाग देखने में सुन्दर होनेपर भी मूलपाठके प्रतिकूल है। कुछ लोग ऐसा कहते
हैं कि अष्टादशभुजा आदिमेंसे जिसकी प्रधानतासे पूजा करनी हो, उसे मध्यमें स्थापित करके दाहिने और वामभागमें शेष दो देवियों की स्थापना
करे और मध्यमें स्थित देवीके दक्षिण-वाम-पार्श्वों में रुद्र-विनायकको स्थापित
करके सबका पूजन करे। यह बात भी मूलसे सिद्ध नहीं होती। कोई-कोई अष्टभुजाके पूजनमें
विकल्प मानते हैं। उनका कहना है कि अष्टभुजाके साथ या तो काल एवं मृत्युकी ही पूजा
करे अथवा नौ शक्तियोंसहित रुद्र-विनायककी ही पूजा करे; सबका
एक साथ नहीं, किंतु ऐसी धारणा के लिये भी कोई प्रबल प्रमाण
नहीं है।
इति
वैकृतिकं रहस्यं सम्पूर्णम्
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीदुर्गासप्तशती पुस्तक कोड 1281 से
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