॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम
स्कन्ध – दूसरा
अध्याय..(पोस्ट१२)
हिरण्याक्ष
का वध होने पर हिरण्यकशिपु
का
अपनी माता और कुटुम्बियों को समझाना
श्रीहिरण्यकशिपुरुवाच
बाल
एवं प्रवदति सर्वे विस्मितचेतसः ।
ज्ञातयो
मेनिरे सर्वमनित्यमयथोत्थितम् ॥ ५८॥
यम
एतदुपाख्याय तत्रैवान्तरधीयत ।
ज्ञातयो
हि सुयज्ञस्य चक्रुर्यत्साम्परायिकम् ॥ ५९॥
अतः
शोचत मा यूयं परं चात्मानमेव वा ।
क
आत्मा कः परो वात्र स्वीयः पारक्य एव वा ।
स्वपराभिनिवेशेन
विनाज्ञानेन देहिनाम् ॥ ६०॥
श्रीनारद
उवाच
इति
दैत्यपतेर्वाक्यं दितिराकर्ण्य सस्नुषा ।
पुत्रशोकं
क्षणात्त्यक्त्वा तत्त्वे चित्तमधारयत् ॥ ६१॥
हिरण्यकशिपुने
कहा—उस छोटे से बालक (यमराज) की ऐसी
ज्ञानपूर्ण बातें सुनकर सब-के-सब दंग रह गये। उशीनर-नरेश के भाई-बन्धु और
स्त्रियों ने यह बात समझ ली कि समस्त संसार और इसके सुख-दु:ख अनित्य एवं मिथ्या
हैं ॥ ५८ ॥ यमराज यह उपाख्यान सुनाकर वहीं अन्तर्धान हो गये। भाई बन्धुओं ने भी
सुयज्ञ की अन्त्येष्टि-क्रिया की ॥ ५९ ॥ इसलिये तुमलोग भी अपने लिये या किसी दूसरे
के लिये शोक मत करो। इस संसार में कौन अपना है और कौन अपने से भिन्न ? क्या अपना है और क्या पराया ? प्राणियों को अज्ञान के
कारण ही यह अपने-पराये का दुराग्रह हो रहा है, इस भेद-बुद्धि
का और कोई कारण नहीं है ॥ ६० ॥
नारदजी
ने कहा—युधिष्ठिर ! अपनी पुत्रवधू के साथ दिति ने हिरण्यकशिपु की यह बात सुनकर
उसी क्षण पुत्रशोक का त्याग कर दिया और अपना चित्त परमतत्त्वस्वरूप परमात्मा में
लगा दिया ॥ ६१ ॥
इति
श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां सप्तमस्कन्धे द्वितीयोऽध्यायः
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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