।। श्रीहरिः ।।
अलौकिक प्रेम (पोस्ट.०३ )
प्रह्लादजी, मीराबाई
आदिके सामने कितनी ही प्रतिकूल परिस्थितियाँ आयीं, फिर भी वे
दुःखी नहीं हुए । इसलिये परिस्थितिसे रहित होनेमें मनुष्य स्वतन्त्र नहीं है,
पर उसका भोग न करनेमें अर्थात् सुखी-दुःखी न होनेमें मनुष्य सर्वथा
स्वतन्त्र है । कारण कि परमात्माका अंश होनेसे उसमें निर्विकारता स्वत सिद्ध है[*]
। अतः भागवतके उपर्युक्त श्लोकोंमें आये ‘धुताशुभाः’ पदका अर्थ पाप नष्ट होना और ‘क्षीणमङ्गलाः’ पदका अर्थ पुण्य नष्ट होना नहीं लिया जा सकता । तो फिर इन पदोंका क्या
तात्पर्य है ? अब इसपर विचार किया जाता है ।
भगवान्के विरहसे गोपियोंको जो ताप (दुःख हुआ,
वह दुःसह और तीव्र था‒‘दुःसहप्रेष्ठ
विरहतीव्रताप ।’ यह ताप संसारके तापसे अत्यन्त विलक्षण है ।
सांसारिक तापमें तो दुःख-ही-दुःख होता है, पर विरहके तापमें
आनन्द-ही-आनन्द होता है । जैसे मिर्ची खानेसे मुखमें जलन होती है, आँखोंमें पानी आता है, फिर भी मनुष्य उसको खाना
छोड़ता नहीं; क्योंकि उसको मिर्ची खानेमें एक रस मिलता है ।
ऐसे ही प्रेमी भक्तको विरहके तीव्र तापमें उससे भी अत्यन्त विलक्षण एक रस मिलता है
। इसीलिये चैतन्य महाप्रभु‒जैसे महापुरुषने भी विरहको ही
सर्वश्रेष्ठ माना है । सांसारिक ताप तो पापोंके सम्बन्धसे होता है, पर विरहका ताप भगवतेमके सम्बन्धसे होता है । इसलिये विरहके तापमें भगवान्के
साथ मानसिक सम्बन्ध रहनेसे आनन्दका अनुभव होता है‒‘ध्यानप्राप्ताच्यूताश्लेषनिर्वृत्या
।’ जैसे प्यास वास्तवमें जलसे अलग नहीं है, ऐसे ही विरह भी वास्तवमें मिलनसे अलग नहीं है । जलका सम्बन्ध रहनेसे ही
प्यास लगती है । प्यासमें जलकी स्मृति रहती है । अतः प्यास जलरूप ही हुई । इसी तरह
विरह भी मिलनरूप ही है । विरह और मिलन‒दोनों एक ही प्रेमकी
दो अवस्थाएँ हैं । संसारके सम्बन्धमें सुख भी दुःखरूप है और दुःख भी दुःखरूप है,
पर भगवान्के सम्बन्धमें दुःख (विरह) भी सुखरूप है और सुख (मिलन) भी
सुखरूप (आनन्दरूप) है । कारण कि सांसारिक सुख-दुःख (अनुकूलता-प्रतिकूलता) तो
गुणोंके संगसे होते हैं, पर भगवान्का विरह और मिलन गुणोंसे
अतीत हैं । इसलिये भगवान्के सम्बन्धसे होनेवाला दुःख (विरह) सांसारिक सुखसे भी
बहुत अधिक आनन्द देनेवाला होता है ! सांसारिक दुःखमें अभावरूप संसारका सम्बन्ध है,
पर विरहके दुःखमें भावरूप भगवान्का सम्बन्ध है । सांसारिक दुःखमें
कर्म अपना फल देकर नष्ट हो जाते हैं और कर्ताकी स्वतन्त्र सत्ता रह जाती है;
परन्तु विरहके दुःखमें कर्मोंका कारण (गुणोंका संग) ही नष्ट हो जाता
है और कर्ताकी स्वतन्त्र सत्ता नहीं रहती, प्रत्युत केवल
परमात्माकी सत्ता रहती है ।
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[*] ईस्वर अंस जीव अबिनासी ।
चेतन अमल सहज सुखरासी ॥
(मानस, उत्तर॰ ११७ । १)
अनादित्वान्निर्गुणत्वात्परमात्मायमव्ययः ।
शरीरस्थोऽपि कौन्तेय न करोति न लिप्यते ॥
(गीता १३ । ३१)
(शेष आगामी पोस्ट में )
---गीताप्रेस,गोरखपुर
द्वारा प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की ‘मेरे तो गिरधर गोपाल’ पुस्तकसे
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