॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम
स्कन्ध – तीसरा
अध्याय..(पोस्ट०२)
हिरण्यकशिपुकी
तपस्या और वरप्राप्ति
तेन
तप्ता दिवं त्यक्त्वा ब्रह्मलोकं ययुः सुराः
धात्रे
विज्ञापयामासुर्देवदेव जगत्पते ||६||
दैत्येन्द्र
तपसा तप्ता दिवि स्थातुं न शक्नुमः
तस्य
चोपशमं भूमन्विधेहि यदि मन्यसे ||७||
लोका
न यावन्नङ्क्ष्यन्ति बलिहारास्तवाभिभूः
तस्यायं
किल सङ्कल्पश्चरतो दुश्चरं तपः ||८||
श्रूयतां
किं न विदितस्तवाथापि निवेदितम्
सृष्ट्वा
चराचरमिदं तपोयोगसमाधिना
अध्यास्ते
सर्वधिष्ण्येभ्यः परमेष्ठी निजासनम् ||९||
तदहं
वर्धमानेन तपोयोगसमाधिना
कालात्मनोश्च
नित्यत्वात्साधयिष्ये तथात्मनः ||१०||
अन्यथेदं
विधास्येऽहमयथा पूर्वमोजसा
किमन्यैः
कालनिर्धूतैः कल्पान्ते वैष्णवादिभिः ||११||
इति
शुश्रुम निर्बन्धं तपः परममास्थितः
विधत्स्वानन्तरं
युक्तं स्वयं त्रिभुवनेश्वर ||१२||
तवासनं
द्विजगवां पारमेष्ठ्यं जगत्पते
भवाय
श्रेयसे भूत्यै क्षेमाय विजयाय च ||१३||
हिरण्यकशिपु
की उस तपोमयी आग की लपटों से स्वर्ग के देवता भी जलने लगे। वे घबराकर स्वर्ग से ब्रह्मलोक
में गये और ब्रह्माजी से प्रार्थना करने लगे—‘हे देवताओं के भी
आराध्यदेव जगत्पति ब्रह्माजी ! हमलोग हिरण्यकशिपु के तप की ज्वाला से जल रहे हैं।
अब हम स्वर्ग में नहीं रह सकते। हे अनन्त ! हे सर्वाध्यक्ष ! यदि आप उचित समझें तो
अपनी सेवा करनेवाली जनता का नाश होनेके पहले ही यह ज्वाला शान्त कर दीजिये ॥ ६-७ ॥
भगवन् ! आप सब कुछ जानते ही हैं, फिर भी हम अपनी ओर से आपसे
यह निवेदन कर देते हैं कि वह किस अभिप्राय से यह घोर तपस्या कर रहा है। सुनिये,
उसका विचार है कि ‘जैसे ब्रह्माजी अपनी तपस्या
और योग के प्रभावसे इस चराचर जगत् की सृष्टि करके सब लोकों से ऊपर सत्यलोक में
विराजते हैं, वैसे ही मैं भी अपनी उग्र तपस्या और योगके
प्रभावसे वही पद और स्थान प्राप्त कर लूँगा। क्योंकि समय असीम है और आत्मा नित्य
है। एक जन्ममें नहीं, अनेक जन्मोंमें; एक
युग में न सही, अनेक युगों में ॥ ८—१०
॥ अपनी तपस्या की शक्ति से मैं पाप-पुण्यादि के नियमों को पलटकर इस संसार में ऐसा
उलट-फेर कर दूँगा, जैसा पहले कभी नहीं था। वैष्णवादि पदों में
तो रखा ही क्या है। क्योंकि कल्प के अन्त में उन्हें भी काल के गाल में चला जाना
पड़ता है’[*] ॥ ११ ॥ हमने सुना है कि ऐसा हठ करके ही वह (हिरण्यकशिपु)
घोर तपस्या में जुटा हुआ है। आप तीनों लोकों के स्वामी हैं। अब आप जो उचित समझें,
वही करें ॥ १२ ॥ ब्रह्माजी ! आपका यह सर्वश्रेष्ठ परमेष्ठि-पद
ब्राह्मण एवं गौओं की वृद्धि, कल्याण, विभूति,
कुशल और विजय के लिये है। (यदि यह हिरण्यकशिपु के हाथ में चला गया,
तो सज्जनों पर सङ्कटों का पहाड़ टूट पड़ेगा) ॥ १३ ॥
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यद्यपि वैष्णवपद (वैकुण्ठादि नित्यधाम) अविनाशी हैं, परंतु हिरण्यकशिपु अपनी आसुरी बुद्धि के कारण उनको कल्प के अन्त में नष्ट
होनेवाला ही मानता था। तामसी बुद्धि में सब बातें विपरीत ही दीखा करती हैं।
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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