॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
चतुर्थ
स्कन्ध – इक्कीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)
महाराज
पृथुका अपनी प्रजाको उपदेश
मैत्रेय
उवाच –
मौक्तिकैः
कुसुमस्रग्भिः दुकूलैः स्वर्णतोरणैः ।
महासुरभिभिर्धूपैः
मण्डितं तत्र तत्र वै ॥ १ ॥
चन्दनागुरुतोयार्द्र
रथ्याचत्वरमार्गवत् ।
पुष्पाक्षतफलैस्तोक्मैः
लाजैरर्चिर्भिरर्चितम् ॥ २ ॥
सवृन्दैः
कदलीस्तम्भैः पूगपोतैः परिष्कृतम् ।
तरुपल्लवमालाभिः
सर्वतः समलङ्कृतम् ॥ ३ ॥
प्रजास्तं
दीपबलिभिः संभृताशेषमङ्गलैः ।
अभीयुर्मृष्टकन्याश्च
मृष्टकुण्डलमण्डिताः ॥ ४ ॥
शङ्खदुन्दुभिघोषेण
ब्रह्मघोषेण चर्त्विजाम् ।
विवेश
भवनं वीरः स्तूयमानो गतस्मयः ॥ ५ ॥
पूजितः
पूजयामास तत्र तत्र महायशाः ।
पौराञ्जानपदान्
स्तांस्तान् प्रीतः प्रियवरप्रदः ॥ ॥ ६ ॥
स
एवमादीन्यनवद्यचेष्टितः
कर्माणि भूयांसि महान्महत्तमः ।
कुर्वन्शशासावनिमण्डलं
यशः
स्फीतं निधायारुरुहे परं पदम् ॥ ७ ॥
श्रीमैत्रेयजी
कहते हैं—विदुरजी ! उस समय महाराज पृथुका नगर सर्वत्र मोतियोंकी लडिय़ों, फूलोंकी मालाओं, रंग-बिरंगे वस्त्रों, सोनेके दरवाजों और अत्यन्त सुगन्धित धूपोंसे सुशोभित था ॥ १ ॥ उसकी गलियाँ,
चौक, और सडक़ें चन्दन और अरगजेके जलसे सींच दी
गयी थीं तथा उसे पुष्प, अक्षत, फल,
यवाङ्कुर, खील और दीपक आदि माङ्गलिक
द्रव्योंसे सजाया गया था ॥ २ ॥ वह ठौर-ठौरपर रखे हुए फल-फूलके गुच्छोंसे युक्त
केलेके खंभों और सुपारीके पौधोंसे बड़ा ही मनोहर जान पड़ता था तथा सब ओर आम आदि
वृक्षोंके नवीन पत्तोंकी बंदनवारोंसे विभूषित था ॥ ३ ॥ जब महाराजने नगरमें प्रवेश
किया, तब दीपक, उपहार और अनेक प्रकारकी
माङ्गलिक सामग्री लिये हुए प्रजाजनोंने तथा मनोहर कुण्डलोंसे सुशोभित सुन्दरी
कन्याओंने उनकी अगवानी की ॥ ४ ॥ शङ्ख और दुन्दुभि आदि बाजे बजने लगे, ऋत्विजगण वेदध्वनि करने लगे, वन्दीजनोंने स्तुतिगान
आरम्भ कर दिया। यह सब देख और सुनकर भी उन्हें किसी प्रकारका अहंकार नहीं हुआ। इस
प्रकार वीरवर पृथुने राजमहलमें प्रवेश किया ॥ ५ ॥ मार्गमें जहाँ-तहाँ पुरवासी और
देशवासियोंने उनका अभिनन्दन किया। परम यशस्वी महाराजने भी उन्हें प्रसन्नता-
पूर्वक अभीष्ट वर देकर सन्तुष्ट किया ॥ ६ ॥ महाराज पृथु महापुरुष और सभीके पूजनीय
थे। उन्होंने इसी प्रकारके अनेकों उदार कर्म करते हुए पृथ्वीका शासन किया और
अन्तमें अपने विपुल यशका विस्तार कर भगवान्का परमपद प्राप्त किया ॥ ७ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
