||श्री परमात्मने नम:||
भगवत्तत्त्व
(वासुदेवः सर्वम्)..पोस्ट 04
जिस
प्रकार प्रकाश बल्बमें नहीं होता, अपितु बल्बमें आता है, उसी प्रकार यह अनादिसिद्ध विवेक भी बुद्धिमें पैदा नहीं होता, अपितु बुद्धिमें आता है । इन्द्रियदृष्टिकी अपेक्षा बुद्धिदृष्टिकी
प्रधानता होनेसे विवेक विशेष स्फुरित होता है, जिससे सत्की
सत्ता और असत्के अभावका अलग-अलग ज्ञान हो जाता है । विवेकपूर्वक असत्का त्याग कर
देनेपर जो शेष रहता है, वही तत्त्व है । तत्त्वदृष्टिसे
देखनेपर एक भगवत्तत्त्व अथवा परमात्मतत्त्वके सिवा संसार, शरीर,
अन्तःकरण, बहिःकरण आदि किसीकी भी स्वतन्त्र
सत्ता सत्यत्वेन किंचिन्मात्र भी नहीं रहती । तब एकमात्र ‘वासुदेवः
सर्वम्’‒‘सब कुछ वासुदेव ही हैं’‒इसका
बोध हो जाता है ।
इस
प्रकार यह संसार बहिकरण-(इन्द्रियाँ-) से देखनेपर नित्य एवं सुखदायी, अन्तःकरण-(बुद्धि-) से देखनेपर अनित्य एवं दुःखदायी तथा तत्त्वसे देखनेपर
परमात्मस्वरूप दिखायी देता है ।
साधककी
विवेकदृष्टि और सिद्धकी तत्त्वदृष्टिमें अन्तर यह है कि विवेकदृष्टिसे सत् और
असत्-दोनों अलग-अलग दीखते हैं और सत्का अभाव नहीं एवं असत्का भाव नहीं‒ऐसा बोध होता है । इस प्रकार विवेकदृष्टिका परिणाम होता है‒असत्के त्यागपूर्वक सत्की प्राप्ति । जहाँ सत्की प्राप्ति होती है वहाँ
तत्त्वदृष्टि रहती है । तत्त्वदृष्टिसे संसार कभी सत्यरूपसे प्रतीत नहीं होता ।
तात्पर्य है कि विवेकदृष्टिमें सत् और असत्‒दोनों रहते हैं
और तत्त्वदृष्टिमें केवल सत् रहता है ।
विवेकको
महत्त्व देनेसे इन्द्रियों का ज्ञान लीन हो जाता है । उस विवेकसे परे जो वास्तविक
तत्त्व है,
वहाँ विवेक भी लीन हो जाता है ।
वास्तविक
दृष्टि‒- वस्तुतः तत्त्वदृष्टि ही वास्तविक दृष्टि है । इन्द्रियदृष्टि और
बुद्धिदृष्टि वास्तविक नहीं है; क्योंकि जिस धातुका संसार है,
उसी धातुकी ये दृष्टियाँ हैं । अतः ये दृष्टियाँ सांसारिक अथवा
पारमार्थिक विषयमें पूर्ण निर्णय नहीं कर सकतीं । तत्त्वदृष्टिमें ये सब दृष्टियाँ
लीन हो जाती हैं । जैसे रात्रिमें बल्ब जलानेसे प्रकाश होता है; परंतु वही बल्ब यदि मध्याह्नकालमें (दिनके प्रकाशमें) जलाया जाता है तो
उसके प्रकाश का भान तो होता है, पर उस प्रकाश का (सूर्य के
प्रकाश के सामने) कोई महत्त्व नहीं रहता; वैसे ही
इन्द्रियदृष्टि और बुद्धिदृष्टि अज्ञान (अविद्या) अथवा संसारमें तो काम करती हैं;
पर तत्त्वदृष्टि हो जानेपर इन दृष्टियोंका उसके (तत्त्वदृष्टिके)
सामने कोई महत्त्व नहीं रह जाता । ये दृष्टियाँ नष्ट तो नहीं होतीं, पर प्रभावहीन हो जाती हैं । केवल सच्चिदानन्दरूपसे एक ज्ञान शेष रह जाता
है; उसीको भगवत्तत्त्व या परमात्मतत्त्व कहते हैं । वही
वास्तविक तत्त्व है । शेष सब अतत्त्व हैं ।
नारायण
! नारायण !!
(शेष
आगामी पोस्ट में )
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास
जी की ‒”कल्याण-पथ” पुस्तकसे
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