☼ श्रीदुर्गादेव्यै
नमो नम: ☼
अथ
श्रीदुर्गासप्तशती
अथ मूर्तिरहस्यम् (पोस्ट ०२)
अथ मूर्तिरहस्यम् (पोस्ट ०२)
वसुधेव
विशाला सा सुमेरुयुगलस्तनी।
दीर्घौ
लम्बावतिस्थूलौ तावतीव मनोहरौ॥7॥
कर्कशावतिकान्तौ
तौ सर्वानन्दपयोनिधी।
भक्तान्
सम्पाययेद्देवी सर्वकामदुघौ स्तनौ॥8॥
खड्गं
पात्रं च मुसलं लाङ्गलं च बिभर्ति सा।
आख्याता
रक्त चामुण्डा देवी योगेश्वरीति च॥9॥
अनया
व्याप्तमखिलं जगत्स्थावरजङ्गमम्।
इमां
य: पूजयेद्भक्त्या स व्यापनेति चराचरम्॥10॥
(भुक्त्वा भोगान् यथाकामं देवीसायुज्यमापनुयात्।)
अधीते
य इमं नित्यं रक्त दन्त्या वपु:स्तवम्।
तं
सा परिचरेद्देवी पतिं प्रियमिवाङ्गना॥11॥
देवी रक्त दन्तिका का आकार वसुधा की भाँति विशाल है। उनके दोनों स्तन
सुमेरु पर्वत के समान हैं। वे लंबे, चौडे, अत्यन्त स्थूल एवं बहुत ही मनोहर हैं। कठोर होते हुए भी अत्यन्त कमनीय हैं
तथा पूर्ण आनन्द के समुद्र हैं। सम्पूर्ण कामनाओं की पूर्ति करने वाले ये दोनों
स्तन देवी अपने भक्त कों को पिलाती हैं॥7-8॥ वे अपनी चार
भुजाओं में खड्ग, पानपात्र, मुसल और हल
धारण करती हैं। ये ही रक्त चामुण्डा और योगेश्वरी देवी कहलाती हैं॥9॥ इनके द्वारा सम्पूर्ण चराचर जगत् व्याप्त है। जो इन रक्त दन्तिका देवी
का भक्ति पूर्वक पूजन करता है, वह भी चराचर जगत् में व्याप्त
होता है॥10॥ (वह यथेष्ट भोगों को भोगकर
अन्त में देवी के साथ सायुज्य प्राप्त कर लेता है।) जो प्रतिदिन रक्तदन्तिका देवी
के शरीर का यह स्तवन करता है, उसकी वे देवी प्रेमपूर्वक
संरक्षणरूप सेवा करती हैं ठीक उसी तरह, जैसे पतिव्रता नारी
अपने प्रियतम पति की परिचर्या करती है॥11॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीदुर्गासप्तशती पुस्तक कोड 1281 से
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