00000000000
॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
चतुर्थ
स्कन्ध – इक्कीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)
महाराज
पृथुका अपनी प्रजाको उपदेश
सूत
उवाच -
तदादिराजस्य
यशो विजृम्भितं
गुणैरशेषैर्गुणवत्सभाजितम् ।
क्षत्ता
महाभागवतः सदस्पते
कौषारविं प्राह गृणन्तमर्चयन् ॥ ८ ॥
विदुर
उवाच -
सोऽभिषिक्तः
पृथुर्विप्रैः लब्धाशेषसुरार्हणः ।
बिभ्रत्
स वैष्णवं तेजो बाह्वोर्याभ्यां दुदोह गाम् ॥ ९ ॥
को
न्वस्य कीर्तिं न शृणोत्यभिज्ञो
यद्विक्रमोच्छिष्टमशेषभूपाः ।
लोकाः
सपाला उपजीवन्ति कामं
अद्यापि तन्मे वद कर्म शुद्धम् ॥ १० ॥
मैत्रेय
उवाच -
गङ्गायमुनयोर्नद्योः
अन्तरा क्षेत्रमावसन् ।
आरब्धानेव
बुभुजे भोगान् पुण्यजिहासया ॥ ११ ॥
सर्वत्रास्खलितादेशः
सप्तद्वीपैकदण्डधृक् ।
अन्यत्र
ब्राह्मणकुलाद् अन्यत्राच्युतगोत्रतः ॥ १२ ॥
एकदासीन्
महासत्र दीक्षा तत्र दिवौकसाम् ।
समाजो
ब्रह्मर्षीणां च राजर्षीणां च सत्तम ॥ १३ ॥
तस्मिन्
अर्हत्सु सर्वेषु स्वर्चितेषु यथार्हतः ।
उत्थितः
सदसो मध्ये ताराणां उडुराडिव ॥ १४ ॥
प्रांशुः
पीनायतभुजो गौरः कञ्जारुणेक्षणः ।
सुनासः
सुमुखः सौम्यः पीनांसः सुद्विजस्मितः ॥ १५ ॥
व्यूढवक्षा
बृहच्छ्रोणिः वलिवल्गुदलोदरः ।
आवर्तनाभिरोजस्वी
काञ्चनोरुरुदग्रपात् ॥ १६ ॥
सूक्ष्मवक्रासितस्निग्ध
मूर्धजः कम्बुकन्धरः ।
महाधने
दुकूलाग्र्ये परिधायोपवीय च ॥ १७ ॥
व्यञ्जिताशेषगात्रश्रीः
नियमे न्यस्तभूषणः ।
कृष्णाजिनधरः
श्रीमान् कुशपाणिः कृतोचितः ॥ १८ ॥
शिशिरस्निग्धताराक्षः
समैक्षत समन्ततः ।
ऊचिवान्
इदमुर्वीशः सदः संहर्षयन्निव ॥ १९ ॥
चारु
चित्रपदं श्लक्ष्णं मृष्टं गूढमविक्लवम् ।
सर्वेषां
उपकारार्थं तदा अनुवदन्निव ॥ २० ॥
सूतजी
कहते हैं—मुनिवर शौनकजी ! इस प्रकार भगवान् मैत्रेयके मुखसे आदिराज पृथुका अनेक
प्रकारके गुणोंसे सम्पन्न और गुणवानोंद्वारा प्रशंसित विस्तृत सुयश सुनकर परम
भागवत विदुरजी ने उनका अभिनन्दन करते हुए कहा ॥ ८ ॥
विदुरजी
बोले—ब्रह्मन् ! ब्राह्मणोंने पृथुका अभिषेक किया। समस्त देवताओंने उन्हें
उपहार दिये। उन्होंने अपनी भुजाओंमें वैष्णव तेजको धारण किया और उससे पृथ्वीका
दोहन किया ॥ ९ ॥ उनके उस पराक्रमके उच्छिष्टरूप विषयभोगोंसे ही आज भी सम्पूर्ण
राजा तथा लोकपालोंके सहित समस्त लोक इच्छानुसार जीवन-निर्वाह करते हैं। भला,
ऐसा कौन समझदार होगा जो उनकी पवित्र कीर्ति सुनना न चाहेगा। अत: अभी
आप मुझे उनके कुछ और भी पवित्र चरित्र सुनाइये ॥ १० ॥
