शनिवार, 18 मई 2019

अलौकिक प्रेम (पोस्ट.०३ )


।। श्रीहरिः ।।

अलौकिक प्रेम (पोस्ट.०३ )

प्रह्लादजी, मीराबाई आदिके सामने कितनी ही प्रतिकूल परिस्थितियाँ आयीं, फिर भी वे दुःखी नहीं हुए । इसलिये परिस्थितिसे रहित होनेमें मनुष्य स्वतन्त्र नहीं है, पर उसका भोग न करनेमें अर्थात् सुखी-दुःखी न होनेमें मनुष्य सर्वथा स्वतन्त्र है । कारण कि परमात्माका अंश होनेसे उसमें निर्विकारता स्वत सिद्ध है[*] । अतः भागवतके उपर्युक्त श्लोकोंमें आये धुताशुभाःपदका अर्थ पाप नष्ट होना और क्षीणमङ्गलाःपदका अर्थ पुण्य नष्ट होना नहीं लिया जा सकता । तो फिर इन पदोंका क्या तात्पर्य है ? अब इसपर विचार किया जाता है ।
भगवान्‌के विरहसे गोपियोंको जो ताप (दुःख हुआ, वह दुःसह और तीव्र था‒‘दुःसहप्रेष्ठ विरहतीव्रताप ।यह ताप संसारके तापसे अत्यन्त विलक्षण है । सांसारिक तापमें तो दुःख-ही-दुःख होता है, पर विरहके तापमें आनन्द-ही-आनन्द होता है । जैसे मिर्ची खानेसे मुखमें जलन होती है, आँखोंमें पानी आता है, फिर भी मनुष्य उसको खाना छोड़ता नहीं; क्योंकि उसको मिर्ची खानेमें एक रस मिलता है । ऐसे ही प्रेमी भक्तको विरहके तीव्र तापमें उससे भी अत्यन्त विलक्षण एक रस मिलता है । इसीलिये चैतन्य महाप्रभुजैसे महापुरुषने भी विरहको ही सर्वश्रेष्ठ माना है । सांसारिक ताप तो पापोंके सम्बन्धसे होता है, पर विरहका ताप भगवतेमके सम्बन्धसे होता है । इसलिये विरहके तापमें भगवान्‌के साथ मानसिक सम्बन्ध रहनेसे आनन्दका अनुभव होता है‒‘ध्यानप्राप्ताच्यूताश्लेषनिर्वृत्या ।जैसे प्यास वास्तवमें जलसे अलग नहीं है, ऐसे ही विरह भी वास्तवमें मिलनसे अलग नहीं है । जलका सम्बन्ध रहनेसे ही प्यास लगती है । प्यासमें जलकी स्मृति रहती है । अतः प्यास जलरूप ही हुई । इसी तरह विरह भी मिलनरूप ही है । विरह और मिलनदोनों एक ही प्रेमकी दो अवस्थाएँ हैं । संसारके सम्बन्धमें सुख भी दुःखरूप है और दुःख भी दुःखरूप है, पर भगवान्‌के सम्बन्धमें दुःख (विरह) भी सुखरूप है और सुख (मिलन) भी सुखरूप (आनन्दरूप) है । कारण कि सांसारिक सुख-दुःख (अनुकूलता-प्रतिकूलता) तो गुणोंके संगसे होते हैं, पर भगवान्‌का विरह और मिलन गुणोंसे अतीत हैं । इसलिये भगवान्‌के सम्बन्धसे होनेवाला दुःख (विरह) सांसारिक सुखसे भी बहुत अधिक आनन्द देनेवाला होता है ! सांसारिक दुःखमें अभावरूप संसारका सम्बन्ध है, पर विरहके दुःखमें भावरूप भगवान्‌का सम्बन्ध है । सांसारिक दुःखमें कर्म अपना फल देकर नष्ट हो जाते हैं और कर्ताकी स्वतन्त्र सत्ता रह जाती है; परन्तु विरहके दुःखमें कर्मोंका कारण (गुणोंका संग) ही नष्ट हो जाता है और कर्ताकी स्वतन्त्र सत्ता नहीं रहती, प्रत्युत केवल परमात्माकी सत्ता रहती है ।

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[*] ईस्वर अंस जीव अबिनासी ।
चेतन अमल सहज सुखरासी ॥
(मानस, उत्तर॰ ११७ । १)
अनादित्वान्निर्गुणत्वात्परमात्मायमव्ययः ।
शरीरस्थोऽपि कौन्तेय न करोति न लिप्यते ॥
(गीता १३ । ३१)

(शेष आगामी पोस्ट में )
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की मेरे तो गिरधर गोपालपुस्तकसे



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