शुक्रवार, 26 अप्रैल 2019

भगवत्तत्त्व (वासुदेवः सर्वम्)..पोस्ट 11 उपसंहार (ii)


||श्री परमात्मने नम:||

भगवत्तत्त्व
(वासुदेवः सर्वम्)..पोस्ट 11

उपसंहार (ii)

भगवत्तत्त्व सम्पूर्ण देश, काल, वस्तु और व्यक्तिमें परिपूर्ण है । अतः उसकी प्राप्ति किसी क्रिया, बल, योग्यता, अधिकार, परिस्थिति, सामर्थ्य, वर्ण, आश्रम, सम्प्रदाय आदि के आश्रित नहीं है; क्योंकि चेतन-(सत्य-) की प्राप्ति जडता-(असत्य-) के द्वारा नहीं, अपितु जडता के त्याग से होती है ।

मनुष्य यदि अपने ही अनुभवका आदर करे तो उसे सुगमतापूर्वक तत्त्वप्राप्ति हो सकती है । यह प्रत्येक मनुष्यका अनुभव है कि जाग्रत्, स्वप्न, सुषुप्ति, मूर्च्छा और समाधिकी अवस्थाएँ तो परिवर्तनशील तथा अनेक होती हैं, पर इन अवस्थाओंको जाननेवाला अपरिवर्तनशील तथा एक रहता है । यदि अवस्थाओंको जाननेवाला अवस्थाओंसे अतीत न होता, तो अवस्थाओंकी भिन्नता, उनकी गणना, उनके परिवर्तन (आने-जाने), उनकी सन्धि और उनके अभावका ज्ञाता (जाननेवाला) कौन होता ? ये अवस्थाएँ अहम्’ (जडसे माने हुए सम्बन्ध-) पर टिकी हुई हैं और अहम्सत्यतत्त्व पर टिका हुआ है । तात्पर्य यह है कि एक सत्यतत्त्व के सिवा अन्य किसी भी अवस्था आदि की और माने हुए अहम्की स्वतन्त्र सत्ता नहीं है । इस प्रकार अवस्थाओं से तथा अहम्से अपने-आप-(स्वरूप-) को अलग अनुभव करने पर तत्त्वज्ञान हो जाता है । तत्त्वज्ञान प्राप्त हो जानेपर अहम्और अहम्की अवस्थाओं की स्वतन्त्र सत्ता सत्यत्वेन किंचित भी नहीं रहती । जिस प्रकार समुद्र और लहरोंमें सत्ता जलकी ही है, समुद्र और लहरोंकी किसी भी काल में कोई स्वतन्त्र  सत्ता है ही नहीं । उसी प्रकार अहम्और अवस्थाओं में एक भगवत्तत्त्व की सत्ता है अर्थात् सर्वत्र एक भगवत्तत्त्व ही शेष रह जाता है । इसीको गीताने वासुदेवः सर्वम्कहा है ।

नारायण !     नारायण !!     नारायण !!!

(शेष आगामी पोस्ट में )
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की ‒”कल्याण-पथपुस्तकसे





कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट०९)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - पाँचवा अध्याय..(पोस्ट०९) विदुरजीका प्रश्न  और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्णन देव...