श्रीमैत्रेयजीने
कहा—साधुश्रेष्ठ विदुरजी ! महाराज पृथु गङ्गा और यमुनाके मध्यवर्ती देशमें
निवास कर अपने पुण्यकर्मोंके क्षयकी इच्छासे प्रारब्धवश प्राप्त हुए भोगोंको ही
भोगते थे ॥ ११ ॥ ब्राह्मणवंश और भगवान्के सम्बन्धी विष्णुभक्तोंको छोडक़र उनका
सातों द्वीपोंके सभी पुरुषोंपर अखण्ड एवं अबाध शासन था ॥ १२ ॥ एक बार उन्होंने एक
महासत्रकी दीक्षा ली; उस समय वहाँ देवताओं, ब्रहमर्षियों और राजर्षियोंका बहुत बड़ा समाज एकत्र हुआ ॥ १३ ॥ उस समाजमें
महाराज पृथुने उन पूजनीय अतिथियोंका यथायोग्य सत्कार किया और फिर उस सभामें,
नक्षत्रमण्डलमें चन्द्रमाके समान खड़े हो गये ॥ १४ ॥ उनका शरीर ऊँचा,
भुजाएँ भरी और विशाल, रंग गोरा, नेत्र कमलके समान सुन्दर और अरुणवर्ण, नासिका सुघड़,
मुख मनोहर, स्वरूप सौम्य, कंधे ऊँचे और मुसकानसे युक्त दन्तपंक्ति सुन्दर थी ॥ १५ ॥ उनकी छाती चौड़ी,
कमरका पिछला भाग स्थूल और उदर पीपलके पत्तेके समान सुडौल तथा बल
पड़े हुए होनेसे और भी सुन्दर जान पड़ता था। नाभि भँवरके समान गम्भीर थी, शरीर तेजस्वी था, जङ्घाएँ सुवर्णके समान देदीप्यमान
थीं तथा पैरोंके पंजे उभरे हुए थे ॥ १६ ॥ उनके बाल बारीक, घुँघराले,
काले और चिकने थे; गरदन शङ्खके समान उतार,
चढ़ाववाली तथा रेखाओंसे युक्त थी और वे उत्तम बहुमूल्य धोती पहने और
वैसी ही चादर ओढ़े थे ॥ १७ ॥ दीक्षाके नियमानुसार उन्होंने समस्त आभूषण उतार दिये
थे; इसीसे उनके शरीरके अङ्ग-प्रत्यङ्गकी शोभा अपने स्वाभाविक
रूपमें स्पष्ट झलक रही थी। वे शरीरपर कृष्ण- मृगका चर्म और हाथोंमें कुशा धारण
किये हुए थे। इससे उनके शरीरकी कान्ति और भी बढ़ गयी थी। वे अपने सारे नित्यकृत्य
यथाविधि सम्पन्न कर चुके थे ॥ १८ ॥ राजा पृथुने मानो सारी सभाको हर्षसे सराबोर
करते हुए अपने शीतल एवं स्नेहपूर्ण नेत्रोंसे चारों ओर देखा और फिर अपना भाषण
प्रारम्भ किया ॥ १९ ॥ उनका भाषण अत्यन्त सुन्दर, विचित्र
पदोंसे युक्त, स्पष्ट, मधुर, गम्भीर एवं निश्शंक था। मानो उस समय वे सबका उपकार करनेके लिये अपने
अनुभवका ही अनुवाद कर रहे हों ॥ २० ॥
शेष
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॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
चतुर्थ
स्कन्ध – इक्कीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)
महाराज
पृथुका अपनी प्रजाको उपदेश
राजोवाच
-
सभ्याः
श्रृणुत भद्रं वः साधवो य इहागताः ।
सत्सु
जिज्ञासुभिर्धर्मं आवेद्यं स्वमनीषितम् ॥ २१ ॥
अहं
