||श्रीहरि||
पुत्रगीता (पोस्ट 10)
नास्ति विद्यासमं चक्षुर्नास्ति सत्यसमं
तपः।
नास्ति रागसमं दुःखं नास्ति त्यागसमं
सुखम् ॥ ३५॥
आत्मन्येवात्मना जात आत्मनिष्ठोऽप्रजोऽपि
वा।
आत्मन्येव भविष्यामि न मां तारयति प्रजा
॥ ३६॥
नैतादृशं ब्राह्मणस्यास्ति वित्तं
यथैकता समता सत्यता च।
शीले स्थितिर्दण्डनिधानमार्जवं
ततस्ततश्चोपरमः क्रियाभ्यः॥ ३७॥
किं ते धनैर्बान्धवैर्वापि किं ते
किं ते दारैर्ब्राह्मण यो मरिष्यसि।
आत्मानमन्विच्छ गुहां प्रविष्टं
पितामहास्ते क्व गताः पिता च ॥ ३८॥
भीष्म उवाच
पुत्रस्यैतद् वचः श्रुत्वा यथाकार्षीत्
पिता नृप।
तथा त्वमपि वर्तस्व सत्यधर्मपरायणः ॥
३९॥
संसारमें विद्या (ज्ञान) के समान कोई नेत्र नहीं है, सत्यके समान कोई तप नहीं
है, रागके समान कोई दुःख नहीं है और त्यागके समान कोई सुख नहीं
है॥ ३५॥
मैं सन्तानरहित होने पर भी परमात्मा में ही परमात्मा द्वारा उत्पन्न हुआ
हूँ, परमात्मा में ही स्थित हूँ। आगे भी आत्मा में ही लीन
होऊँगा। सन्तान मुझे पार नहीं उतारेगी॥ ३६॥
परमात्माके साथ एकता तथा समता, सत्यभाषण,
सदाचार, ब्रह्मनिष्ठा, दण्डका
परित्याग (अहिंसा), सरलता तथा सब प्रकारके
सकाम कर्मोंसे उपरति–इनके समान ब्राह्मणके लिये दूसरा कोई धन
नहीं है॥ ३७॥
ब्राह्मणदेव पिताजी ! जब आप एक दिन मर ही
जायँगे तो आपको इस धनसे क्या लेना है अथवा भाई-बन्धुओंसे आपका
क्या काम है तथा स्त्री आदिसे आपका कौन-सा प्रयोजन सिद्ध होनेवाला
है? आप अपने हृदयरूपी गुफा में स्थित हुए परमात्मा को खोजिये।
सोचिये तो सही, आपके पिता और पितामह कहाँ चले गये? ॥ ३८॥
भीष्म जी कहते हैं-नरेश्वर! पुत्र का यह वचन सुनकर पिता ने जैसे सत्य-धर्म का अनुष्ठान
किया था, उसी प्रकार तुम भी सत्य-धर्ममें
तत्पर रहकर यथायोग्य बर्ताव करो ॥ ३९ ॥
॥ इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि पुत्रगीता
सम्पूर्णा ॥
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