☼ श्रीदुर्गादेव्यै
नमो नम: ☼
अथ
श्रीदुर्गासप्तशती
अथ वैकृतिकं रहस्यम् (पोस्ट ०५)
अथ वैकृतिकं रहस्यम् (पोस्ट ०५)
अर्घ्यादिभिरलंकारैर्गन्धपुष्पैस्तथाक्षतै:।
धूपैर्दीपैश्च
नैवेद्यैर्नानाभक्ष्यसमन्वितै:॥27॥
रुधिराक्ते
न बलिना मांसेन सुरया नृप।
(बलिमांसादिपूजेयं
विप्रवज्र्या मयेरिता॥
तेषां
किल सुरामांसैर्नोक्ता पूजा नृप क्वचित्।)
प्रणामाचमनीयेन
चन्दनेन सुगन्धिना॥28॥
कर्पूरैश्च
ताम्बूलैर्भक्ति भावसमन्वितै:।
वामभागेऽग्रतो
देव्याश्छिन्नशीर्ष महासुरम्॥29॥
पूजयेन्महिषं
येन प्राप्तं सायुज्यमीशया।
दक्षिणे
पुरत: सिंहं समग्रं धर्ममीश्वरम्॥30॥
वाहनं
पूजयेद्देव्या धृतं येन चराचरम्।
कुर्याच्च
स्तवनं धीमांस्तस्या एकाग्रमानस:॥31॥
तत:
कृताञ्जलिर्भूत्वा स्तुवीत चरितैरिमै:।
एकेन
वा मध्यमेन नैकेनेतरयोरिह॥32॥
चरितार्ध
तु न जपेज्जपञिछद्रमवापनुयात्।
प्रदक्षिणानमस्कारान्
कृत्वा मूर्ध्नि कृताञ्जलि:॥33॥
क्षमापयेज्जगद्धात्रीं
मुहुर्मुहुरतन्द्रित:।
प्रतिश्लोकं
च जुहुयात्पायसं तिलसर्पिषा॥34॥
जुहुयात्स्तोत्रमन्त्रैर्वा
चण्डिकायै शुभं हवि:।
भूयो
नामपदैर्देवीं पूजयेत्सुसमाहित:॥35॥
प्रयत:
प्राञ्जलि: प्रह्व: प्रणम्यारोप्य चात्मनि।
सुचिरं
भावयेदीशां चण्डिकां तन्मयो भवेत्॥36॥
अर्घ्य आदि से, आभूषणों से, गन्ध,
पुष्प, अक्षत, धूप,
दीप तथा नाना प्रकार के भक्ष्य पदार्थो से युक्त नैवेद्यों से,
रक्त सिञ्चित बलि से, मांस से तथा मदिरा से भी
देवी का पूजन होता है।* (राजन्! बलि और मांस आदि से की जाने वाली पूजा ब्राह्मणों
को छोडकर बतायी गयी है। उनके लिये मांस और मदिरा से कहीं भी पूजा का विधान नहीं
है।) प्रणाम, आचमन के योग्य जल, सुगन्धित
चन्दन, कपूर तथा ताम्बूल आदि सामग्रियों को भक्ति भाव से
निवेदन करके देवी की पूजा करनी चाहिये। देवी के सामने बायें भाग में कटे मस्तकवाले
महादैत्य महिषासुर का पूजन करना चाहिये, जिसने भगवती के साथ
सायुज्य प्राप्त कर लिया। इसी प्रकार देवी के सामने दक्षिण भाग में उनके वाहन सिंह
का पूजन करना चाहिये, जो सम्पूर्ण धर्म का प्रतीक एवं षड्विध
ऐश्वर्य से युक्त है। उसी ने इस चराचर जगत् को धारण कर रखा है। तदनन्तर बुद्धिमान्
पुरुष एकाग्रचित हो देवी की स्तुति करे। फिर हाथ जोडकर तीनों पूर्वोक्त चरित्रों
द्वारा भगवती का स्तवन करे। यदि कोई एक ही चरित्र से स्तुति करना चाहे तो केवल
मध्यम चरित्र के पाठ से कर ले; किंतु प्रथम और उत्तर
चरित्रों में से एक का पाठ न करे। आधे चरित्र का भी पाठ करना मना है। जो आधे
चरित्र का पाठ करता है, उसका पाठ सफल नहीं होता। पाठ-समाप्ति
के बाद साधक प्रदक्षिणा और नमस्कार कर तथा आलस्य छोडकर जगदम्बा के उद्देश्य से
मस्तक पर हाथ जोडे और उनके बारम्बार त्रुटियों या अपराधों के लिये क्षमा प्रार्थना
करे। सप्तशती का प्रत्येक श्लोक मन्त्ररूप है, उससे तिल और
घृत मिली हुई खीर की आहुति दे॥27-34॥ अथवा सप्तशती में जो
स्तोत्र आये हैं, उन्हीं के मन्त्रों से चण्डिका के लिये
पवित्र हविष्य का हवन करे। होम के पश्चात एकाग्रचित्त हो महालक्ष्मी देवी के नाम
मन्त्रों को उच्चारण करते हुए पुन: उनकी पूजा करे॥35॥ तत्पश्चात् मन और इन्द्रियों को वश में रखते हुए हाथ जोड विनीत भाव से
देवी को प्रणाम करे और अन्त:करण में स्थापित करके उन सर्वेश्वरी चण्डिका देवी का
देरतक चिन्तन करे। चिन्तन करते-करते उन्हीं में तन्मय हो जाय॥36॥
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*जो
लोग मांस और मदिरा का व्यवहार करते हैं, उन्हीं लोगों के
लिये मांस-मदिरा द्वारा पूजन का विधान है। शेष लोगों को मांस-मदिरा आदि के द्वारा
पूजा नहीं करनी चाहिये |
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीदुर्गासप्तशती पुस्तक कोड 1281 से
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