॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम
स्कन्ध – तीसरा
अध्याय..(पोस्ट०१)
हिरण्यकशिपुकी
तपस्या और वरप्राप्ति
श्रीनारद
उवाच
हिरण्यकशिपू
राजन्नजेयमजरामरम्
आत्मानमप्रतिद्वन्द्वमेकराजं
व्यधित्सत ||१||
स
तेपे मन्दरद्रोण्यां तपः परमदारुणम्
ऊर्ध्वबाहुर्नभोदृष्टिः
पादाङ्गुष्ठाश्रितावनिः ||२||
जटादीधितिभी
रेजे संवर्तार्क इवांशुभिः
तस्मिंस्तपस्तप्यमाने
देवाः स्थानानि भेजिरे ||३||
तस्य
मूर्ध्नः समुद्भूतः सधूमोऽग्निस्तपोमयः
तिर्यगूर्ध्वमधो
लोकान्प्रातपद्विष्वगीरितः ||४||
चुक्षुभुर्नद्युदन्वन्तः
सद्वीपाद्रि श्चचाल भूः
निपेतुः
सग्रहास्तारा जज्वलुश्च दिशो दश ||५||
नारदजीने
कहा—युधिष्ठिर ! अब हिरण्यकशिपु ने यह विचार किया कि ‘मैं
अजेय, अजर, अमर और संसार का एकछत्र
सम्राट् बन जाऊँ, जिससे कोई मेरे सामने खड़ा तक न हो सके’
॥ १ ॥ इसके लिये वह मन्दराचल की एक घाटी में जाकर अत्यन्त दारुण
तपस्या करने लगा। वहाँ हाथ ऊपर उठाकर आकाशकी ओर देखता हुआ वह पैरके अँगूठेके बल
पृथ्वीपर खड़ा हो गया ॥ २ ॥ उसकी जटाएँ ऐसी चमक रही थीं, जैसे
प्रलयकालके सूर्यकी किरणें। जब वह इस प्रकार तपस्यामें संलग्र हो गया, तब देवतालोग अपने-अपने स्थानों और पदों पर पुन: प्रतिष्ठित हो गये ॥ ३ ॥
बहुत दिनों तक तपस्या करने के बाद उसकी तपस्या की आग धूएँ के साथ सिर से निकलने
लगी। वह चारों ओर फैल गयी और ऊपर-नीचे तथा अगल-बगल के लोकों को जलाने लगी ॥ ४ ॥
उसकी लपट से नदी और समुद्र खौलने लगे। द्वीप और पर्वतों के सहित पृथ्वी डगमगाने
लगी। ग्रह और तारे टूट- टूटकर गिरने लगे तथा दसों दिशाओं में मानो आग लग गयी ॥ ५ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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