दण्डधरो राजा प्रजानामिह योजितः ।
रक्षिता
वृत्तिदः स्वेषु सेतुषु स्थापिता पृथक् ॥ २२ ॥
तस्य
मे तदनुष्ठानाद् यानाहुर्ब्रह्मवादिनः ।
लोकाः
स्युः कामसन्दोहा यस्य तुष्यति दिष्टदृक् ॥ २३ ॥
य
उद्धरेत्करं राजा प्रजा धर्मेष्वशिक्षयन् ।
प्रजानां
शमलं भुङ्क्ते भगं च स्वं जहाति सः ॥ २४ ॥
तत्प्रजा
भर्तृपिण्डार्थं स्वार्थमेवानसूयवः ।
कुरुताधोक्षजधियः
तर्हि मेऽनुग्रहः कृतः ॥ २५ ॥
यूयं
तदनुमोदध्वं पितृदेवर्षयोऽमलाः ।
कर्तुः
शास्तुरनुज्ञातुः तुल्यं यत्प्रेत्य तत्फलम् ॥ २६ ॥
अस्ति
यज्ञपतिर्नाम केषाञ्चिदर्हसत्तमाः ।
इहामुत्र
च लक्ष्यन्ते ज्योत्स्नावत्यः क्वचिद्भुवः ॥ २७ ॥
मनोरुत्तानपादस्य
ध्रुवस्यापि महीपतेः ।
प्रियव्रतस्य
राजर्षेः अङ्गस्यास्मत्पितुः पितुः ॥ २८ ॥
ईदृशानां
अथान्येषां अजस्य च भवस्य च ।
प्रह्लादस्य
बलेश्चापि कृत्यमस्ति गदाभृता ॥ २९ ॥
दौहित्रादीन्
ऋते मृत्योः शोच्यान् धर्मविमोहितान् ।
वर्गस्वर्गापवर्गाणां
प्रायेणैकात्म्यहेतुना ॥ ३० ॥
राजा
पृथुने कहा—सज्जनो ! आपका कल्याण हो आप महानुभाव, जो यहाँ पधारे
हैं, मेरी प्रार्थना सुने :- जिज्ञासु पुरुषोंको चाहिये कि
संत-समाजमे अपने निश्चयका निवेदन करें ॥ २१ ॥ इस लोकमे मुझे प्रजजनोका शासन,
उनकी रक्षा, उनकी आजिविका का प्रबंध तथा
उन्हें अलग अपनी मर्यादामे रखनेके लिए राजा बनाया गया है ॥ २२ ॥ अतः इनका यथावत
पालन करनेसे मुझे उन्ही मनोरथ पूर्ण करनेवाले लोकोंकी प्राप्ति होनी चाहिए,
जो वेदवादी मुनियों के मतानुसार सम्पूर्ण कर्मोंके साक्षी श्रीहरिके
प्रसन्न होने पर मिलते है ॥ २३ ॥ जो रजा प्रजा को धर्म मार्ग कि शिक्षा न देकर
केवल उससे कर वसूल करने मे वह केवल प्रजा के पाप का ही भागी होता है और अपने
ऐश्वर्यसे हाथ धो बैठता है ॥ २४ ॥ अत: प्रिय प्रजाजन ! अपने इस राजाका परलोकमें
हित करनेके लिये आप लोग परस्पर दोषदृष्टि छोडक़र हृदयसे भगवान्को याद रखते हुए
अपने-अपने कर्तव्यका पालन करते रहिये; क्योंकि आपका स्वार्थ
भी इसीमें है और इस प्रकार मुझपर भी आपका बड़ा अनुग्रह होगा ॥ २५ ॥ विशुद्धचित्त
देवता, पितर और महर्षिगण ! आप भी मेरी इस प्रार्थनाका
अनुमोदन कीजिये; क्योंकि कोई भी कर्म हो, मरनेके अनन्तर उसके कर्ता, उपदेष्टा और समर्थकको
उसका समान फल मिलता है ॥ २६ ॥ माननीय सज्जनो ! किन्हीं श्रेष्ठ महानुभावोंके मतमें
तो कर्मोंका फल देनेवाले भगवान् यज्ञपति ही हैं; क्योंकि
इहलोक और परलोक दोनों ही जगह कोई-कोई शरीर बड़े तेजोमय देखे जाते हैं ॥ २७ ॥ मनु,
