।। श्रीहरिः ।।
अलौकिक प्रेम (पोस्ट.०७ )
भगवान् श्रीकृष्णका एक नाम आता है ‒‘चोरजारशिखामणि ।’ इसका अर्थ है कि भगवान्के समान चोर और जार दूसरा कोई है ही नहीं, हो सकता ही नहीं । दूसरे चोर और जार तो केवल अपना ही सुख चाहते हैं, पर भगवान् केवल दूसरेके सुखके लिये चोर और जारकी लीला करते हैं । उनकी ये दोनों ही लीलाएँ दिव्य, विलक्षण, अलौकिक हैं‒‘जन्म कर्म च मे दिव्यम्’ (गीता ४ । ९) ।[1] संसारी चोर तो केवल वस्तुओंकी ही चोरी करते हैं, पर भगवान् वस्तुओंके साथ-साथ उन वस्तुओंके राग, आसक्ति, प्रियता आदिको भी चुरा लेते हैं । भगवान्ने गोपियोंके मक्खनके साथ-साथ उनके रागरूप बन्धनको भी खा लिया था । वे जार बनते हैं तो सुखके भोक्ताके साथ-साथ सुखासक्ति, सुखबुद्धिका भी हरण कर लेते हैं, जिससे सम्बन्धजन्य आकर्षण (काम) न रहकर केवल भगवान्का आकर्षण (विशुद्ध प्रेम) रह जाता है, अन्यकी सत्ता न रहकर केवल भगवान्की सत्ता रह जाती है । तात्पर्य है कि भगवान् अपने भक्तोंमें किसीको चोर और जार रहने ही नहीं देते, उनके चोर-जारपनेको ही हर लेते हैं । ‘कनक’ (धन) और ‘कामिनी’ (स्त्री)-की आसक्तिसे ही मनुष्य ‘चोर’ और ‘जार’ होता है । अतः कनक-कामिनीकी आसक्तिका सर्वथा अभाव करनेवाले होनेसे भगवान् चोर और जारके भी शिखामणि हैं ।
यहाँ शंका हो सकती है कि जिन गोपियोंका गुणमय शरीर नहीं रहा, उनकी भगवान्के साथ रासलीला कैसे हुई ? इसका समाधान है कि वास्तवमें रासलीला गुणोंसे अतीत (निर्गुण) होनेपर ही होती है । गुणोंके रहते हुए भगवान्के साथ जो सम्बन्ध होता है, उसकी अपेक्षा गुणोंसे रहित होकर भगवान्के साथ होनेवाला सम्बन्ध अत्यन्त विलक्षण है । दास्य, सख्य, वात्सल्य, माधुर्य आदि भाव भी वास्तवमें गुणातीत (मुक्त) होनेपर ही होते हैं ।[2] एक श्लोक आता है‒
द्वैत मोहाय बोधात्प्राग्जाते बोधे मनीषया ।
भक्त्यर्थं कल्पितं (स्वीकृतं) द्वैतमद्वैतादपि सुन्दरम् ॥
......................(बोधसार, भक्ति॰ ४२)
‘तत्त्वबोधसे पहलेका द्वैत तो मोहमें डालता है, पर बोध हो जानेपर भक्तिके लिये स्वीकृत द्वैत अद्वैतसे भी अधिक सुन्दर होता है ।’
................................................
