||श्री परमात्मने नम:||
भगवत्तत्त्व
(वासुदेवः सर्वम्)..पोस्ट 11
उपसंहार (ii)
भगवत्तत्त्व
सम्पूर्ण देश,
काल, वस्तु और व्यक्तिमें परिपूर्ण है । अतः
उसकी प्राप्ति किसी क्रिया, बल, योग्यता,
अधिकार, परिस्थिति, सामर्थ्य,
वर्ण, आश्रम, सम्प्रदाय
आदि के आश्रित नहीं है; क्योंकि चेतन-(सत्य-) की प्राप्ति
जडता-(असत्य-) के द्वारा नहीं, अपितु जडता के त्याग से होती
है ।
मनुष्य
यदि अपने ही अनुभवका आदर करे तो उसे सुगमतापूर्वक तत्त्वप्राप्ति हो सकती है । यह
प्रत्येक मनुष्यका अनुभव है कि जाग्रत्, स्वप्न, सुषुप्ति, मूर्च्छा और समाधिकी अवस्थाएँ तो
परिवर्तनशील तथा अनेक होती हैं, पर इन अवस्थाओंको जाननेवाला
अपरिवर्तनशील तथा एक रहता है । यदि अवस्थाओंको जाननेवाला अवस्थाओंसे अतीत न होता,
तो अवस्थाओंकी भिन्नता, उनकी गणना, उनके परिवर्तन (आने-जाने), उनकी सन्धि और उनके
अभावका ज्ञाता (जाननेवाला) कौन होता ? ये अवस्थाएँ ‘अहम्’ (जडसे माने हुए सम्बन्ध-) पर टिकी हुई हैं और ‘अहम्’ सत्यतत्त्व पर टिका हुआ है । तात्पर्य यह है
कि एक सत्यतत्त्व के सिवा अन्य किसी भी अवस्था आदि की और माने हुए ‘अहम्’ की स्वतन्त्र सत्ता नहीं है । इस प्रकार
अवस्थाओं से तथा ‘अहम्’ से
अपने-आप-(स्वरूप-) को अलग अनुभव करने पर तत्त्वज्ञान हो जाता है । तत्त्वज्ञान
प्राप्त हो जानेपर ‘अहम्’ और ‘अहम्’ की अवस्थाओं की स्वतन्त्र सत्ता सत्यत्वेन
किंचित भी नहीं रहती । जिस प्रकार समुद्र और लहरोंमें सत्ता जलकी ही है, समुद्र और लहरोंकी किसी भी काल में कोई स्वतन्त्र सत्ता है ही नहीं । उसी प्रकार ‘अहम्’ और अवस्थाओं में एक भगवत्तत्त्व की सत्ता है
अर्थात् सर्वत्र एक भगवत्तत्त्व ही शेष रह जाता है । इसीको गीताने ‘वासुदेवः सर्वम्’ कहा है ।
नारायण
! नारायण !! नारायण !!!
(शेष
आगामी पोस्ट में )
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास
जी की ‒”कल्याण-पथ” पुस्तकसे
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