उत्तानपाद, महीपति ध्रुव, राजर्षि प्रियव्रत, हमारे दादा अङ्ग तथा ब्रह्मा,
शिव, प्रह्लाद, बलि और
इसी कोटि के अन्यान्य महानुभावों के मतमें तो धर्म-अर्थ-काम-मोक्षरूप चतुर्वर्ग
तथा स्वर्ग और अपवर्गके स्वाधीन नियामक, कर्मफलदातारूपसे
भगवान् गदाधरकी आवश्यकता है ही। इस विषयमें तो केवल मृत्युके दौहित्र वेन आदि कुछ
शोचनीय और धर्मविमूढ़ लोगोंका ही मतभेद है। अत: उसका कोई विशेष महत्त्व नहीं हो
सकता ॥ २८—३० ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
00000000000
॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
चतुर्थ
स्कन्ध – इक्कीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)
महाराज
पृथुका अपनी प्रजाको उपदेश
यत्पादसेवाभिरुचिः
तपस्विनां
अशेषजन्मोपचितं मलं धियः ।
सद्यः
क्षिणोत्यन्वहमेधती सती
यथा पदाङ्गुष्ठविनिःसृता सरित् ॥ ३१ ॥
विनिर्धुताशेषमनोमलः
पुमान्
असङ्गविज्ञानविशेषवीर्यवान् ।
यदङ्घ्रिमूले
कृतकेतनः पुनः
न संसृतिं क्लेशवहां प्रपद्यते ॥ ३२ ॥
तमेव
यूयं भजतात्मवृत्तिभिः
मनोवचःकायगुणैः स्वकर्मभिः ।
अमायिनः
कामदुघाङ्घ्रिपङ्कजं
यथाधिकारावसितार्थसिद्धयः ॥ ३३ ॥
असौ
इहानेकगुणोऽगुणोऽध्वरः
पृथक् विधद्रव्यगुणक्रियोक्तिभिः ।
सम्पद्यतेऽर्थाशयलिङ्गनामभिः
विशुद्धविज्ञानघनः स्वरूपतः ॥ ३४ ॥
प्रधानकालाशयधर्मसङ्ग्रहे
शरीर एष प्रतिपद्य चेतनाम् ।
क्रियाफलत्वेन
विभुर्विभाव्यते
यथानलो दारुषु तद्गुणात्मकः ॥ ३५ ॥
अहो
ममामी वितरन्त्यनुग्रहं
हरिं गुरुं यज्ञभुजामधीश्वरम् ।
स्वधर्मयोगेन
यजन्ति मामका
निरन्तरं क्षोणितले दृढव्रताः ॥ ३६ ॥
जिनके
चरणकमलोंकी सेवाके लिये निरन्तर बढऩेवाली अभिलाषा उन्हींके चरणनख से निकली हुई
गङ्गाजी के समान,
संसारतापसे संतप्त जीवोंके समस्त जन्मों के सञ्चित मनोमलको तत्काल
नष्ट कर देती है, जिनके चरणतलका आश्रय लेनेवाला पुरुष सब
प्रकारके मानसिक दोषोंको धो डालता तथा वैराग्य और तत्त्वसाक्षात्काररूप बल पाकर
फिर इस दु:खमय संसारचक्रमें नहीं पड़ता और जिनके चरणकमल सब प्रकारकी कामनाओंको
पूर्ण करनेवाले हैं—उन प्रभुको आपलोग अपनी-अपनी आजीविकाके
उपयोगी वर्णाश्रमोचित अध्यापनादि कर्मों तथा ध्यान-स्तुति-पूजादि मानसिक, वाचिक एवं शारीरिक क्रियाओंके द्वारा भजें। हृदयमें किसी प्रकारका कपट न
रखें तथा यह निश्चय रखें कि हमें अपने-अपने अधिकारानुसार इसका फल अवश्य प्राप्त
होगा ॥ ३१—३३ ॥
भगवान्
स्वरूपत: विशुद्ध विज्ञानघन और समस्त विशेषणोंसे रहित हैं; किन्तु इस कर्ममार्गमें जौ-चावल आदि विविध द्रव्य, शुक्लादि
