॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम
स्कन्ध – पाँचवाँ
अध्याय..(पोस्ट१२)
हिरण्यकशिपु
के द्वारा प्रह्लादजी के वध का प्रयत्न
चिन्तां
दीर्घतमां प्राप्तस्तत्कर्तुं नाभ्यपद्यत
एष
मे बह्वसाधूक्तो वधोपायाश्च निर्मिताः
तैस्तैद्रोहैरसद्धर्मैर्मुक्तः
स्वेनैव तेजसा ||४५||
वर्तमानोऽविदूरे
वै बालोऽप्यजडधीरयम्
न
विस्मरति मेऽनार्यं शुनः शेप इव प्रभुः ||४६||
अप्रमेयानुभावोऽयमकुतश्चिद्भयोऽमरः
नूनमेतद्विरोधेन
मृत्युर्मे भविता न वा ||४७||
वह
(हिरण्यकशिपु ) सोचने लगा—‘इसे मैंने बहुत कुछ बुरा- भला कहा, मार डालने के
बहुत-से उपाय किये। परंतु यह मेरे द्रोह और दुर्व्यवहारों से बिना किसी की सहायता से
अपने प्रभाव से ही बचता गया ॥ ४५ ॥ यह बालक होने पर भी समझदार है और मेरे पास ही
नि:शङ्क भाव से रहता है। हो-न-हो इसमें कुछ सामर्थ्य अवश्य है। जैसे शुन:शेप[*]
अपने पिता की करतूतों से उसका विरोधी हो गया था, वैसे ही यह भी मेरे किये अपकारों को न भूलेगा ॥ ४६ ॥ न तो यह किसी से डरता
है और न इसकी मृत्यु ही होती है। इसकी शक्ति की थाह नहीं है। अवश्य ही इसके विरोध से
मेरी मृत्यु होगी। सम्भव है, न भी हो’ ॥
४७ ॥
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[*]
शुन:शेप अजीगर्त का मँझला पुत्र था। उसे पिता ने वरुण के यज्ञ में
बलि देने के लिये हरिश्चन्द्र के पुत्र रोहिताश्व के हाथ बेच दिया था। तब उसके
मामा विश्वामित्रजी ने उसकी रक्षा की और वह अपने पिता से विरुद्ध होकर उनके
विपक्षी विश्वामित्रजी के ही गोत्र में हो गया। यह कथा आगे ‘नवम
स्कन्ध’के सातवें अध्याय में आवेगी।
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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