[1] यद्यपि देवता भी दिव्य कहलाते हैं, तथापि उनकी दिव्यता मनुष्योंकी अपेक्षासे कही जाती है । परन्तु भगवान्की दिव्यता निरपेक्ष होनेसे देवताओंसे भी विलक्षण है । इसलिये देवता भी भगवान्के दिव्यातिदिव्य रूपके दर्शनकी नित्य इच्छा रखते हैं‒‘देवा अप्यस्य रूपस्य नित्यं दर्शनकाङ्क्षिणः’ (गीता ११ । ५२) ।
[2] भक्तियोगकी यह विलक्षणता है कि उसमें साधक पहलेसे ही (गुणोंके रहते हुए भी) भगवान्में दास्य, सख्य, वात्सल्य आदि भाव कर सकता है ।
(शेष आगामी पोस्ट में )
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की ‘मेरे तो गिरधर गोपाल’ पुस्तकसे
अलौकिक प्रेम (पोस्ट.०७ )
भगवान् श्रीकृष्णका एक नाम आता है ‒‘चोरजारशिखामणि ।’ इसका अर्थ है कि भगवान्के समान चोर और जार दूसरा कोई है ही नहीं, हो सकता ही नहीं । दूसरे चोर और जार तो केवल अपना ही सुख चाहते हैं, पर भगवान् केवल दूसरेके सुखके लिये चोर और जारकी लीला करते हैं । उनकी ये दोनों ही लीलाएँ दिव्य, विलक्षण, अलौकिक हैं‒‘जन्म कर्म च मे दिव्यम्’ (गीता ४ । ९) ।[1] संसारी चोर तो केवल वस्तुओंकी ही चोरी करते हैं, पर भगवान् वस्तुओंके साथ-साथ उन वस्तुओंके राग, आसक्ति, प्रियता आदिको भी चुरा लेते हैं । भगवान्ने गोपियोंके मक्खनके साथ-साथ उनके रागरूप बन्धनको भी खा लिया था । वे जार बनते हैं तो सुखके भोक्ताके साथ-साथ सुखासक्ति, सुखबुद्धिका भी हरण कर लेते हैं, जिससे सम्बन्धजन्य आकर्षण (काम) न रहकर केवल भगवान्का आकर्षण (विशुद्ध प्रेम) रह जाता है, अन्यकी सत्ता न रहकर केवल भगवान्की सत्ता रह जाती है । तात्पर्य है कि भगवान् अपने भक्तोंमें किसीको चोर और जार रहने ही नहीं देते, उनके चोर-जारपनेको ही हर लेते हैं । ‘कनक’ (धन) और ‘कामिनी’ (स्त्री)-की आसक्तिसे ही मनुष्य ‘चोर’ और ‘जार’ होता है । अतः कनक-कामिनीकी आसक्तिका सर्वथा अभाव करनेवाले होनेसे भगवान् चोर और जारके भी शिखामणि हैं ।
यहाँ शंका हो सकती है कि जिन गोपियोंका गुणमय शरीर नहीं रहा, उनकी भगवान्के साथ रासलीला कैसे हुई ? इसका समाधान है कि वास्तवमें रासलीला गुणोंसे अतीत (निर्गुण) होनेपर ही होती है । गुणोंके रहते हुए भगवान्के साथ जो सम्बन्ध होता है, उसकी अपेक्षा गुणोंसे रहित होकर भगवान्के साथ होनेवाला सम्बन्ध अत्यन्त विलक्षण है । दास्य, सख्य, वात्सल्य, माधुर्य आदि भाव भी वास्तवमें गुणातीत (मुक्त) होनेपर ही होते हैं ।[2] एक श्लोक आता है‒
द्वैत मोहाय बोधात्प्राग्जाते बोधे मनीषया ।
भक्त्यर्थं कल्पितं (स्वीकृतं) द्वैतमद्वैतादपि सुन्दरम् ॥
......................(बोधसार, भक्ति॰ ४२)
‘तत्त्वबोधसे पहलेका द्वैत तो मोहमें डालता है, पर बोध हो जानेपर भक्तिके लिये स्वीकृत द्वैत अद्वैतसे भी अधिक सुन्दर होता है ।’
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[1] यद्यपि देवता भी दिव्य कहलाते हैं, तथापि उनकी दिव्यता मनुष्योंकी अपेक्षासे कही जाती है । परन्तु भगवान्की दिव्यता निरपेक्ष होनेसे देवताओंसे भी विलक्षण है । इसलिये देवता भी भगवान्के दिव्यातिदिव्य रूपके दर्शनकी नित्य इच्छा रखते हैं‒‘देवा अप्यस्य रूपस्य नित्यं दर्शनकाङ्क्षिणः’ (गीता ११ । ५२) ।
[2] भक्तियोगकी यह विलक्षणता है कि उसमें साधक पहलेसे ही (गुणोंके रहते हुए भी) भगवान्में दास्य, सख्य, वात्सल्य आदि भाव कर सकता है ।
(शेष आगामी पोस्ट में )
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की ‘मेरे तो गिरधर गोपाल’ पुस्तकसे
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