गुण, अवघात (कूटना) आदि क्रिया एवं मन्त्रोंके द्वारा और
अर्थ, आशय (सङ्कल्प), लिङ्ग
(पदार्थ-शक्ति) तथा ज्योतिष्टोम आदि नामोंसे सम्पन्न होनेवाले, अनेक विशेषणयुक्त यज्ञके रूपमें प्रकाशित होते हैं ॥ ३४ ॥ जिस प्रकार एक
ही अग्नि भिन्न-भिन्न काष्ठोंमें उन्हींके आकारादि के अनुरूप भासती है, उसी प्रकार वे सर्वव्यापक प्रभु परमानन्दस्वरूप होते हुए भी प्रकृति,
काल, वासना और अदृष्टसे उत्पन्न हुए शरीरमें
विषयाकार बनी हुई बुद्धिमें स्थित होकर उन यज्ञ-यागादि क्रियाओंके फलरूपसे अनेक
प्रकारके जान पड़ते हैं ॥ ३५ ॥ अहो ! इस पृथ्वीतलपर मेरे जो प्रजाजन यज्ञभोक्ताओं के
अधीश्वर सर्वगुरु श्रीहरि का एकनिष्ठ-भाव से अपने- अपने धर्मों के द्वारा निरन्तर
पूजन करते हैं, वे मुझपर बड़ी कृपा करते हैं ॥ ३६ ॥
शेष
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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
चतुर्थ
स्कन्ध – इक्कीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)
महाराज
पृथुका अपनी प्रजाको उपदेश
मा
जातु तेजः प्रभवेन्महर्द्धिभिः
तितिक्षया तपसा विद्यया च ।
देदीप्यमानेऽजितदेवतानां
कुले स्वयं राजकुलाद् द्विजानाम् ॥ ३७ ॥
ब्रह्मण्यदेवः
पुरुषः पुरातनो
नित्यं हरिर्यच्चरणाभिवन्दनात् ।
अवाप
लक्ष्मीं अनपायिनीं यशो
जगत्पवित्रं च महत्तमाग्रणीः ॥ ३८ ॥
यत्सेवयाशेषगुहाशयः
स्वराड्
विप्रप्रियस्तुष्यति काममीश्वरः ।
तदेव
तद्धर्मपरैर्विनीतैः
सर्वात्मना ब्रह्मकुलं निषेव्यताम् ॥ ३९ ॥
पुमान्
लभेतान् अतिवेलमात्मनः
प्रसीदतोऽत्यन्तशमं स्वतः स्वयम् ।
यन्नित्यसंबन्धनिषेवया
ततः
परं किमत्रास्ति मुखं हविर्भुजाम् ॥ ४० ॥
अश्नात्यनन्तः
खलु तत्त्वकोविदैः
श्रद्धाहुतं यन्मुख इज्यनामभिः ।
न
वै तथा चेतनया बहिष्कृते
हुताशने पारमहंस्यपर्यगुः ॥ ४१ ॥
यद्ब्रह्म
नित्यं विरजं सनातनं
श्रद्धातपोमङ्गल मौनसंयमैः ।
समाधिना
बिभ्रति हार्थदृष्टये
यत्रेदमादर्श इवावभासते ॥ ४२ ॥
तेषामहं
पादसरोजरेणुं
आर्या वहेयाधिकिरीटमाऽऽयुः ।
यं
नित्यदा बिभ्रत आशु पापं
नश्यत्यमुं सर्वगुणा भजन्ति ॥ ४३ ॥
गुणायनं
शीलधनं कृतज्ञं
वृद्धाश्रयं संवृणतेऽनु सम्पदः ।
प्रसीदतां
ब्रह्मकुलं गवां च
जनार्दनः सानुचरश्च मह्यम् ॥ ४४ ॥
सहनशीलता, तपस्या और ज्ञान—इन विशिष्ट विभूतियों के कारण
वैष्णव और ब्राह्मणों के वंश स्वभावत: ही उज्ज्वल होते हैं। उनपर राजकुल का तेज,
धन, ऐश्वर्य आदि समृद्धियोंके कारण अपना
