॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम
स्कन्ध – पाँचवाँ
अध्याय..(पोस्ट११)
हिरण्यकशिपु
के द्वारा प्रह्लादजी के वध का प्रयत्न
प्रयासेऽपहते
तस्मिन्दैत्येन्द्रः परिशङ्कितः
चकार
तद्वधोपायान्निर्बन्धेन युधिष्ठिर ||४२||
दिग्गजैर्दन्दशूकेन्द्रैरभिचारावपातनैः
मायाभिः
सन्निरोधैश्च गरदानैरभोजनैः ||४३||
हिमवाय्वग्निसलिलैः
पर्वताक्रमणैरपि
न
शशाक यदा हन्तुमपापमसुरः सुतम् ||४४||
युधिष्ठिर
! जब शूलों की मार से प्रह्लाद के शरीर पर कोई असर नहीं हुआ, तब हिरण्यकशिपु को बड़ी शङ्का हुई। अब वह प्रह्लाद को मार डालनेके लिये
बड़े हठ से भाँति-भाँति के उपाय करने लगा ॥ ४२ ॥ उसने उन्हें बड़े-बड़े मतवाले
हाथियों से कुचलवाया, विषधर साँपों से डँसवाया, पुरोहितों से कृत्या राक्षसी उत्पन्न करायी, पहाडक़ी
चोटी से नीचे डलवा दिया, शम्बरासुर से अनेकों प्रकार की माया
का प्रयोग करवाया, अँधेरी कोठरियों में बंद करा दिया,
विष पिलाया और खाना बंद कर दिया ॥ ४३ ॥ बर्फीली जगह, दहकती हुई आग और समुद्रमें बारी-बारीसे डलवाया, आँधीमें
छोड़ दिया तथा पर्वतोंके नीचे दबवा दिया; परंतु इनमेंसे किसी
भी उपायसे वह अपने पुत्र निष्पाप प्रह्लादका बाल भी बाँका न कर सका। अपनी विवशता
देखकर हिरण्यकशिपु को बड़ी चिन्ता हुई। उसे प्रह्लाद को मारने के लिये और कोई उपाय
नहीं सूझ पड़ा ॥ ४४ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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