राम काज लगि तव अवतारा !!
हनुमान
जयन्ती के पावन पर्व पर
सभी को हार्दिक शुभकामनाएं !!!!
सभी को हार्दिक शुभकामनाएं !!!!
“अंजनीगर्भसम्भूतो हनुमान् पवनात्मज: |
यदा जातो महादेवो हनुमान् सत्यविक्रम: ||”
.................(वायुपुराण-पूर्वार्ध ६०|७३)
यदा जातो महादेवो हनुमान् सत्यविक्रम: ||”
.................(वायुपुराण-पूर्वार्ध ६०|७३)
“श्रीमहादेव जी पवनसुत अंजनीनंदन, सत्य-विक्रमी श्री हनुमान के रूप में अवतीर्ण हुए |”
एक बार भगवान् शंकर भगवती सती के साथ कैलास-पर्वत पर विराजमान थे | प्रसंगवश भगवान् शंकर ने सती से कहा- ‘प्रिये ! जिनके नामों को रट रटकर मैं गद्गद होता रहता हूँ, वे ही मेरे प्रभु अवतार धारण करके संसार में आ रहे हैं | सभी देवता उनके साथ अवतार ग्रहण करके उनकी सेवा का सुयोग प्राप्त करना चाहते हैं, तब मैं ही उससे क्यों वंचित रहूँ ? मैं भी वहीं चलूँ और उनकी सेवा करके अपनी युग-युग की लालसा पूरी करूँ |’
एक बार भगवान् शंकर भगवती सती के साथ कैलास-पर्वत पर विराजमान थे | प्रसंगवश भगवान् शंकर ने सती से कहा- ‘प्रिये ! जिनके नामों को रट रटकर मैं गद्गद होता रहता हूँ, वे ही मेरे प्रभु अवतार धारण करके संसार में आ रहे हैं | सभी देवता उनके साथ अवतार ग्रहण करके उनकी सेवा का सुयोग प्राप्त करना चाहते हैं, तब मैं ही उससे क्यों वंचित रहूँ ? मैं भी वहीं चलूँ और उनकी सेवा करके अपनी युग-युग की लालसा पूरी करूँ |’
भगवान शंकर की यह बात सुनकर सती ने सोचकर कहा-‘प्रभो ! भगवान् का अवतार इस बार रावण को मारने के लिए हो रहा है | रावण आपका अनन्य भक्त है | यहाँ तक कि उसने अपने
सिरों को काटकर आपको समर्पित किया है | ऐसी स्थिति में आप
उसको मारने के काम में कैसे सहयोग दे सकते हैं ?..यह सुनकर
भगवान् शंकर हँसने लगे | उन्होंने कहा- “देवि ! जैसे रावण ने मेरी भक्ति की है, वैसे ही उसने
मेरे एक अंश की अवलेहना भी तो की है | तुम जानते ही हो कि
मैं ग्यारह स्वरूपों में रहता हूँ | जब उसने अपने दस सर
अर्पित कर मेरी पूजा की थी, तब उसने मेरे एक अंश को बिना
पूजा किये ही छोड़ दिया था | अब मैं उसी अंश से उसके विरुद्ध
युद्ध करके अपने प्रभु की सेवा कर सकता हूँ | मैंने वायु
देवता के द्वारा अंजना के गर्भ से अवतार लेने का निश्चय किया है |” यह सुनकर भगवती सती प्रसन्न हो गयीं |
इस प्रकार भगवान् शंकर ही श्री हनुमान के रूप में अवतरित हुए,
इस तथ्य की पुष्टि पुरानों की आख्यायिकाओं से होती है | गोस्वामी तुलसीदास जी भी दोहावली (१४२) में लिखा है :
“जेहि
सरीर रति राम सों सोइ आदरहीं सुजान |
रुद्रदेह तजि नेहबस बानर भे हनुमान ||”
रुद्रदेह तजि नेहबस बानर भे हनुमान ||”
(सज्जन उसी शरीर का आदर करते हैं जिसको श्रीराम से
प्रेम हो | इसी स्नेहवश रुद्रदेह त्यागकर, हनुमान जी ने वानर का शरीर धारण किया)
{कल्याण-
श्रीहनुमान अंक}
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