मंगलवार, 21 मई 2019

अलौकिक प्रेम (पोस्ट.०६ )


।। श्रीहरिः ।।

अलौकिक प्रेम (पोस्ट.०६ )

यद्यपि श्रीकृष्ण के प्रति उन गोपियों की जारबुद्धि थी अर्थात् उनकी दृष्टि परमपति भगवान्‌ के शरीर की सुन्दरता की तरफ थी तो भी वे भगवान्‌ को प्राप्त हो गयीं‒‘तमेव परमात्मानं जारबुद्ध्यापि सङ्गताः ।जारबुद्धि होने पर भी गोपियों में अपने सुखकी इच्छा (काम) लेशमात्र भी नहीं है । अगर उनमें अपने सुखकी इच्छा होती तो वे अपने शरीरको सजाकर भगवान्‌के पास जातीं । यहाँ जारबुद्धिशब्द इसलिये दिया है कि गोपियोंका विवाह तो दूसरेके साथ हुआ था, पर उनका प्रेम श्रीकृष्णमें था । उनका गुणमय शरीर ही नहीं रहा, फिर भोगबुद्धि कैसे रहेगी ? भोगबुद्धिके रहनेका स्थान ही नहीं रहा, केवल परमात्मा ही रहे । गोपियोंमें यह विलक्षणता भगवान्‌की दिव्यातिदिव्य वस्तुशक्ति (स्वरूपशक्ति)-से आयी है, अपनी भावशक्तिसे नहीं । भगवान्‌की वस्तुशक्तिसे गोपियोंकी जारबुद्धि नष्ट हो गयी । जैसे अग्निसे सम्बन्ध होनेपर सभी वस्तुएँ (अग्निकी वस्तुशक्तिसे) अग्निरूप ही हो जाती हैं, ऐसे ही भक्त भगवान्‌के साथ काम, द्वेष, भय, स्नेह आदि किसी भी भावसे सम्बन्ध जोड़े, वह (भगवान्‌की वस्तुशक्तिसे) भगवत्स्वरूप ही हो जाता है ।[*] इसमें भक्तका भाव, उसका प्रयास काम नहीं करता, प्रत्युत भगवान्‌की दिव्यातिदिव्य स्वरूपशक्ति काम करती है । इसका कारण यह है कि भगवान्‌ जीवके कल्याणके लिये ही प्रकट होते हैं‒‘नृणां निःश्रेयसार्थाय व्यक्तिर्भगवतो नृप’ (श्रीमद्भा॰ १० । २९ । १४) ।

गीतामें भगवान्‌के चार प्रकारके भक्त बताये गये हैंअर्थार्थी, आर्त, जिज्ञासु और ज्ञानी (प्रेमी)[†] । यद्यपि अर्थार्थी, आर्त और जिज्ञासुका गुणोंके साथ सम्बन्ध रहता है, तथापि मुख्य सम्बन्ध भगवान्‌के साथ रहनेके कारण वे भी तीनों गुणोंसे रहित हो जाते हैं । इसलिये जिस-किसी उपायसे जीवका भगवान्‌के साथ सम्बन्ध जुड़ना चाहिये‒‘तस्मात् केनाप्युपायेन मनः कृष्णे निवेशयेत्’ (श्रीमद्भा॰ ७ । १ । ३१); क्योंकि जीव भगवान्‌का ही अंश है । भगवान्‌का सम्बन्ध मुख्य रहनेसे भोगोंका सम्बन्ध मिट जाता है, पर भोगोंका सम्बन्ध मुख्य रहनेसे भगवान्‌का सम्बन्ध छिप जाता है, मिटता नहीं । कारण कि जीवका भगवान्‌के साथ नित्ययोग है ।

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[*] कामाद् द्वेषाद् भयात् स्नेहाद् यथा भक्तेश्वरे मनः ।
आवेश्य तदधं हित्या बहवस्तद्गतिं गताः ॥
गोप्यः कामाद् भयात् कंसो द्वेषाच्चैद्यादयो नृपाः ।
सम्बन्धाद् वृष्णयः स्नेहाद् यूयं भक्या वयं विभो ॥
(श्रीमद्भा॰ ७ । १ । २९-३०)

एक नहीं, अनेक मनुष्य कामसे, द्वेषसे, भयसे और स्नेहसे अपने मनको भगवान्‌में लगाकर तथा अपने सारे पाप धोकर वैसे ही भगवान्‌को प्राप्त हुए हैं, जैसे भक्त भक्तिसे । जैसे, गोपियोंने कामसे, कंसने भयसे, शिशुपाल-दन्तवक्त्र आदि राजाओंने द्वेषसे, यदुवंशियोंने परिवारके सम्बन्धसे, तुमलोगों (युधिष्ठिर आदि)-ने स्नेहसे और हमलोगों (नारद आदि) -ने भक्तिसे अपने मनको भगवान्‌में लगाया है ।

[†] चतुर्विधा भजन्ते मां जनाः सुकृतिनोऽर्जुन ।
आर्तो जिज्ञासुरर्थार्थी ज्ञानी च भरतर्षभ ॥
(गीता ७ । १६)

(शेष आगामी पोस्ट में )
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की मेरे तो गिरधर गोपालपुस्तकसे



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