||श्री परमात्मने नम:||
भगवत्तत्त्व
(वासुदेवः सर्वम्)..पोस्ट 03
वह
तत्त्व ही संसाररूपसे भास रहा है । परंतु जबतक उधर दृष्टि नहीं जाती, तबतक संसार-ही-संसार दीखता है, तत्त्व नहीं । जैसे,
जबतक ‘यह गंगाजी हैं’‒इस
तरफ दृष्टि नहीं जाती, तबतक वह साधारण नदी ही दीखती है ।
परमात्मतत्त्व तत्त्वदृष्टिसे ही देखा जा सकता है ।
तीन
प्रकारकी दृष्टियाँ :
मनुष्यकी
दृष्टियाँ तीन प्रकारकी हैं‒
(१) इन्द्रियदृष्टि (बहिःकरण) [*],
(२) बुद्धिदृष्टि (अन्तःकरण) [**] ...और
(३)
तत्त्वदृष्टि (स्वरूप)[***]
---‒ये तीनों दृष्टियाँ क्रमशः एक-एकसे सूक्ष्म एवं श्रेष्ठ हैं ।
संसार
असत् और अस्थिर होते हुए भी इन्द्रियदृष्टि से देखनेपर सत् एवं स्थिर प्रतीत होता
है,
जिससे संसारमें राग हो जाता है । बुद्धिदृष्टिमें वस्तुतः विवेक ही
प्रधान है । जब बुद्धिमें भोगों-(इन्द्रियों तथा उनके विषयों-) की प्रधानता नहीं
होती, अपितु विवेककी प्रधानता होती है, तब बुद्धिदृष्टिसे संसार परिवर्तनशील और उत्पन्न एवं नष्ट होनेवाला दीखता
है, जिससे संसारसे वैराग्य हो जाता है ।
जड-चेतन, नित्य-अनित्य, सत्-असत् आदि दो वस्तुओंके अलग-अलग
ज्ञानको ‘विवेक’ कहते हैं । यह विवेक
प्राणिमात्रमें स्वतः विद्यमान है । पशुपक्षियोंमें शरीर-निर्वाहके योग्य ही
(खाद्य-अखाद्यका) विवेक रहता है; परंतु मनुष्यमें यह विवेक
विशेषरूपसे जाग्रत् होता है । विवेक अनादि है । भगवान् कहते हैं‒
“प्रकृतिं
पुरुषं चैव विद्ध्यनादी उभावपि ।“
........................(गीता १३ । १९)
(प्रकृति और पुरुष‒इन दोनोंको ही तू अनादि जान)|
‒इस श्लोकार्द्धमें आये ‘उभौ’ (दोनों)
पदसे यह सिद्ध होता है कि जैसे प्रकृति और पुरुष दोनों अनादि हैं, वैसे ही इन दोनोंका भेद ज्ञानरूप विवेक भी अनादि है । ‘उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्त्वदर्शिभिः’ ॥
(गीता २ । १६) ‘तत्त्वदर्शी महापुरुषोंने सत्-असत् दोनोंका
ही तत्त्व देखा है’‒इस श्लोकार्द्धमें आये ‘उभयोः’ पदसे भी यही बात सिद्ध होती है ।
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[*] यत्तु कृत्स्नवदेकस्मिन्कार्ये सक्तमहैतुकम् ।
अतत्त्वार्थवदल्पं च तत्तामसमुदाहृतम् ॥
.................(१८ । २२)
[**] सर्वभूतेषु
येनैकं भावमव्ययमीक्षते ।
विभक्तं
विभक्तेषु तज्ज्ञानं विद्धि सात्त्विकम् ॥
.................(१८ । २०)
[***] बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते ।
वासुदेवः
सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः ॥
..................(७ । १९)
नारायण
! नारायण !!
(शेष आगामी पोस्ट में )
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की ‒”कल्याण-पथ”
पुस्तकसे
हे नाथ ! हे मेरे नाथ !! मैं आपको भूलूँ नहीं !!!
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