प्रभाव न डाले ॥ ३७ ॥ ब्रह्मादि समस्त महापुरुषोंमें अग्रगण्य, ब्राह्मणभक्त, पुराणपुरुष श्रीहरिने भी निरन्तर
इन्हींके चरणोंकी वन्दना करके अविचल लक्ष्मी और संसारको पवित्र करनेवाली कीर्ति
प्राप्त की है ॥ ३८ ॥ आपलोग भगवान्के लोकसंग्रहरूप धर्मका पालन करनेवाले हैं तथा
सर्वान्तर्यामी स्वयंप्रकाश ब्राह्मणप्रिय श्रीहरि विप्रवंशकी सेवा करनेसे ही परम
सन्तुष्ट होते हैं, अत: आप सभीको सब प्रकारसे विनयपूर्वक
ब्राह्मणकुलकी सेवा करनी चाहिये ॥ ३९ ॥ इनकी नित्य सेवा करनेसे शीघ्र ही चित्त
शुद्ध हो जानेके कारण मनुष्य स्वयं ही (ज्ञान और अभ्यास आदिके बिना ही) परम
शान्तिरूप मोक्ष प्राप्त कर लेता है। अत: लोकमें इन ब्राह्मणोंसे बढक़र दूसरा कौन
है जो हविष्यभोजी देवताओंका मुख हो सके ? ॥ ४० ॥ उपनिषदोंके
ज्ञानपरक वचन एकमात्र जिनमें ही गतार्थ होते हैं, वे भगवान्
अनन्त इन्द्रादि यज्ञीय देवताओंके नामसे तत्त्वज्ञानियोंद्वारा ब्राह्मणोंके
मुखमें श्रद्धापूर्वक हवन किये हुए पदार्थको जैसे चावसे ग्रहण करते हैं, वैसे चेतनाशून्य अग्रिमें होमे हुए द्रव्यको नहीं ग्रहण करते ॥ ४१ ॥
सभ्यगण ! जिस प्रकार स्वच्छ दर्पणमें प्रतिबिम्बका भान होता है—उसी प्रकार जिससे इस सम्पूर्ण प्रपञ्चका ठीक-ठीक ज्ञान होता है, उस नित्य, शुद्ध और सनातन ब्रह्म (वेद) को जो
परमार्थ-तत्त्वकी उपलब्धिके लिये श्रद्धा, तप, मंगलमय आचरण, स्वाध्यायविरोधी वार्तालापके त्याग तथा
संयम और समाधिके अभ्यासद्वारा धारण करते हैं, उन
ब्राह्मणोंके चरणकमलोंकी धूलिको मैं आयुपर्यन्त अपने मुकुटपर धारण करूँ; क्योंकि उसे सर्वदा सिरपर चढ़ाते रहनेसे मनुष्यके सारे पाप तत्काल नष्ट हो
जाते हैं और सम्पूर्ण गुण उसकी सेवा करने लगते हैं ॥ ४२-४३ ॥ उस गुणवान्, शीलसम्पन्न, कृतज्ञ और गुरुजनोंकी सेवा करनेवाले
पुरुषके पास सारी सम्पदाएँ अपने-आप आ जाती हैं। अत: मेरी तो यही अभिलाषा है कि
ब्राह्मणकुल, गोवंश और भक्तोंके सहित श्रीभगवान् मुझपर सदा
प्रसन्न रहें ॥ ४४ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
000000000
॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
चतुर्थ
स्कन्ध – इक्कीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)
महाराज
पृथुका अपनी प्रजाको उपदेश
मैत्रेय
उवाच –
इति
ब्रुवाणं नृपतिं पितृदेवद्विजातयः ।
तुष्टुवुर्हृष्टमनसः
साधुवादेन साधवः ॥ ४५ ॥
पुत्रेण
जयते लोकान् इति सत्यवती श्रुतिः ।
ब्रह्मदण्डहतः
पापो यद्वेनोऽत्यतरत्तमः ॥ ४६ ॥
हिरण्यकशिपुश्चापि
भगवन् निन्दया तमः ।
