||श्री परमात्मने नम:||
भगवत्तत्त्व
(वासुदेवः सर्वम्)..पोस्ट 02
यदि
साधककी समझमें यह बात आ जाय, तो उपर्युक्त किसी भी मार्गसे
भगवत्तत्त्व अथवा परमात्मतत्त्वकी प्राप्ति बहुत सुगमतासे हो सकती है [*] । कारण यह है कि परमात्मा सब देश, काल, वस्तु, व्यक्ति आदिमें ज्यों-के-त्यों विद्यमान हैं
। उनका कभी कहीं अभाव नहीं है । इसलिये स्वतःसिद्ध, नित्यप्राप्त
परमात्मतत्त्वकी प्राप्तिमें कठिनताका प्रश्र ही नहीं है । नित्यप्राप्त
परमात्माकी प्राप्तिमें कठिनाई प्रतीत होनेका प्रधान कारण है‒सांसारिक सुखकी इच्छा । इसी कारण साधक संसारसे अपना सम्बन्ध मान लेता है
और परमात्मासे विमुख हो जाता है । संसारसे माने हुए सम्बन्धके कारण ही साधक
नित्यप्राप्त भगवत्तत्त्वको अप्राप्त मानकर उसकी प्राप्तिको परिश्रम-साध्य एवं
कठिन मान लेता है । वास्तवमें भगवत्तत्त्व की प्राप्ति में कठिनता नहीं है,
प्रत्युत संसार के त्याग में कठिनता है, जो कि
निरन्तर हमारा त्याग कर रहा है । अतएव भगवत्तत्त्व का सुगमता से अनुभव करने के
लिये संसार से माने हुए संयोग का वर्तमान में ही वियोग अनुभव करना अत्यावश्यक है,
जो तभी सम्भव है जब संयोगजन्य सुख की इच्छा का परित्याग कर दिया जाय
।
तत्त्व-दृष्टिसे
एक परमात्मतत्त्व के सिवा अन्य कुछ है ही नहीं----ऐसा ज्ञान हो जाने पर मनुष्य फिर
जन्म-मरणके चक्रमें नहीं पड़ता । भगवान् कहते हैं‒
“यज्ज्ञात्वा
न पुनर्मोहमेवं यास्यसि पाण्डव ।“
.........................(गीता ४ । ३५)
‘जिसे जानकर फिर तू इस प्रकार मोहको नहीं प्राप्त होगा ।’
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[*] कर्मयोग से सुगमतापूर्वक तत्त्वप्राप्ति‒--
“ज्ञेयः
स नित्य सन्न्यासी यो न द्वेष्टि न काङ्क्षति ।
निर्द्वन्द्वो
हि महाबाहो सुखं
बन्धात्प्रमुच्यते ॥“
..................(गीता ५ । ३)
‘हे महाबाहो ! जो मनुष्य न किसी से द्वेष करता है और न किसी की आकांक्षा
करता है, वह कर्मयोगी सदा संन्यासी समझने योग्य है; क्योंकि द्वन्द्वों से रहित वह सुखपूर्वक संसार-बन्धनसे मुक्त हो जाता है
।’
ज्ञानयोगसे
सुगमतापूर्वक तत्त्वप्राप्ति‒--
“युञ्जन्नेवं
सदात्मान योगी विगतकल्मषः ।
सुखेन ब्रह्मसंस्पर्शमत्यन्तं सुखमश्नुते ॥“
..........................(गीता ६ । २८)
‘अपने-आपको सदा परमात्मामें लगाता हुआ पापरहित योगी सुखपूर्वक
ब्रह्मप्राप्तिरूप अत्यन्त सुखको प्राप्त हो जाता है ।’
भक्तियोगसे
सुगमतापूर्वक तत्त्वप्राप्ति‒
“अनन्यचेताः
सततं यो मां स्मरति नित्यशः ।
तस्याहं
सुलभः पार्थ नित्ययुक्तस्य योगिनः ॥“
..........................(गीता ८ । १४)
‘हे पार्थ ! अनन्यचित्तवाला जो मनुष्य मेरा नित्य-निरन्तर स्मरण करता है,
उस नित्ययुक्त योगीके लिये मैं सुलभ हूँ अर्थात् उसको सुगमतासे
प्राप्त हो जाता हूँ ।’
[
इस विषयको विस्तारसे जाननेके लिये गीताप्रेससे प्रकाशित ‘गीता-दर्पण’ पुस्तकमें ‘गीतामें
तीनों योगोंकी समानता’ शीर्षक लेख देखना चाहिये । ]
नारायण
! नारायण !!
(शेष
आगामी पोस्ट में )
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास
जी की ‒”कल्याण-पथ” पुस्तकसे
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