विविक्षुरत्यगात्सूनोः
प्रह्लादस्यानुभावतः ॥ ४७॥
वीरवर्य
पितः पृथ्व्याः समाः सञ्जीव शाश्वतीः ।
यस्येदृश्यच्युते
भक्तिः सर्वलोकैकभर्तरि ॥ ४८ ॥
अहो
वयं ह्यद्य पवित्रकीर्ते
त्वयैव नाथेन मुकुन्दनाथाः ।
य
उत्तमश्लोकतमस्य विष्णोः
ब्रह्मण्यदेवस्य कथां व्यनक्ति ॥ ४९ ॥
नात्यद्भुतमिदं
नाथ तवाजीव्यानुशासनम् ।
प्रजानुरागो
महतां प्रकृतिः करुणात्मनाम् ॥ ५० ॥
अद्य
नस्तमसः पारः त्वयोपासादितः प्रभो ।
भ्राम्यतां
नष्टदृष्टीनां कर्मभिर्दैवसंज्ञितैः ॥ ५१ ॥
नमो
विवृद्धसत्त्वाय पुरुषाय महीयसे ।
यो
ब्रह्म क्षत्रमाविश्य बिभर्तीदं स्वतेजसा ॥ ५२ ॥
श्रीमैत्रेयजी
कहते हैं—महाराज पृथुका यह भाषण सुनकर देवता, पितर और
ब्राह्मण आदि सभी साधुजन बड़े प्रसन्न हुए और ‘साधु ! साधु !’
यों कहकर उनकी प्रशंसा करने लगे ॥ ४५ ॥ उन्होंने कहा, ‘पुत्रके द्वारा पिता पुण्यलोकोंको प्राप्त कर लेता है’ यह श्रुति यथार्थ है; पापी वेन ब्राह्मणोंके शापसे
मारा गया था; फिर भी इनके पुण्यबलसे उसका नरकसे निस्तार हो
गया ॥ ४६ ॥ इसी प्रकार हिरण्यकशिपु भी भगवान्की निन्दा करनेके कारण नरकोंमें
गिरनेवाला ही था कि अपने पुत्र प्रह्लादके प्रभावसे उन्हें पार कर गया ॥ ४७ ॥
वीरवर पृथुजी ! आप तो पृथ्वीके पिता ही हैं और सब लोकोंके एकमात्र स्वामी
श्रीहरिमें भी आपकी ऐसी अविचल भक्ति है, इसलिये आप अनन्त
वर्षोंतक जीवित रहें ॥ ४८ ॥ आपका सुयश बड़ा पवित्र है; आप
उदारकीर्ति ब्रह्मण्यदेव श्रीहरिकी कथाओंका प्रचार करते हैं। हमारा बड़ा सौभाग्य
है; आज आपको अपने स्वामीके रूपमें पाकर हम अपनेको भगवान्के
ही राज्यमें समझते हैं ॥ ४९ ॥ स्वामिन् ! अपने आश्रितोंको इस प्रकारका श्रेष्ठ
उपदेश देना आपके लिये कोई आश्चर्यकी बात नहीं है; क्योंकि
अपनी प्रजाके ऊपर प्रेम रखना तो करुणामय महापुरुषोंका स्वभाव ही होता है ॥ ५० ॥
हमलोग प्रारब्धवश विवेकहीन होकर संसारारण्यमें भटक रहे थे; सो
प्रभो ! आज आपने हमें इस अज्ञानान्धकारके पार पहुँचा दिया ॥ ५१ ॥ आप शुद्ध
सत्त्वमय परमपुरुष हैं, जो ब्राह्मणजातिमें प्रविष्ट होकर
क्षत्रियोंकी और क्षत्रियजातिमें प्रविष्ट होकर ब्राह्मणोंकी तथा दोनों जातियोंमें
प्रतिष्ठित होकर सारे जगत् की रक्षा करते
हैं। हमारा आपको नमस्कार है ॥ ५२ ॥
इति
श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
चतुर्थस्कन्धे
एकविंशोऽध्यायः ॥ २१ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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